1739 ई. में जब दिल्ली पर नादिरशाह का हमला हुआ, उसी के आस-पास दिल्ली में एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ, जो आगे चलकर एक बेहद शानदार शायर के रूप में उभरा। आज भी तीज-त्योहारों पर उस शायर की नज्में पूरे भारत के दिल पर राज करती हैं। ये कोई और नहीं बल्कि प्रसिद्ध शायर नजीर ‘अकबराबादी’ थे।
दिल्ली में रहने वाले मुहम्मद फारूक के घर एक-एक करके बारह बच्चों ने जन्म लिया, किन्तु कोई भी बालक जीवित न रह सका। फिर सन् 1735 ई. में उनके घर में 13वें बालक ने जन्म लिया। अपने बारह बच्चों की मौत के बाद पिता अपनी इस औलाद को नहीं खोना चाहते थे, इसलिए जन्म के समय ही अनेक पीर बाबाओं और फकीरों से इसकी हिफाजत के लिए दुआ पढ़वाई। किसी भी खतरे से इसको बचाने के लिए नाक व कान छिदवाए। पिता ने इसको वली मुहम्मद नाम दिया। आगे चलकर यही वली मुहम्मद नजीर अकबराबादी बना।
वली मुहम्मद कैसे बने नजीर अकबराबादी
वली मुहम्मद के नजीर अकबराबादी बनने के पीछे की कहानी है इनका अकबराबाद (आगरा) में रहना और नजीर तखल्लुस के साथ शायरी लिखना। हालाँकि इनका जन्म दिल्ली में ही हुआ था किंतु इनके जन्म के समय दिल्ली पर एक के बाद एक मुसीबतों के पहाड़ टूट रहे थे। 1739 ई. में नादिरशाह का आक्रमण फिर 1748, 1751 और 1756 में अहमद शाह अब्दाली द्वारा लगातार किए जा रहे आक्रमणों के कारण दिल्ली पर संकट के बादल घिरे हुए थे। हर तरफ भय का माहौल था। यह सब देखकर अपने ननिहाल आ गए। नजीर का ननिहाल अकबराबाद (आगरा) में था और उनके नाना नवाब सुल्तान ख़ाँ आगरा के किलेदार थे। इस समय इनकी आयु करीब 22 से 23 वर्ष की रही होगी। वहाँ जाकर नजीर को आगरा से इस तरह प्रेम हुआ कि वहीं के होकर रह गए।
आगरा से नजीर को इस हद तक लगाव हो गया था कि वे आगरा से दूर जाने की बात सोचने भर से विचलित हो जाते थे। कहा जाता है कि एक बार वाजिद अली शाह ने नजीर को लखनऊ आने का निमंत्रण दिया। नजीर ने निमंत्रण स्वीकार करके लखनऊ की यात्रा प्रारम्भ तो की, किन्तु जैसे-जैसे आगरा की सीमा समाप्त होने लगी और ताजमहल आँखों से ओझल होना शुरू हुआ, उनका दिल घबराने लगा। अंततः उन्होंने अपने घोड़े को वापस लौटाया और आगरा छोड़कर कहीं भी न जाने का निश्चय किया। आगरा से इस तरह की आसक्ति थी कि वहीं आगरा में ही तहवरुन्निसा बेगम से निकाह कर लिया।
हालाँकि पूरा मध्यकाल ही मुगल आक्रमणों, धार्मिक उन्माद, हिंसा आदि के बीच ही गुजरा। ऐसी भयावह परिस्थितियों के बीच रहकर नजीर ने जो काव्य रचना की, वह बेहद अद्भुत है। इनकी कविताओं को पढ़कर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि ये कविताएँ किसी कठिनतम दौर में लिखी गई होंगी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात इनकी रचनाओं के बारे में यह है कि इनमें धार्मिक कट्टरता का कोई तत्व दिखाई नहीं देता। जहाँ एक ओर मुस्लिम समुदाय के लोग हिंदुओं, उनके पर्वों और उनकी मान्यताओं आदि को हीनता के भाव से देखते थे, तो वहीं नजीर की कलम हिन्दू तीज-त्योहारों, परंपराओं आदि की खूबसूरती को दिखाने के लिए चलती थी।
