देश में गणेशोत्सव की धूम है। गणपति बप्पा की मूर्तियां और गणपति पंडाल भारत के हर छोटे-बड़े शहरों में स्थापित किए गए हैं। एक ऐसा उत्सव, जिसमें पूरा महाराष्ट्र एक अलग उमंग और तरंग में झूम पड़ता है। 19वीं शताब्दी में लोकमान्य तिलक ने पुणे से इस परंपरा को शुरू किया था, जिसे आज पूरे देश ने आत्मसात कर लिया है। मुंबई समेत देश के तमाम बड़े शहरों में गणपति पंडालों की शोभा देखते ही बनती है। लेकिन इस देश में राजनीति ऐसी हो गई है, जो किसी उल्लास और आराधना की भावना में भी अपने लिए विरोध का मौका ढूंढ लेती है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के घर पधारे। मौका था गणपति पूजा का। उन्होंने वहां बप्पा की पूजा और आरती की। बात यहीं पर खत्म हो जानी चाहिए लेकिन विपक्षी पार्टियों के पेट में दर्द होने लगा। फैज अहमद फैज का एक शेर है- वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है। कुछ इसी तर्ज पर अब विपक्ष कार्यपालिका और न्यायपालिका में समझौते की दुहाई दे रहा है। क्या देश के प्रधानमंत्री देश के सीजेआई के घर किसी निजी कार्यक्रम में नहीं जा सकते हैं? लोकतंत्र के तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में कोई दुश्मनी तो नहीं है? माना कि सबकी अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं लेकिन गणेश पूजा में जाकर इस मर्यादा को लांघने जैसा तो कुछ नजर नहीं आता। पीएम मोदी का सीजेआई के घर जाना क्यों एक सामान्य घटना माना जाना चाहिए, आइए इस पर चर्चा कर लेते हैं।
पूजा में जाना कार्यपालिका-न्यायपालिका का समझौता कैसे?
सवाल यह है कि क्या पीएम मोदी का सीजेआई के यहां गणेश पूजा में जाना लोकतंत्र के खंभों की कमजोरी की निशानी है? इसका जवाब बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा के बयान से आसानी से मिल सकता है। संबित पात्रा ने कहा, ‘सीजेआई के आवास पर एक धार्मिक आयोजन में पीएम के हिस्सा लेने पर कुछ लोग सियासत की कोशिश कर रहे हैं। क्या पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह जब इफ्तार पार्टी का आयोजन करते थे तो क्या उसमें देश के सीजेआई नहीं आते थे। जब इफ्तार पार्टी में प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस बैठकर गुफ्तगू कर सकते हैं। एक टेबल पर बात कर सकते हैं। वह भी एक त्योहार है और यह भी एक त्योहार है। दोनों त्योहारों के बीच अंतर क्यों है?’
गणेश पूजा एक ऐसा पर्व है, जिसकी महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में बहुत मान्यता है। क्या कोई प्रधानमंत्री या सीजेआई बनने के बाद अपना धर्म त्याग देता है? क्या उसे यह अधिकार नहीं है कि किसी त्योहार को पारंपरिक तरीके से मनाए और पूजा-अर्चना में हिस्सा ले? एक सवाल और है कि हमारे देश के संविधान में कहां लिखा है कि पीएम और सीजेआई एक-दूसरे से मिल नहीं सकते हैं। जो विपक्ष पीएम मोदी और सीजेआई की मुलाकात पर हंगामा खड़ा कर रहा है, वह किसी इफ्तार पार्टी में तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह और चीफ जस्टिस की मुलाकात को भूल गया क्या? चलिए याद दिला देते हैं। 2009 में पीएम डॉ. मनमोहन सिंह की इफ्तार पार्टी में तत्कालीन सीजेआई केजी बालकृष्णन शामिल हुए थे। तो क्या उस वक्त न्यायपालिका और कार्यपालिका में समझौता हो गया था? क्या गणेश पूजा में शामिल होना अपराध है और इफ्तार पार्टी में शामिल होना निष्पक्षता की निशानी?
