खालिस्तानियों को बनाया बाप फिर चीन की गोद में बैठा कनाडा, चुनाव जीतने के लिए क्या-क्या करेंगे ट्रूडो?

2015 तक सब ठीक था, फिर ट्रूडो प्रधानमंत्री बने और...

जस्टिन ट्रूडो, शी जिनपिंग, नरेंद्र मोदी

चुनाव जीतने के लिए चीन की गोद में बैठा कनाडा

खालिस्तानी आतंकियों को लेकर भारत और कनाडा के बीच संबंध खराब हो चुके हैं। अब इन संबंधों को लेकर न केवल दोनों देशों बल्कि अन्य देशों में भी चर्चा हो रही है। इस चर्चा का कारण यह है कि भारत और कनाडा के बीच लंबे समय तक अच्छे संबंध रहे हैं। लेकिन बीते कुछ दिनों में कनाडा की तरफ से ऐसी हरकतें की गई हैं कि अब दोनों देशों के बीच संबंध कब सुधरेंगे यह कह पाना बेहद मुश्किल है।

दोनों देशों के संबंधों पर नजर डालें तो कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर भारत के साथ रिश्ते अच्छे रखकर आगे बढ़ना चाहते थे। स्टीफेन हार्पर और पीएम मोदी के बीच भी अच्छे संबंध रहे हैं। यही कारण है कि दोनों देश आपसी व्यापार को बढ़ाने के लिए भी आगे आए थे। व्यापार बढ़ाने के लिए भारत-कनाडा के बीच फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) पर भी बात की जा रही थी। साथ ही, भारत ने कनाडा के साथ न्यूक्लियर डील फिक्स की थी। इस डील के तहत कनाडा से भारत को यूरेनियम मिलना था। यह पूरी कहानी साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारत की सत्ता संभालने और स्टीफेन हार्पर के कनाडा के प्रधानमंत्री पद में रहने तक की है। लेकिन इसके बाद साल 2015 में कनाडा में आम चुनाव हुए। इस चुनाव में स्टीफेन हार्पर की हार हुई। इससे सत्ता में आई लिबरल पार्टी और प्रधानमंत्री बने जस्टिन ट्रूडो।

कैसे खराब हुए संबंध

चूंकि भारत और कनाडा के बीच यानी मोदी और हार्पर के आपसी संबंध अच्छे थे। दोनों के रिश्ते इतने शानदार थे कि साल 2019 में कनाडा दौरे पर गए पीएम मोदी ने कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर से भी मुलाकात की थी। इसलिए शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ट्रूडो के आने के बाद चीजें बदल सकती हैं। लेकिन ट्रूडो ने शुरुआत में ही रंग दिखाना शुरू कर दिया था। दरअसल, संबंध सुधारने या अच्छे रखने के लिए एक देश के नेता दूसरे देश की यात्रा करते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका समेत अन्य देशों के नेता सत्ता संभालने के बाद भारत या चीन की यात्रा करते हैं। इससे पता चलता है कि उस देश के लिए अन्य देश कितना अधिक महत्वपूर्ण है या किस देश के साथ संबंध रखना चाहते हैं।

एक ओर जहां स्टीफेन हार्पर कनाडा के प्रधानमंत्री बनने के एक साल बाद भारत आए थे। वहीं जस्टिन ट्रूडो ने सत्ता संभालने के बाद साल 2017 में चीन की यात्रा की थी और फिर साल 2018 में वह भारत आए थे। गौरतलब है कि जस्टिन ट्रूडो की चीन यात्रा सफल नहीं रही थी। मीडिया में यह तक कहा जा रहा था कि ट्रूडो को चीन से खाली हाथ लौटना पड़ा है।

मजबूरी में भारत आए ‘खालिस्तान प्रेमी’

चूंकि जस्टिन ट्रूडो को चीन से कुछ खास हासिल नहीं हुआ था और उन्हें एशिया में एक मजबूत साझेदार की आवश्यकता थी। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि ट्रूडो मजबूरन भारत आए थे। इस दौरे में भी जस्टिन ट्रूडो ने अपना खालिस्तान प्रेम दिखाते हुए खालिस्तानी आतंकी जसपाल अटवाल को डिनर के लिए बुलाया था। हालांकि बाद में भारत में हुए विरोध और सरकार के हस्तक्षेप के बाद ट्रूडो को यह डिनर रद्द करना पड़ा था।

