गाय राज्यमाता: साधुओं की लाशें… करपात्री महाराज का इंदिरा को वो शाप, जो 18 साल बाद हुआ सच

महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार ने गाय को राज्यमाता का दर्जा दिया है। 1966 में करपात्रीजी महाराज ने गोवधबंदी के लिए देशभर में साधु-संतों की मुहिम चलाई थी।

करपात्रीजी महाराज ने गोरक्षा के लिए 1966 में किया था ऐतिहासिक आंदोलन

सनातन धर्म के लिए गाय माता का रूप है। उसमें देवी-देवताओं के निवास करने की मान्यता है। गोरक्षा के लिए हिंदू संगठनों की मुहिम कई राज्यों में देखने को मिलती रही है। अब महाराष्ट्र से अच्छी खबर यह है कि वहां गाय को राज्यमाता का दर्जा मिल गया है। देश के गोरक्षा आंदोलन ने वह दौर भी देखा है, जब सैकड़ों साधुओं ने अपना बलिदान दिया था। पूर्ण गोवधबंदी के लिए हजारों साधुओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया था। उनका नेतृत्व कर रहे थे महान गोरक्षक स्वामी करपात्रीजी महाराज। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उन्होंने चुनौती दी थी। करपात्री महाराज के उस ऐतिहासिक आंदोलन ने देश को हिला दिया था। पुलिस फायरिंग में साधुओं के नरसंहार से आहत करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी को शाप दिया था। वह शाप 18 साल बाद सच भी साबित हुआ।

गोवधबंदी विधेयक के खिलाफ नेहरू

आजाद हिंदुस्तान में सबसे पहले विनोबा भावे ने पूर्ण गोवधबंदी की मांग उठाई। पदयात्राओं में वह इस मांग को जनता के बीच उठाते रहे। कुछ राज्यों में गोवधबंदी कानून अमल में भी आए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के दौर में हिंदू महासभा की तरफ से एक कोशिश हुई। हिंदू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चंद्र चटर्जी ने 1955 में संसद में एक विधेयक पेश किया। लेकिन नेहरू इसके खिलाफ थे। लोकसभा में पंडित नेहरू ने कहा, ‘मैं गोवधबंदी के खिलाफ हूं। सदन को यह विधेयक रद्द कर देना चाहिए। राज्य सरकारों से भी मेरी अपील है कि ऐसे विधेयक पर कोई कार्यवाही न करें।‘ यानी नेहरू के जीतेजी गोवधबंदी के मुद्दे पर कुछ हो नहीं सका। उसके बाद आया इंदिरा गांधी का दौर। 1965-66 में स्वामी करपात्रीजी महाराज और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के नेतृत्व में देश के हजारों साधु-संतों ने गोरक्षा अभियान शुरू किया। उस आंदोलन का किस्सा जानने से पहले आपको बताते हैं कि करपात्रीजी महाराज कौन थे?

कौन थे करपात्रीजी महाराज

1907 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी गांव में स्वामी करपात्रीजी महाराज का जन्म हुआ। छोटी उम्र में ही सत्य का ज्ञान होने के बाद उन्होंने घर छोड़ दिया। देश-विदेश में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे। उनका नाम हरनारायण ओझा था। दीक्षा के बाद उनका नाम हरींद्र नाथ सरस्वती पड़ गया।  लेकिन उनकी ख्याति करपात्रीजी महाराज के नाम से हुई। वह ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। उनके नाम के पीछे छिपी दास्तां भी दिलचस्प है। तपस्या के दौरान उन्होंने पात्र यानी बर्तन का त्याग कर दिया था। वह दिन में सिर्फ एक बार हाथ की अंजुलि में जितना भोजन समाता था, उतना ही करते थे। कर यानी हाथ में भोजन करने की वजह से उनको करपात्रीजी महाराज के नाम से लोग जानते थे। 24 घंटे में एक बार भोजन, जमीन पर शयन, चरणपदयात्रा और एक पैर पर खड़े होकर तपस्या। यह कठोर जीवन उनकी दिनचर्या थी। वह प्रकांड विद्वान भी थे। उनके लिखे प्रचलित ग्रंथों में रामायण मीमांसा, रामराज्य, वेदार्थ पारिजात, विचार पीयूष और मार्क्सवाद हैं। करपात्रीजी को धर्मसम्राट की उपाधि भी मिली हुई थी।

इंदिरा गांधी से करपात्रीजी का टकराव 

करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में साधु-संत सड़कों पर थे। इसी बीच जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखी। उसका मजमून कुछ यूं था- भारत एक हिंदू बहुल देश है। ऐसे में गोहत्या प्रतिबंध कानून क्यों नहीं लाया जा सकता? लेकिन इंदिरा गांधी ने जेपी की यह सलाह नहीं मानी। गोरक्षा महाभियान का दिल्ली में विराट प्रदर्शन हुआ। इंदिरा गांधी के सामने चुनाव भी करीब आ रहे थे। इंदिरा ने आखिरकार करपात्रीजी महाराज से जीत का आशीर्वाद मांगा। वचन दिया कि चुनाव जीतते ही अंग्रेजों के जमाने से चल रहे गायों के सभी कत्लखाने बंद हो जाएंगे। चुनाव इंदिरा जीत गईं, लेकिन इसके बाद करपात्रीजी से किए वादे को टालती रहीं। ऐसे में स्वामी जी को एक बार फिर आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। तारीख- 7 नवंबर 1966। लाखों साधु-संत गोवधबंदी कानून की मांग करते हुए संसद के बाहर धरना देने लगे। करपात्रीजी महाराज के साथ  रामचंद्र वीर भी थे, जिन्होंने आमरण अनशन का ऐलान किया था। करपात्री महाराज के इस आंदोलन में ज्योतिष पीठ, द्वारका पीठ और जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य, रामानंदाचार्य, नाथ संप्रदाय और हजारों की संख्या में नागा साधु शामिल थे। लाल किला मैदान से शुरू हुई पदयात्रा संसद भवन तक पहुंच गई। जिस रास्ते से यह पदयात्रा निकल रही थी, वहां लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे।