इंदिरा जय सिंह को सीजेआई के ये फैसले पढ़ने चाहिए
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जय सिंह ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, ‘देश के चीफ जस्टिस ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन को लेकर समझौता कर लिया है। मुख्य न्यायाधीश की स्वतंत्रता पर से सारा भरोसा उठ गया है। एससीबीए (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) को कार्यपालिका और सीजेआई की स्वतंत्रता के बीच सार्वजनिक रूप से किए समझौते की निंदा करनी चाहिए।‘ इंदिरा जय सिंह यह बयान देते हुए भूल गईं कि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कई फैसले ऐसे दिए हैं, जो मोदी सरकार के खिलाफ गए हैं। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र के राज्यपाल के मामले में उन्होंने पूर्व गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी के फ्लोर टेस्ट बुलाने के फैसले को गलत ठहराया। चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या इंदिरा जय सिंह को याद नहीं है। सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने केंद्र सरकार की 2018 की चुनावी बॉन्ड योजना को सर्वसम्मति से असंवैधानिक माना था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह योजना निष्पक्ष चुनावों को सिद्धांत का उल्लंघन करती है। अदालत ने दानदाताओं के नाम चुनाव आयोग को अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करने का आदेश दिया था। इसे लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी सरकार के खिलाफ बड़ा हथियार बनाने वाला विपक्ष क्या भूल गया?
संविधान में भी तो मिलने-जुलने पर रोक नहीं है
क्या संविधान में कहीं लिखा हुआ है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के लोगों को मिलने-जुलने से बचना चाहिए? जो विपक्ष लोकतंत्र और न्याय की निष्पक्षता की बेतुकी दलील देकर इस मुलाकात पर हंगामा मचा रहा है, वह क्या बता सकता है कि संविधान के किस अनुच्छेद या पैरा में लिखा है कि लोकतंत्र के दो अहम स्तंभों के बीच दूरी होनी चाहिए। पीएम मोदी ने सीजेआई के घर पूजा में शामिल होने को छिपाया नहीं है। उन्हें गोपनीय मुलाकात करनी होती तो शायद वह बाहर ही नहीं आ पाती। पीएम मोदी सार्वजनिक रूप से एक्स पर फोटो पोस्ट करते हुए लिखते हैं, ‘मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ जी के घर गणेश पूजा में शामिल हुआ। भगवान गणेश हम सभी को सुख, समृद्धि और अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें।‘ इसमें किसी को क्या गलत नजर आता है? अगर आता है तो उसको अपने चश्मे का नंबर बदलने की जरूरत है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंधों की यह बहस है ही नहीं।
पीएम ने परंपरा का सम्मान किया, चुनाव से मत जोड़िए
बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष ने ठीक ही कहा है कि यह लोकतंत्र के दोनों स्तंभों का घुलना-मिलना नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से गणपति पूजा थी। कल की एक पूजा और आरती ने देश में कई लोगों की नींद, मॉर्निंग वॉक और चाय-नाश्ता बिगाड़ दिया। शिवसेना यूबीटी के संजय राउत कहते हैं कि संविधान के संरक्षक अगर राजनीतिक नेताओं से मिलते हैं तो जनता को संदेह होगा। उनसे सवाल है कि जब फैसले अनुकूल होते हैं, तो यही विपक्ष न्याय की जीत बताता है और जब चीजें उनके मन—मुताबिक नहीं होती हैं तो न्यायपालिका से समझौता बताया जाता है। जहां तक बात पीएम के मराठी परिधान में वहां जाने की है, उसमें आखिर बुराई क्या है? इसे बहुत से विरोधी महाराष्ट्र चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं। हमारे पीएम तो जहां भी जाते हैं, वहां की संस्कृति और परंपरा को सर-माथे पर लगाते हैं। पहला महाराष्ट्र में चुनाव तारीखों का अभी ऐलान भी नहीं हुआ है। दूसरा क्या हमारी महान मान्यताएं और परंपराएं चुनाव और सियासत के आधार पर चलेंगी? पीएम ने मराठी टोपी और परिधान पहनकर महाराष्ट्र की परंपरा को सम्मान दिया है और इसको चुनाव से जोड़ने वालों की अक्ल पर तरस आता है।