हालांकि जस्टिन ट्रूडो की इस यात्रा में भारत और कनाडा के बीच आतंकवाद को लेकर एक दस्तावेज साझा किया गया था। इस दस्तावेज में, इस्लामिक आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद व खालिस्तानी आतंकी संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल के खिलाफ मिलकर काम करने की बात कही गई थी। यही नहीं, मार्च 2019 में कनाडा ने एक रिपोर्ट जारी कर यह भी कहा था कि खालिस्तान को लेकर सामने आ रहे खतरे पर पहली बार बात हुई। मोदी और ट्रूडो के बीच हुई द्विपक्षीय वार्ता और फिर कनाडा द्वारा जारी रिपोर्ट के बाद ऐसा माना जा रहा था कि शायद कनाडा खालिस्तानी आतंकवाद को लेकर अपनी छवि बदलना चाहता है। साथ ही भारत के साथ पुराने संबंधों को भी आगे लेकर जाना चाहता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

एक ओर जहां FTA यानी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट को ही देखें तो जस्टिन ट्रूडो सरकार आज तक इसको लेकर कोई फैसला नहीं कर पाई थी। वहीं, साल 2023 में ट्रूडो ने खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को लेकर भी भारत पर आरोप मढ़ दिए थे। यही नहीं, अब अक्टूबर 2024 में कनाडा ने भारत के मुख्य राजनयिक को पर्सन ऑफ इन्टरेस्ट लेवल करार दिया है। हालांकि भारत के पलटवार के बाद ट्रूडो सरकार को मुंह की खानी पड़ी है।

दरअसल, कनाडा ने निज्जर की हत्या में भारत के खिलाफ सबूत होने की बात कही थी। इस पर कनाडा की फ़ॉरेन इंटरफेरेंस कमीशन ने जस्टिन ट्रूडो को पूछताछ के लिए बुलाया था। जहां ट्रूडो भारत के खिलाफ सबूत होने की बात से सीधे तौर पर मुकर गए थे। ये वही ट्रूडो हैं, जो पब्लिक रैली से लेकर मीटिंग्स तक में लगातार भारत के खिलाफ सबूत होने की बात कह रहे थे। लेकिन जब सबूत पेश करने की बारी आई तो ट्रूडो के पास सच बोलने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। ट्रूडो का यह बयान सामने आते ही यह साफ हो गया था कि वह सिर्फ राजनीतिक फायदे और कनाडा में पल रहे खालिस्तानियों के वोट बैंक के लिए भारत के खिलाफ साजिश रच रहे थे।

चीन के ‘कांड’ से जस्टिन ट्रूडो ने जीता चुनाव

गौरतलब है कि कनाडा की फ़ॉरेन इंटरफेरेंस कमीशन ने एक रिपोर्ट जारी कर साल 2019 और 2021 के चुनावों में विदेशी ताकतों के हाथ होने की बात कही थी। इसमें चीन, रूस, ईरान, भारत और पाकिस्तान का नाम शामिल था। हालांकि इसमें सबसे बड़ा रोल या ‘मुख्य अपराधी’ चीन को बताया गया है। दिलचस्प बात यह है कि साल 2019 और 2021 दोनों ही चुनाव में जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व वाली लिबरल पार्टी ने जीत दर्ज की थी। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि चुनाव को प्रभावित करने के मामले में चीन का सबसे अधिक हाथ होने की बात सामने आई है। साथ ही, ट्रूडो की पार्टी के सांसद हान डोंग जोकि चीनी मूल के कनाडाई नागरिक हैं, उनका भी नाम सामने आया था और उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा था। लेकिन इसके बाद भी जस्टिन ट्रूडो और उनकी पार्टी के नेता चीन के खिलाफ बोलने की जगह भारत को दोषी ठहरा रहे हैं।

अब यहां दो चीजें एकदम स्पष्ट हो जाती हैं। पहली यह कि भारत के खिलाफ सबूत नहीं थे, लेकिन फिर भी जस्टिन ट्रूडो सरेआम भारत पर आरोप लगा रहे थे। दूसरा यह कि चीन के खिलाफ सबूत होने की बात आ चुकी है। ट्रूडो के सांसद को इस्तीफा भी देना पड़ा है, लेकिन फिर भी ट्रूडो और उनकी लिबरल पार्टी के नेता भारत को दोषी ठहरा रहे हैं।

अब इन सब चीजों को जोड़ कर देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जस्टिन ट्रूडो का खालिस्तानियों को समर्थन, भारत विरोधी बयान और चीन के खिलाफ न बोलने के पीछे रणनीतिक नहीं बल्कि राजनीतिक कारण हैं। सीधे शब्दों में कहें तो जस्टिन ट्रूडो पूरी प्लानिंग के साथ अक्टूबर 2025 में होने वाले चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं। दरअसल, जस्टिन ट्रूडो को अपना राजनीतक भविष्य खतरे में नजर आ रहा है। अव्वल तो यह कि ट्रूडो की पार्टी के सांसद ही उनका विरोध करते हुए इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। वहीं, सांसद शॉन केसी (Shawn Casey) ने तो यह तक कह दिया है कि अब वोटर्स भी ट्रूडो का इस्तीफा चाह रहे हैं।

