हम जानते हैं कि बौद्ध धर्म की शुरुआत भारत से ही हुई और आज इसकी अनेक शाखाएँ विश्व के अलग-अलग देशों में फैल चुकी हैं और अपने-अपने तरीके से बुद्ध की शिक्षाओं को बौद्ध धर्म के अनुयायियों तक पहुँचाती हैं। हालाँकि, बौद्ध धर्म का मूल रूप कालांतर में परिवर्तित होता गया और उसके अनुयायियों ने अपने-अपने तरीके से उसे ग्रहण किया। हीनयान, महायान आदि शाखाएँ बनीं, इसके बाद इन शाखाओं की भी शाखाएँ कालांतर में बनती गईं।
बुद्ध का ज्ञान, जिसे देने के लिए शिष्यों को करना पड़ा तैयार
आज हम बौद्ध धर्म की एक विशेष शाखा के बारे में चर्चा करेंगे, जो जापान में शुरू हुई। किन्तु उससे पहले इतिहास में जो सबसे पहले बुद्ध हुए उनके बारे में चर्चा कर लेना अपेक्षित है। आज से लगभग 3000 वर्ष पूर्व शाक्य कुल में जन्म लेने वाले भारतीय राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने बुद्ध के रूप में पृथ्वी पर अपनी उपस्थिति दर्ज की। इनसे पहले विश्व में बौद्ध धर्म नहीं था। जब ये 19 वर्ष के हुए तो इन्होंने जीवन के उद्देश्य और मूलभूत प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए राजमहल का त्याग कर दिया। इस तरह ध्यान आदि करते हुए लगभग 30 वर्ष की आयु में इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। स्वयं ज्ञान प्राप्त करने के बाद इन्होंने अपने जीवन के शेष 50 वर्षों तक अपने अनुयायियों को यह शिक्षा प्रदान करते रहे। चूँकि बुद्ध ने जो ज्ञान प्राप्त किया था वह आम जन की समझ से परे था, इसीलिए अगले लगभग 42 वर्षों तक बुद्ध ने अपने अनुयायियों की बुद्धिमत्ता और जीवन की स्थिति को विकसित किया जब तक कि वे उनकी शिक्षा को समझने के लिए तैयार नहीं हो गए।
अपने जीवन के शेष 8 वर्षों के दौरान उन्होंने सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र (Scripture of the Lotus Blossom of the Fine Dharma) की शिक्षा देकर धरती पर आगमन का अपना उद्देश्य पूरा किया। यहाँ बता दें कि ‘लोटस सूत्र’ बौद्ध धर्म के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक है। गौतम बुद्ध के ‘लोटस सूत्र’ ने बौद्ध धर्म में एक नई दिशा दी और इसे एक व्यापक दर्शन का रूप दिया। यह सूत्र सिखाता है कि हर व्यक्ति में बुद्धत्व की संभावना होती है और करुणा, समानता, और सत्य के मार्ग पर चलते हुए इसे प्राप्त किया जा सकता है। इस सूत्र का मुख्य सन्देश यही है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है। ‘लोटस सूत्र’ की शिक्षाएँ देकर बुद्ध ने अपने शिष्यों को जीवन की शाश्वत प्रकृति को जानने और समझने में सक्षम बनाया। हालाँकि, उन्होंने यह भी बताया कि उनकी शिक्षाएँ केवल एक सीमित समय तक ही भविष्य की पीढ़ियों को ज्ञान प्रदान कर सकती हैं। 80 वर्ष की आयु में बुद्ध का देहावसान हो गया।
ऐसा कहा जाता है कि शाक्यमुनि बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी कि धीरे-धीरे उनकी प्रभावशीलता कम होती जाएगी। उन्होंने कहा कि निर्वाण के 2000 वर्ष बाद, उनकी शिक्षाएँ एक बीमार मरीज के लिए एक पुरानी दवा की नुस्खे की तरह होंगी, जो अधिक उपयोगी नहीं होगी। शाक्यमुनि ने भविष्यवाणी की कि उस समय एक और महान बुद्ध जन्म लेगा, जो कठिन उत्पीड़न को पार करेगा और मूल ज्ञान का कारण प्रकट करेगा। यह व्यक्ति शाश्वत सच्चे बुद्ध का अवतार होगा और सभी जीवों के जीवन में ज्ञान का बीज बोएगा।
बुद्ध की भविष्यवाणी और निचिरेन शोशु की स्थापना
