‘सनातन धर्म ही राष्ट्रवाद है’: आधुनिक नैमिषारण्य बना ‘द जयपुर डायलॉग्स’, विचारों के मंथन से निकला ‘अमृत’

जब तक दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग साथ बैठेंगे नहीं, चर्चा नहीं करेंगे और कुछ लक्ष्य व उस लक्ष्य तक का रास्ता तय करने की प्रक्रिया निर्धारित नहीं करेंगे - तब तक हमारी विचारधारा का विकास संभव नहीं है।

द जयपुर डायलॉग्स, 2024 समिट

मंच पर आसीन भाऊ तोरसेकर, संजय दीक्षित और पंडित सतीश शर्मा (बाएँ से दाएँ)

अपने नैमिषारण्य के बारे में सुना होगा। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में स्थित ये स्थल कभी ऋषि-मुनियों के समागम का साक्षी बना करता था। पौराणिक शास्त्रों में इसका वर्णन है कि कैसे हर साल ऋषि-मुनि वहाँ जुटते थे, यज्ञ करते थे और भगवान की कथाएँ सुनते-सुनाते थे। लेकिन, वहाँ इनके जुटने का असली उद्देश्य कुछ और होता था। असली उद्देश्य होता था – तर्क-वितर्क, चर्चा और विचारों का मंथन। अमृत भरा कलश भी तभी निकला था जब हजारों देवताओं और असुरों ने साथ मिल कर समुद्र का मंथन किया था। ठीक इसी तरह, जब विचारों का मंथन होता है तो अमृत निकलता है।

क्यों ज़रूरी है राष्ट्रवादियों का एक जगह जुटना

वो अमृत कैसा होता है? असल में विचारों के मंथन से अगले कुछ समय के लिए सिद्धि प्राप्ति हेतु संकल्प मिलते हैं, हमें ये पता चलता है कि किस दिशा में आगे बढ़ना है, समसामयिक मुद्दों पर हमारे रुख में स्पष्टता आती है, हमारे विनाश को तत्पर शत्रुओं से निपटने की रणनीति मिलती है और एकता का सन्देश जाता है। एकता, जिससे सम्बल मिलता है। संभल ये कि कभी हम मुसीबत में होंगे तो वो कौन लोग हैं जो हमारा साथ दे सकते हैं। और, अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ साथ बैठते हैं, मंथन करते हैं, तो वो एक-दूसरे को पूर्ण करते हैं।

हम ये बात इसीलिए कर रहे हैं, क्योंकि हाल ही में जयपुर में एक ऐसा ही आयोजन हुआ। संजय दीक्षित के नेतृत्व में ‘द जयपुर डायलॉग्स’ के 2024 समिट का आयोजन हुआ। इस वार्षिक उत्सव में राष्ट्रवादी समूह के एक से बढ़ कर एक धुरंधरों ने न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, बल्कि विचारों के आदान-प्रदान भी प्रवाहवान रहा। ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका तक से लोग विचारों के समुद्र में गोते लगाने के लिए पहुँचे। राष्ट्रवादी कंटेंट पर आधारित पुस्तकें बड़ी संख्या में बिकीं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ टीशर्ट स्लोगन के रूप में काफ़ी लोकप्रिय रहा।

इस सम्मेलन की ज़रूरत इसीलिए पड़ी क्योंकि कभी जयपुर लिटफेस्ट के नाम पर वामपंथी हर साल इकट्ठे होते थे और कहा जाता था कि ये देश के सबसे सभ्य व जानकारी लोगों का आयोजन है। जबकि ये असल में ‘ब्रेकिंग इंडिया’ की सोच रखने वाली ताक़तों का जमावड़ा हुआ करता था। ये लिटफेस्ट कितना भारतीय था, ये इसी से समझ लीजिए कि इसके द्वारा जारी किए गए नक़्शे में केवल अंग्रेजी में लिखने वालों के नाम होते थे – महर्षि वाल्मीकि से लेकर नरेंद्र कोहली तक जैसे महान लेखक इनकी नज़र में कुछ नहीं थे। इसके एक पैनल में 2 RSS नेताओं को देख कर इतना हंगामा मचाया गया था जैसे संघ कोई आतंकी संगठन हो। इसीलिए, ‘जयपुर डायलॉग्स’ की महत्ता बढ़ जाती है, खासकर इस सेशन की।

महाराष्ट्र के वयोवृद्ध राजनीतिक विशेषज्ञ गणेश ‘भाऊ’ तोरसेकर, भाजपा नेता कपिल मिश्रा और प्रवक्ता तुहिन सिन्हा व प्रदीप भंडारी, TV डिबेट्स में अपने तर्कों से वामपंथियों के छक्के छुड़ाने वाले आनंद रंगनाथन, वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी व ओंकार चौधरी, योगी आदित्यनाथ की बायोग्राफी लिखने वाले शांतनु गुप्ता, NCERT के हिन्दू विरोधी कंटेंट्स का खुलासा करने वाले नीरज अत्री, इतिहास पर पुस्तकें लिखने वाले संदीप बालाकृष्णा, सिख एक्टिविस्ट रमणीक सिंह मान, बिहार के युवा यूट्यूबर अभिषेक तिवारी, ‘गरुड़ प्रकाशन’ के संस्थापक संक्रांत सानू, BBC की करतूतों का खुलासा करते हुए डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले पंडित सतीश शर्मा, ‘String’ नाम से यूट्यूब चैनल चलाने वाले दक्षिण भारत के विनोद और जियोपॉलिटिक्स के विशेषज्ञ विभूति नारायण झा समेत कई विद्वानों की इसमें उपस्थिति रही।

