तालिबान 2.0: आधी आबादी के लिए सबसे ‘दमनकारी देश’ के करीब आती दुनिया!

सोवियत संघ के विघटन और सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में 1990 के दशक में तालिबान सक्रिय हुआ था। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था, जिसने पूरी दुनिया को बदल दिया। इसके बाद ही अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला करते हुए तालिबान को सत्ता से उखाड़ फेंका था।

तालिबान में नए कानून लागू होने से महिलाओं के लिए मुश्किल बढ़ी (सौजन्य: हश्त-ए-सुबह एक्स पेज)

तालिबान की वापसी के बाद अफगानिस्तान महिलाओं और लड़कियों के लिए सबसे दमनकारी देश बन गया है। नए शासकों ने सारा ध्यान ऐसे नियम लागू करने में लगाया है, जिसकी वजह से ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां अपने घरों में फंसकर रह गई हैं। पिछले साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर यह बयान संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की तरफ से आया था। अगस्त 2021 में अमेरिका और नाटो सेनाओं के अफगानिस्तान से निकलने के बाद तालिबान ने पूरे देश पर अपना नियंत्रण मजबूत कर लिया है। 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने तालिबान पर हमला किया और सत्ता से हटा दिया। दो दशक की जंग के बाद अमेरिकी सैनिकों की आखिरी खेप ने जुलाई 2021 में बगराम एयरबेस खाली कर दिया था। इससे तालिबान के लिए काबुल पर कब्जे का रास्ता साफ हुआ था। अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के तीन साल पूरे हो चुके हैं। इन गुजरते दिन, महीनों और साल के साथ वहां पर आधी आबादी की स्थिति बद से बदतर हुई है। महिलाओं को काम करने से रोकना और लड़कियों को पढ़ने-लिखने की आजादी नहीं होने से अफगानिस्तान की आधी आबादी कई पीढ़ी पीछे जा रही है।

नए कानून और पाबंदियों से महिलाओं के लिए बना जहन्नुम

तालिबान शासन ने अपने सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अखुंदजादा की मुहर लगने के बाद पिछले महीने नए कानून लागू किए हैं। तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद अफगानिस्तान में बुराई और अच्छाई वाले कानूनों का यह पहला औपचारिक ऐलान है। इसके साथ ही 1.4 करोड़ महिलाओं और लड़कियों के लिए अफगानिस्तान जहन्नुम बनता जा रहा है। लड़कियां यहां पर छठी कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं कर सकती हैं। नौकरियों में उनके लिए कोई जगह नहीं है। अगर पार्क जाने का उनका मन करे तो यह भी उनके लिए दिवास्वप्न की तरह है, क्योंकि यहां महिलाओं-लड़कियों के जाने पर रोक है। कहीं भी यात्रा करनी है तो पुरुष का साथ होना जरूरी है। इसके साथ ही नए कानून के मुताबिक महिलाओं को सार्वजनिक तौर पर अपने शरीर और चेहरे को पूरी तरह ढकना अनिवार्य है। यही नहीं जब भी कोई वयस्क महिला घर से बाहर के लिए निकलेगी, तो अपनी आवाज, शरीर और चेहरा छिपाकर रखना होगा। इसका अर्थ यह है कि बुर्के में ढके होने के बावजूद उनके बोलने, पढ़ने और गाने पर प्रतिबंध होगा।

कामगार महिलाओं के आंकड़े में दयनीय गिरावट  

वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक तालिबान की जब तक सत्ता नहीं आई थी, उस समय अफगानिस्तान के कुल कामगारों में महिलाओं की हिस्सेदारी 14.8 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। वहीं, अगस्त 2021 से अब तक तालिबान राज के तीन साल बीतने के बाद यह आंकड़ा घटकर 4.8 प्रतिशत पहुंच गया है। तालिबान ने व्यभिचार के आरोप में सार्जनिक रूप से कोड़े और पत्थर मारने का दमनकारी कानून फिर से लागू किया है। नए नियम सांस्कृतिक समारोहों और गैर मुस्लिम छुट्टियों में संगीत बजाने पर भी प्रतिबंध लगाते हैं। पुरुषों से ज्यादा महिलाओं को इसका बुरा नतीजा भुगतना पड़ रहा है।

अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं लेकिन सुधर रहे हैं संबंध

अफगानिस्तान को अब तक वैध सरकार के तौर पर किसी देश ने मान्यता नहीं दी है। इसके बावजूद तालिबान शासन के साथ कई देशों के संबंध सुधर रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ईरान और रूस समेत तकरीबन दर्जन भर देशों की काबूल में राजनयिक मौजूदगी है। पाकिस्तान ने सबसे पहले अक्टूबर 2021 में ही दूतावास तालिबान को सौंप दिया था। ईरान ने फरवरी 2023 में तेहरान स्थित अपना दूतावास तालिबान के सुपुर्द किया। इस साल जनवरी में चीन ने तालिबान की ओर से पेइचिंग में नियुक्त राजदूत बिलाल करीमी को मंजूरी दे दी। हालांकि चीन ने भी आधिकारिक तौर पर तालिबान को मान्यता नहीं दी है।

भारत की आशंकाएं

तालिबान राज आने के बाद भारत दुविधा में फंसा हुआ है। अल-कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन अभी भी अफगानिस्तान में सक्रिय हैं। भारत को आईसी-814 अपहरण कांड भी याद है। इस घटना को भले ही 25 साल बीत चुके हैं, लेकिन पाकिस्तानी साजिशकर्ताओं ने कंधार में ही अपहृत विमान को लैंड किया था। तालिबान उस समय भी सत्ता में था। उसने भले ही पर्दे के पीछे से बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभाई, लेकिन पाकिस्तानी आतंकियों के लिए कहीं न कहीं वह सबसे सुरक्षित पनाहगाह भी था। भारत ने अभी तालिबान को मान्यता नहीं दी है। हालांकि मानवीय मदद के लिए निचले स्तर पर नई दिल्ली संपर्क बनाए हुए है। मानवाधिकारों पर काम करने वाले कई संगठन भी आशंकित हैं। अगर तालिबान के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक संवाद नहीं होता है, तो वहां पर आधी आबादी की स्थिति में सुधार बहुत कठिन हो जाएगा।

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