संसद के बाहर जुटे संत, संघर्ष        

हरियाणा के करनाल से जनसंघ के सांसद थे स्वामी रामेश्वरानंद। उग्र संतों से उन्होंने कहा कि संसद में घुसकर सांसदों को बाहर लाया जाए, तभी गोहत्या रोकने का कानून बनेगा। स्वामी रामेश्वरानंद आर्य समाज से जुड़े हुए थे। उन्होंने कहा, ‘यह सरकार गोहत्या रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएगी। इस सरकार को झकझोरना होगा।‘ इन सबके बीच ट्रांसपोर्ट भवन के पास शरारती तत्वों ने कुछ गाड़ियों में आग लगा दी। संसद के दरवाजे बंद हो गए और चारों ओर धुआं उठने लगा।

इंदिरा ने दिए फायरिंग के आदेश 

इंदिरा गांधी को पूरे घटनाक्रम की सूचना दी गई, तो उन्होंने निहत्थे संतों और करपात्रीजी महाराज पर फायरिंग के आदेश दे दिए। पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड़ पर पहले लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले बरसाए। इसके बाद साधु-संतों और गोरक्षकों की भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग होने लगी। अपुष्ट आंकड़ों के मुताबिक पुलिस की गोली से तकरीबन 250 निर्दोष साधु-संत मारे गए। दिल्ली में कर्फ्यू जैसे हालात थे। हजारों संतों को जेल में डाल दिया गया और मीडिया को सेंसर कर दिया गया। मासिक पत्रिका कल्याण ने बाद में अपने गौ अंक विशेषांक में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया था। गोरखपुर से छपने वाली कल्याण में करपात्रीजी महाराज के हवाले से इंदिरा गांधी के लिए कहा गया, ‘मुझे इस बात का दुख नहीं कि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या कराई, बल्कि तूने गोहत्या करने वालों को छूट देकर पाप किया है। यह माफी के लायक नहीं है। गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा।‘ इस हत्याकांड से क्षुब्ध तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने पूरी घटना के लिए अपने साथ ही इंदिरा सरकार को जिम्मेदार ठहराया था। संत रामचंद्र वीर 166 दिन तक अनशन पर रहे, जो उनकी मृत्यु के साथ खत्म हुआ।

18 साल बाद सच हुआ शाप

गोपाष्टमी को गोपूजा का सबसे बड़ा दिन माना जाता है। 1966 में उसी दिन देश की राजधानी में साधुओं का नरसंहार हुआ था। स्वामी करपात्रीजी के एक शिष्य ने बताया था कि करपात्रीजी ने इंदिरा गांधी को शाप दिया कि जिस तरह से निहत्थे साधु-संतों पर फायरिंग करके नरसंहार किया गया है, उनका भी यही हाल होगा। बताया जाता है कि संसद के सामने साधुओं की लाशें थीं। दुख के सागर में डूबे करपात्री महाराज ने रोते हुए यह शाप दिया। इस घटना के 18 साल बीत गए। तारीख- 31 अक्टूबर 1984। यह गोपाष्टमी का दिन था। दिल्ली के 1-सफदरजंग रोड स्थित आवास पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने अंधाधुंध गोलियां बरसाते हुए हत्या कर दी। और इस तरह करपात्रीजी महाराज की कही बात सच साबित हुई। करपात्रीजी महाराज का निधन 7 फरवरी 1982 को माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन वाराणसी के केदारघाट पर हुआ। उनकी इच्छा के अनुसार केदारघाट स्थित मां गंगा की गोद में ही उन्हें जलसमाधि दे दी गई। गोरक्षा आंदोलन के लिए उनका अद्भुत योगदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।

महाराष्ट्र में गाय को राज्यमाता दर्जा           

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की महायुति सरकार ने गाय को राज्यमाता का दर्जा दे दिया है। कैबिनेट की बैठक में राज्य सरकार ने यह फैसला लिया। राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में शिंदे सरकार के इस कदम  को अहम माना जा रहा है। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने फैसले की जानकारी देते हुए कहा, ‘देसी गाय हमारे किसानों के लिए एक वरदान है। इसलिए हमने राज्यमाता का दर्जा देने का फैसला लिया है। हमने देसी गोमाता के परिपोषण और चारे के लिए मदद देने का निर्णय लिया है।‘ शिंदे कैबिनेट की बैठक में देसी गायों के पालन-पोषण के लिए 50 रुपये प्रतिदिन की सब्सिडी योजना लागू करने का भी फैसला लिया गया है। गोशालाओं की आय कम होने की वजह से उन्हें यह सब्सिडी देने पर मुहर लगाई गई है।

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