बुद्ध की यही भविष्यवाणी आगे चलकर निचिरेन शोशु की स्थापना का आधार बनती है। निचिरेन शोशु बौद्ध धर्म की ही एक शाखा है जिसे निचिरेन दाईशोनिन ने जापान में 12 अक्टूबर 1279 को स्थापित किया था। यहाँ निचिरेन दाईशोनिन के जीवन के बारे में कुछ चर्चा करना समीचीन रहेगा। निचिरेन दाइशोनिन का जन्म 16 फरवरी, 1222 में जापान के प्रशांत महासागर के तट पर कोमिनाटो गाँव के एक मछुआरे के घर में हुआ था। इनका जन्म अत्यंत शुभ घड़ी में हुआ था, इसीलिए माता-पिता ने 12 वर्ष की आयु में ही इन्हें बौद्ध मंदिर में प्रवेश करा दिया। 16 वर्ष की आयु में ये बौद्ध साधु हुए और ये क्योटो और कामाकुरा क्षेत्रों में स्थित प्रमुख मंदिरों और बौद्ध अध्ययन केंद्रों का दौरा करने लगे।
इन्होंने अब तक के सभी सम्प्रदायों और उनकी शिक्षाओं का अध्ययन किया, उनकी समीक्षा की और निष्कर्ष निकाला कि ‘लोटस सूत्र’ वास्तव में शाक्यमुनि के सूत्रों में से सबसे उच्च है। इन्होंने कहा कि जितने भी सम्प्रदाय एवं सूत्र आदि हैं अब तक उनका वास्तविक अर्थ लोगों को पता ही नहीं था और जो इनके अर्थ को जानने का दावा करते थे उन्हें इनकी सतही समझ थी। इन सूत्रों की गहराई में छिपी सच्चाई का कोई ज्ञान नहीं था। कहा जाता है कि केवल निचिरेन दाइशोनिन को ‘लोटस सूत्र’ द्वारा वर्णित रहस्यमय नियम की सच्चाई का ज्ञान हुआ था। चूँकि धर्मस्थलों और धर्माधिकारियों की भ्रष्ट स्थिति शाक्यमुनि की भविष्यवाणियों के वर्णन से मेल खाती थी, इसीलिए निचिरेन को यह एहसास हुआ कि ये स्वयं वो सच्चे बुद्ध का अवतार हैं जिसकी भविष्यवाणी बुद्ध ने लगभग 2000 वर्ष पूर्व की थी।
और, इस तरह इन्होंने उस समय स्थापित सम्प्रदायों और धर्म के ठेकेदारों का चुनौतीपूर्वक सामना किया। निचिरेन ने 28 अप्रैल, 1253 को ‘निरिचेन शोशु’ (सच्चे बौद्ध धर्म) की स्थापना की घोषणा की। इन्होंने लोगों को लोटस सूत्र के अद्भुत रहस्यमय नियमों में विश्वास करने के लिए आह्वाहन किया। इसके बाद, उन्होंने लोटस सूत्र को प्रसारित करने के लिए अथक संघर्ष किया, जिसमें उन्हें बौद्ध धर्म के इतिहास में अभूतपूर्व उत्पीड़नों का सामना भी करना पड़ा। 12 अक्टूबर, 1279 को निचिरेन शोशु की स्थापना के साथ अपने जीवन के मिशन को पूरा किया। आगे चलकर 13 अक्टूबर 1282 को इनका निधन हो गया।
‘नम-म्योहो-रेन्जे-क्यो’ का करते हैं जाप
निचिरेन शोशु को यदि हम समझना चाहें तो मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में यदि संकल्पित हो जाता है तो बुद्धत्व अर्थात सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। बौद्ध धर्म की इस शाखा में गोहोंज़ोन (Gohonzan) की संकल्पना की गई है। हिंदी में इसको समझें तो पूजनीय या उपासना का एक आधार कहा जा सकता है। इस शाखा के अनुयायी गोहोंज़ोन के समक्ष ‘नम-म्योहो-रेन्जे-क्यो'(Nam-Myoho-Renge-Kyo) का जाप करते हैं। साधारण शब्दों में यदि इस मंत्र के उद्देश्य को समझें तो इसके अनुयायियों के अनुसार यह जाप इनके जीवन को बुद्ध के जीवन से जोड़ सकता है।
यहाँ नम का अर्थ है समर्पण/श्रद्धा, वहीं म्योहो का अर्थ हुआ सत्य या सत्य के नियम। इसी तरह, रेन्जे कमल के फूल को कहा जाता है, ये आध्यात्मिकता का प्रतीक है। वहीं क्यो का अर्थ हुआ शास्त्र या ध्वनि, जो बौद्ध शिक्षाओं की बात करता हो। शाक्यमुनि बुद्ध और निचिरेन के जन्म के बीच का अंतर 1785 वर्ष था।
जापान के माउंट फूजी में इसी शाखा का एक मुख्य मंदिर तैसेकी जी स्थित है। जहाँ विश्व भर से इस शाखा के अनुयायी आते हैं। तैसेकी-जी का 700 से अधिक वर्षों का इतिहास दुनिया भर में फैले 700 से अधिक शाखा मंदिरों का स्रोत है। स्थानीय अनुयायी मंदिर की गतिविधियों में भाग लेते हैं और अपने स्थानीय चीफ प्रीस्ट से गोहोंजोन और विश्वास की शिक्षा प्राप्त करते हैं।