अक्टूबर 1947 का समय, कश्मीर घाटी में भीषण सर्दी का मौसम शुरू हो चुका था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अपनी सेना के एक कमांडर, लेफ्टिनेंट नारायण सिंह को बुलाया। महाराजा ने उनसे पूछा कि उन्हें अपनी सेना के मुस्लिम फौजियों और अफसरों पर कितना भरोसा है। नारायण सिंह ने उत्तर दिया, “डोगराओं से ज़्यादा।”
दरअसल, भारत स्वतंत्र हो चुका था, लेकिन एक नए देश पाकिस्तान का उदय हो गया था। इस बँटवारे का समाज पर गहरा असर पड़ा था, और कश्मीर, एक मुस्लिम बहुल रियासत थी। महाराजा की शाही सेना में भी मुस्लिम सैनिकों की बड़ी संख्या थी। महाराजा को इस बात का डर था कि अगर पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो कहीं उनके मुस्लिम सैनिक धर्म के आधार पर पाला न बदल लें।
हालांकि, नारायण सिंह इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि एक फौजी का सिर्फ एक ही धर्म होता है—वतन की सुरक्षा। चाहे वह मुस्लिम हो, हिंदू हो, सिख हो, या फिर किसी अन्य धर्म, संप्रदाय या वर्ग का हो।
जम्मू-कश्मीर राज्य बल की मुस्लिम फ़ौजियों की गद्दारी
नारायण सिंह कश्मीर की बदलती राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को नहीं समझ सके। महाराजा हरि सिंह की आशंका सच साबित हुई। 22 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तानी फ़ौजियों ने कबाइलियों के साथ मिलकर कश्मीर पर हमला किया, तो उन्हें रोकने के बजाय महाराजा की सेना के मुस्लिम सैनिक हमलावरों के साथ जा मिले।
इन दगाबाज सैनिकों ने अपने कमांडर लेफ्टिनेंट नारायण सिंह और पलटन के दूसरे हिंदू सैनिकों को भी गोली मारकर हत्या कर दी। पाकिस्तान की ओर से लगभग 5,000 कबाइली और पाकिस्तानी फौजी कश्मीर में घुसे थे। इसमें महाराजा की सेना के करीब ढाई हजार मुस्लिम सैनिकों के शामिल हो जाने से उनकी ताकत दोगुनी हो गई।
गद्दारी का नतीजा: पाकिस्तानियों की बढ़ती ताक़त
गद्दार सैनिकों ने पहले तो अपने हिंदू साथियों की हत्या की और फिर टेलीफोन और संचार की अन्य लाइनों को काट दिया। इसके बाद उन्होंने पाकिस्तान को कश्मीर से जोड़ने वाले पुल पर तैनात संतरी को भी बंधक बना लिया, ताकि पाकिस्तानी फ़ौज और कबाइली आसानी से कश्मीर में प्रवेश कर सकें।
ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह की वीरता
मुस्लिम सैनिकों की इस गद्दारी के कारण, महाराजा की पूरी सेना लगभग साफ हो चुकी थी। जहां-जहां महाराजा की सेना तैनात थी, वहाँ पाकिस्तानियों का कब्ज़ा हो गया और श्रीनगर का रास्ता भी साफ हो गया। कबाइली तेजी से श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे, लेकिन उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था।
कहते हैं कि मुज़फ़्फ़राबाद पर हमले की खबर सुनते ही महाराजा हरि सिंह स्वयं मोर्चे पर जाना चाहते थे। लेकिन उनके चीफ़ ऑफ स्टाफ ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह ने उन्हें श्रीनगर में भारत से बातचीत के लिए रोक दिया और खुद मोर्चे पर पहुँच गए। उनके पास सिर्फ 150 जवान थे, लेकिन उन्होंने उरी में मोर्चा संभाल लिया। उन्होंने दो दिनों तक पाकिस्तानियों को आगे बढ़ने नहीं दिया।
जब उन्हें लगा कि वह अधिक देर तक उन्हें रोक नहीं सकेंगे, तो उन्होंने उरी का पुल ही उड़ा दिया, जिससे पाकिस्तानियों की श्रीनगर की तरफ बढ़त रुक गई। दुश्मन से लड़ते हुए ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह बलिदान हो गए, लेकिन उन्होंने श्रीनगर को बचा लिया।
गिलगित स्काउट्स की गद्दारी
मुस्लिम सैनिकों की यह बगावत सिर्फ मुज़फ़्फ़राबाद और उरी तक ही सीमित नहीं रही। गिलगित-बाल्टिस्तान में भी यही हुआ। गिलगित एजेंसी की सुरक्षा गिलगित स्काउट नामक एक पैरामिलिट्री फ़ोर्स के पास थी। इसका नेतृत्व अंग्रेज़ अधिकारियों के पास था। गिलगित स्काउट में भी मुस्लिम सैनिकों की संख्या अधिक थी।
जैसे ही उन्हें पाकिस्तान के हमले की खबर मिली, गिलगित स्काउट के सूबेदार बाबर खान ने अंग्रेज अधिकारियों की मदद से बगावत कर दी और पाकिस्तान से जा मिले। उन्होंने महाराजा की ओर से तैनात गवर्नर और अपने सिख, डोगरा और गोरखा साथियों की हत्या कर दी।
कश्मीर की सुरक्षा और भारतीय सेना का शौर्य
महाराजा की सेना के मुस्लिम सैनिकों की गद्दारी के कारण कश्मीर का बड़ा हिस्सा और पूरा गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान के कब्ज़े में चला गया। लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान का कश्मीर पर कब्ज़ा करने का षड्यंत्र सफल नहीं हो सका।
इसकी वजह थी भारतीय सेना का अदम्य शौर्य। भले ही जम्मू-कश्मीर रियासत के मुस्लिम जवानों ने पाकिस्तान का साथ दिया हो, लेकिन मेजर सोमनाथ शर्मा, ब्रिगेडियर उस्मान और ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह जैसे वीर सैनिकों ने अपनी जान देकर कश्मीर को पाकिस्तान के हाथों में जाने से बचा लिया।