जिस समय नजीर लिख रहे थे उस समय उर्दू साहित्य भी अच्छा-खासा लिखा जा रहा था, चूँकि नजीर स्वयं मुख्य रूप से एक उर्दू शायर थे, अतः स्वाभाविक है कि उन्होंने उर्दू में भी रचनाएँ कीं और उर्दू में नज़्म लिखने वाले तो ये पहले कवि माने जाते हैं। हालाँकि भाषा के क्षेत्र में वे उदारमना थे, इसीलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में जन संस्कृति तथा विशेषकर हिन्दू संस्कृति के शब्दों का खूब प्रयोग किया। उस समय के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नजीर को उपेक्षित भी किया, किन्तु आज नजीर का नाम बड़े शायरों में लिया जाता है।
हिन्दू तीज-त्योहारों पर नजीर की लेखनी
हिंदुओं के प्रमुख त्योहार दीपावली आने पर जिस तरह आज कुछ विशेष वर्ग के लोगों को वायु प्रदूषण की याद आती है, उस समय भी कट्टरता के चलते प्रकाश के इस पर्व को एक खास समुदाय हीनता की दृष्टि से देखता था। किंतु नजीर जन-सामान्य के कवि थे, तीज-त्योहारों की खूबसूरती को नकारना उन्हें नहीं आता था, अपितु वे तो स्वयं इन पर्वों में शामिल हो जाते थे और जिस तरह दीपावली पर लगने वाले बाजार का वर्णन वे करते हैं, उससे उनके उत्साह का अंदाजा लगाना कदापि मुश्किल नहीं है-
“मिठाईयों की दुकानें लगा के हलवाई।
पुकारते हैं कह–लाला दीवाली है आई।।
बतासे ले कोई, बरफी किसी ने तुलवाई।
खिलौने वालों की उन से ज्यादा है बन आई।।”
दीवाली ही नहीं, रंगों के पर्व होली पर भी उनका उत्साह ‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की’ जैसी पंक्तियों में देखा जा सकता है। जिस तरह होली के पर्व पर लोग ठंडाई और भांग पीकर प्रेम के नशे में डूबते हैं, उसका कितना सुंदर वर्णन नजीर की इस एक ही पंक्ति में मिलता है-
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
“महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।”
वास्तव में होली, दीपावली या अन्य किसी भी पर्व पर नजीर के गीत आज भी बजते हुए सुनाई देते हैं। नजीर भले ही मुस्लिम थे, किंतु उनमें यह कट्टरता बिल्कुल नहीं थी कि वे किसी और धर्म के देवी-देवताओं के सामने सर झुकाने वाले को काफ़िर समझें। वे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की जय करते हैं और उनको प्रणाम करते हैं-
“यह लीला है उस नंद-ललन, मनमोहन, जसुमति-छैया की
रख ध्यान सुनो दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥”
नजीर ने सिख धर्म के प्रति भी अपनी आस्था प्रकट की है। उनकी पंक्तियाँ “इस बख्शिस के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरु, सब सीस झुका अरदास करो और हरदम बोलो वाह गुरु।” यह बात प्रमाणित करती हैं कि कट्टरता उनके भीतर लेश मात्र भी नहीं थी। यही कारण है कि वे अन्य धर्मों के प्रति भी सम्मान का वही भाव रखते थे, जो सम्भवतः कोई अपने धर्म के प्रति रखता है।
इस तरह भक्ति, प्रेम, लोकसंस्कृति की छटा अपनी रचनाओं में बिखेरते हुए नजीर लगभग सौ वर्ष की आयु में परलोक सिधार गए। उनकी मृत्यु की तिथि क्या है, यह तो निश्चित नहीं है, किन्तु उनकी इन पंक्तियों को पढ़कर यह अनुमान लग जाता है कि वे सम्भवतः सौ वर्ष की आयु पार कर चुके थे-
“ऐ यार सौ बरस की हुई अपनी उम्र आकर।
और झुर्रियां पड़ीं हैं सारे बदन के ऊपर।”