रानी झांसीबाई रेजिमेंट: आज़ाद हिंद फ़ौज की महिला जासूसों को कितना जानते हैं आप?

कहानी 16 वर्ष की स्वतंत्रता सेनानी सरस्वती राजमणि की, जिन्होंने अंग्रेजों के कैंप में घुसकर छुड़वाए थे अपने साथी

सरस्वती राजमणि, नेताजी सुभाष चंद्र बोस

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की INA में शामिल सरस्वती राजमणि - भारत की पहली महिला जासूस

बात 1943 की है, नेताजी बोस आजाद हिंद फौज का गठन कर चुके थे, और पूरे हिंदुस्तान भर से लोग उनके साथ जुड़ रहे थे।एक दिन जब वो रंगून पहुँचे तो उनका भाषण सुनने के लिए 16 साल की एक युवा लड़की सरस्वती भी वहाँ मौजूद थी, भाषण सुनकर वो घर लौटी, अपने सारे गहने, ज़ेवरात, जमापूंजी उठाया और लेकर नेताजी के ख़ज़ाने में जमा कराने पहुँच गई। नेताजी को पता चला कि ये गहने 16 वर्ष की किसी लड़की के हैं, तो उन्होंने उसे बुला कर गहने लौटा दिए। लेकिन, वो बालिका अत्यंत ज़िद्दी स्वभाव की थीं, उसने प्रतिउत्तर दिया कि अगर नेताजी वाक़ई उसे कुछ देना चाहते हैं, तो उसे INA की वर्दी दे दें।

आज़ादी के लिए उस लड़की के जुनून को देखकर नेताजी ने उसे और उसकी चार सहेलियों को INA की खुफिया विंग में बतौर युवा जासूस भर्ती कर लिया।

अंग्रेज अफ़सरों की घरेलू सहायक बनकर की जासूसी

सरस्वती अपनी सहेली दुर्गा के साथ मिलकर अंग्रेजों के कैंप की जासूसी करती, और उनकी कई ख़ुफ़िया जानकारियां आजाद हिंद फौज तक पहुँचाती रहीं। सूचनाओं तक पहुँच बनाने के लिए उन्होंने लड़कों का भेष बनाकर अंग्रेज अफ़सरों के यहाँ उनके नौकर और घरेलू परिचायक बनकर भी काम किया और ख़ुफ़िया जानकारियों को नेताजी तक पहुँचाया।

ये काम आसान नहीं था, क्योंकि नेताजी अंग्रेजों के दुश्मन नंबर एक थे और सरस्वती जैसी ये महिला जासूस भी अंग्रेजों के लिए ‘मोस्ट वॉन्टेड’ थीं, लेकिन वो अपने काम में इतनी माहिर थीं, कि वो कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आईं।

नर्तकी बनकर ब्रिटिश कैंप में घुसीं, साथियों को आज़ाद कराया

बाद में अंग्रेजों को उनके नेटवर्क का पता चल गया और उनकी चार साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। हर कोई जानता था कि अंग्रेज जल्दी ही उन्हें फाँसी दे देंगे, लेकिन सरस्वती अपनी साथियों को अकेले छोड़ने को तैयार नहीं थीं, लिहाज़ा उन्होंने एक योजना बनाई और वो नर्तिका बनकर अंग्रेजों के कैंप में पहुँच गईं, शराब और जश्न के खुमार में जब वो मदहोश हो गए, तो सरस्वती ने अवसर देखकर अपने साथियों को आज़ाद करा लिया।

लेकिन, जैसे ही उन्होंने भागना शुरू किया, वहाँ तैनात संतरियों की नज़र उनपर पड़ी और उन्होंने उन लड़कियों पर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। कहते हैं कि सरस्वती राजमणि के पैर में भी गोली लगी, लेकिन अंग्रेजों को चकमा देते हुए वो एक पेड़ पर चढ़ गईं और जब तक अंग्रेज वहाँ से चले नहीं गए, क़रीब तीन दिनों तक वो दर्द सहते हुए भी पेड़ पर छिपी रहीं और बाद में सभी को लेकर अपने कैंप वापस पहुँची। सरस्वती राजमणि की सूझबूझ और समझदारी से नेताजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें आईएनए की झांसी रानी ब्रिगेड में लेफ्टिनेंट बनाया था।

सपनों के ‘स्वतंत्र’ भारत में भुला दी गईं ‘स्वतंत्रता सेनानी’ सरस्वती

INA के भंग होने के बाद वर्ष 1957 में सरस्वती भी अपने परिवार के साथ अपने सपनों के स्वतंत्र भारत में वापस लौट आईं। लेकिन विडंबना ये है कि जिस देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व झोंक दिया, वहाँ उन्हें याद तक नहीं रखा गया। अपना पूरा जीवन इसी गुमनामी में काटने के बाद वो वर्ष 2018 में गुमनामी में ही इस दुनिया को अलविदा कह गईं।

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