महर्षि अरविंद का विचार बना उद्घोषणा का आधार

साथ ही हिन्दू धर्म और अध्यात्म का ज्ञान रखने वाले कई विद्वान भी इसमें जुटे। इस हिसाब से अलग देखें तो जयपुर डायलॉग्स के इस वार्षिक आयोजन को ‘दक्षिणपंथी विचारकों का आधुनिक नैमिषारण्य समागम’ कहें तो ये गलत नहीं होगा। जब तक दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग साथ बैठेंगे नहीं, चर्चा नहीं करेंगे और कुछ लक्ष्य व उस लक्ष्य तक का रास्ता तय करने की प्रक्रिया निर्धारित नहीं करेंगे – तब तक हमारी विचारधारा का विकास संभव नहीं है। कई मुद्दों पर आपस में सहमति होना या न होना अलग बात है, साथ बैठ कर चर्चा से ज़रूरी मुद्दों पर तो पूर्ण या आंशिक सहमति बन ही जाती है। इससे काम आसान हो जाता है।

इस बार के ‘द जयपुर डायलॉग्स’ के समिट में जो उद्घोषणा की है, वो है – “सनातन धर्म ही राष्ट्रवाद है।” ये उद्घोषणा महर्षि अरविन्द घोष के विचारों से प्रेरित है, जिसकी उद्घोषणा ‘द जयपुर डायलॉग्स’ के संस्थापक संजय दीक्षित ने की। पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी और आध्यात्मिक गुरु रहे श्री ऑरोबिन्दो को ‘इंटीग्रल योग’ सूत्र के लिए जाना जाता है। कई क्रांतिकारियों ने उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने कहा था कि हिन्दू राष्ट्र सनातन धर्म की मार्ग पर अग्रसर होकर ही चरम उत्कर्ष प्राप्त करेगा, अगर अगर सनातन धर्म की अवनति होगी तो हिन्दू राष्ट्र की अवनति भी अटल होगी। उन्होंने सनातन धर्म को ही राष्ट्रवाद माना। उनका स्पष्ट मानना है कि इस देश का जन्म सनातन धर्म के साथ हुआ है और दोनों साथ चलते हैं। यानी, भारत का उदय मतलब सनातन धर्म का उदय। सनातन धर्म का उदय मतलब भारत का उदय। आज के इस उथल-पुथल वाले वैश्विक दौर में महर्षि अरविंद के इस विचार से बेहतर उद्घोषणा हमारे लिए क्या हो सकती है?

कभी कुछ इसी तरह नैमिषारण्य की धर्मसभा में उद्घोषणाएँ होती रही होंगी। आज जिस जीवित राष्ट्रीय चेतना को हम देख रहे हैं, कभी उसका ह्रास हो रहा था तो नैमिषारण्य की धर्मसभा ने ही इसकी रक्षा की थी। इस धर्मसभा ने बिखर चुकी श्रमण संस्कृति का समन्वय किया, जो अंततः आज तक जीवित है। कई परस्पर विरोधी विचारधाराओं को जोड़ कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जन्म दिया गया। कहते हैं, वहाँ 88,000 ऋषि-मुनि जुटे थे और ग्रंथों का वाचन व श्रवण से जो सांस्कृतिक ज्योति फूटी उसका प्रकाश आज तक हमें दिशानिर्देशित कर रहा है।

विभिन्न हिन्दू संगठनों और लोगों का एक होना समय की माँग

ऐसा नहीं है कि विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों के बीच ईगो वाली सामस्य सिर्फ आज ही है, लेकिन समान विचारधारा के लोगों का साथ बैठना समय की आवश्यकता है। भारत के वामपंथी चीन का पक्ष लेते हैं, इस्लामी खलीफा को पुनः स्थापित करना चाहते हैं और यहाँ के चर्च वेटिकन से निर्देशित होते हैं। ऐसी ताक़तों के बीच हिन्दुओं का क्या? उनकी रणनीति क्या हो, विरोधी ताक़तों से लंबे समय से चल रहे इस संघर्ष में वो स्वयं का संरक्षण कैसे करें? आने वाला समय और भी विकट है – जो एक नहीं रहेंगे, वो कट जाएँगे। संगठन में ही शक्ति है, अब संगठनों के संगठित होने का समय आ गया है।

सांस्कृतिक चेतना के विकास के बिना हम न तो पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते प्रभाव को रोक सकते हैं और न ही इस्लामी कट्टरपंथ व ईसाई मिशनरियों से लड़ाई जीत सकते हैं। सांस्कृतिक चेतना के विकास के लिए हमें युवाओं को बताना होगा हमारा इतिहास, हमारी संस्कृति और हमारी विरासत के बारे में, इनकी महत्ता के बारे में। समय की ज़रूरत है कि आने वाले समय में ‘द जयपुर डायलॉग्स’ समिट जैसे और भी कार्यक्रम हों, संजय दीक्षित जैसे और भी लोग सामने आएँ। जयपुर ही नहीं, देश के कोने-कोने में विचारों का ये मंथन चलते रहना चाहिए।

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