यही नहीं, जून 2024 में सामने आए सर्वे में कंजर्वेटिव पार्टी, ट्रूडो की लिबरल पार्टी से 20 पॉइंट आगे चल रही है। वहीं कनाडा की 59% आबादी यह नहीं चाहती कि ट्रूडो प्रधानमंत्री रहें। यही नहीं, ट्रूडो की पार्टी को हाल ही में फेडरल की उस सीट पर हार का सामना करना पड़ा था, जिस पर उनकी पार्टी का 30 साल से कब्जा था। इसका मतलब यह है कि ट्रूडो की सरकार में वापसी बेहद मुश्किल लग रही है। इसका अंदाज ट्रूडो को भी हो गया है, इसलिए वह साम-दाम-दंड-भेद लगाकर किसी भी तरह से प्रधानमंत्री बने रहना व 2025 के चुनाव में जीत दर्ज करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले खालिस्तानी आतंकियों के वोट बैंक को पोलराइज्ड कराने में जुटे हुए हैं।

आंकड़ों को देखें तो, सिख वोटर कनाडा के टोटल वोट बैंक का 2% के आसपास है। लेकिन कनाडा के कुछ इलाकों मे सिख वोटर ही निर्णायक साबित हो सकते हैं। मसलन, ओंटारियो, टोरंटो और वैंकूवर में सिख वोटर्स की संख्या अन्य वोटर्स की तुलना में अधिक हैं और यह चुनाव को सीधे तौर पर प्रभावित करने में सक्षम हैं। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि 1993 में कनाडा में महज 1 सिख सांसद था। लेकिन अब 18 सिख सांसद हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि सिख वोटर्स का कनाडा की संसद में सीधा हस्तक्षेप है। ऐसे में वह भारत के खिलाफ बयानबाजी कर खालिस्तानियों के वोटबैंक को साधने में जुटे हुए हैं।

वहीं, चाइना के साथ जस्टिन ट्रूडो के संबंधों को देखें तो समझ आता है कि चीन ट्रूडो को सपोर्ट कर रहा है। इसका बड़ा कारण यह है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और कनाडा की कंजर्वेटिव पार्टी के बीच संबंध अच्छे नहीं रहे हैं। इतिहास में नजर दौड़ाएं तो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी कनाडा की कंजर्वेटिव पार्टी को चीन विरोधी होने के साथ ही ‘जहर बताती रही है। इसलिए शी जिनपिंग चाहते हैं कि ट्रूडो वापस सरकार में आएं। वहीं, ट्रूडो को भी चीन से कोई समस्या नहीं है। पहली बात तो यह कि ट्रूडो को लगता है कि चीन कभी भी भारत विरोधी खालिस्तान के खिलाफ बात नहीं करेगा और दूसरा यह कि आने वाले चुनाव में एक बार फिर चीन वोटर्स को इंफ्लुएंस कर चुनाव उनके पक्ष में कर सकता है। जो कि चुनाव हार रहे ट्रूडो के लिए रामबाण साबित हो सकता है।

क्या फिर सुधर सकते हैं भारत-कनाडा संबंध

भारत-कनाडा के संबंध खराब करने में सिर्फ और सिर्फ कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का हाथ है। उन्होंने भारत के साथ भविष्य के रिश्तों या आपसी समझौतों को ताक में रखकर एकतरफा आरोप जड़े थे। अब यदि वह सामने आकर माफी भी मांगते हैं तब भी शायद दोनों देशों के बीच खराब हुए संबंधों में सुधार न हो पाए। हालांकि 2025 के चुनाव के बाद यदि जस्टिन ट्रूडो की सरकार में वापसी नहीं होती या फिर लिबरल पार्टी के चुनाव जीतने के बाद सरकार का चेहरा कोई और होता है तब शायद संबंध सुधर सकते हैं। इसके अलावा यदि कंजर्वेटिव पार्टी सत्ता में आती है तो ऐसा माना जा सकता है कि वह पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर की विरासत को आगे बढ़ाते भारत से संबंध सुधारने की पहल कर सकता है। यहां यह बताना अहम हो जाता है कि 2015 से पहले यानी जस्टिन ट्रूडो के प्रधानमंत्री बनने तक भारत और कनाडा के संबंध बहुत ही अच्छे मोड़ पर थे।

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