सिर्फ मोदी और ट्रम्प के संबंधों की बात करें तो हमने देखा है कि इनके व्यक्तिगत सम्बन्ध बड़े मधुर रहते हैं। चुनावों में मोदी का नाम अपने लिए प्रयोग करने से लेकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मोदी का नाम लेने से न तो ट्रम्प परहेज करते हैं, न ट्रम्प को समर्थन देने से मोदी हिचकते दिखते हैं। पिछली बारी में अगर ध्यान जाता है तो सबसे पहले ध्यान जाता है सामरिक संबंधों पर।
भारत और अमेरिका के संबंधों के बीच में ही पहले पाकिस्तान हुआ करता था। हथियार हो या लड़ाकू जहाज, पाकिस्तान का अमेरिकी हथियारों के बलबूते फुदकना पिछले कई दशकों से जारी था। इसकी तुलना में भारत पर किस्म-किस्म के प्रतिबन्ध होते थे।
क्या चीन बीच में आया?
डोनाल्ड ट्रम्प का दौर आते-आते चीन एशिया-पैसिफिक कहलाने वाले क्षेत्र में एक महाशक्ति बनकर उभर चुका था। दूसरी तरफ अफगानिस्तान जैसे इलाकों में बड़े खर्चे के बाद भी अमेरिका को कोई बड़ी सामरिक सफलता नहीं मिली थी। एक और बात ये भी थी कि इस दौर तक इस्लामी आतंकवाद का स्वाद अमेरिका ने चख लिया था। ट्विन टावर के बाद के दौर में जब ओसामा भी पाकिस्तान में ही छुपा पाया गया तो अमेरिका को दूसरे देशों से नजदीकी बढ़ाने की जरूरत महसूस होने लगी। चीन से उसकी प्रतिद्वेंद्विता भी एक कारण रही।
नतीजा ये हुआ कि हथियारों की खरीद-बिक्री में भारत के साथ कई नए समझौते हुए। सेना के जॉइंट एक्सरसाइज और तकनीकी मामलों से लेकर सूचनाओं के आदान-प्रदान तक सहयोग बढ़ने लगा। करीब-करीब इसी समय “क्वाड” देशों, यानी यूएस, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच भी सामरिक सहयोग बढ़ा जो कि चीन का सामना करने के लिए आवश्यक था।
सैन्य समझौते
इस दौर में COMCASA (कम्युनिकेशन कम्पेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी अग्रीमेंट) 2018 जैसे सैन्य महत्व के समझौते हुए जो आतंकवाद से लड़ने के लिए महत्वपूर्ण थे। अक्टूबर 2020 में भारत और यूएस में BECA (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन अग्रीमेंट फॉर जिओस्पेसियल कोऑपरेशन) हुआ जो कि गुप्तचर तंत्रों और जानकारी के आदान-प्रदान क लिए महत्वपूर्ण था।
नागरिक उड्डयन और रक्षा क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण STA लाइसेंस में भी भारत को अगस्त 2018 में विशेष छूट मिली। वो टियर वन में पहुँच गया जिससे कई तकनिकी रूप से नए औजारों और यंत्रों की खरीद का रास्ता खुल गया। इन सबका परिणाम ये हुआ कि अमेरिका से रक्षा सम्बन्धी भारत की खरीद 2019 में 800 करोड़ रुपये सालाना तक पहुँचने लगी।
व्यापारिक हित
जहाँ तक डोनाल्ड ट्रम्प के दौर में व्यापारिक हितों का मामला है, इसमें भारत को कोई विशेष छूट नहीं मिली। ट्रम्प भारत की नीतियों के समर्थन में नहीं रहे क्योंकि भारत उस दौर में स्टील और एल्युमीनियम पर कर बढ़ा रहा था। जो विशेष दर्जा किसी देश को व्यापारिक मामलों में मिला होता है, भारत के लिए उसे भी अमेरिका ने मई 2019 में समाप्त कर दिया था। प्रवासियों के लिए अपनी सख्त नीतियों के साथ सत्ता में आने वाली पार्टी होने के कारण जो H1B वीजा होता है, उसके मामले में भी इस दौर में खींचतान रही।
यद्यपि भारतीय तकनीकी कामगारों के लिए बढ़े हुए वेतन पर ही H1B वीजा मिलना फायदे का सौदा कहा जा सकता है, लेकिन बढ़े हुए न्यूनतम वेतन का मतलब ये भी था कि अब भारत सस्ते कामगार उपलब्ध नहीं करवा रहा था जो इसी क्षेत्र के कुछ दूसरे देश करवा सकते थे।
क्या और भी लाभ हुए?
इसी दौर में भारत को पाकिस्तान के सम्बन्ध में अमेरिका से सहयोग मिलने लगा। आमतौर पर अमेरिका पाकिस्तान का पक्ष लेता दिखता था लेकिन जब जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को पुलवामा में 2019 के हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की मांग भारत ने UNSC में रखी तो अमेरिका भारत के समर्थन में था। एफएटीएफ (फाइनेंसियल एक्शन टास्क फ़ोर्स) में पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट करने की मांग का अमेरिका ने 2018 में ही समर्थन कर दिया था।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कहाँ कौन सत्ता में है, इससे भारत को अंतर नहीं पड़ता वाली जो नेहरु कालीन पंथनिरपेक्षता की नीति थी, उससे लम्बे समय में देखें तो भारत को नुकसान ही हुआ है। एक तरफ जहाँ इसके कारण बहुत से देशों से हमारे सम्बन्ध अच्छे नहीं बने, वहीँ दूसरी तरफ ऐसी नीतियों के कारण बांग्लादेश और श्रीलंका तक में जगह बना लेने का मौका चीन को मिलता गया। चीन की विस्तारवादी नीतियां शुरू से ही स्पष्ट थीं और नेहरुकालीन जानकारों ने भी इस विषय में पर्याप्त चेतावनियाँ दी थीं। इसके बाद भी जब चीन अपने आस पास तिब्बत आदि इलाके हथियाता रहा, उस दौर में भारत हाथ पर हाथ धरे लगभग बैठा ही रहा।
ऐसा नहीं है कि एक साम्राज्यवादी शक्ति दूसरी से अच्छी होती है, या कोई एक साम्राज्यवादी अच्छा और दूसरा कोई साम्राज्यवादी बुरा है, लेकिन शक्ति और सत्ता का संतुलन बनाकर अपने पक्ष में सोचना भारत को भी बहुत पहले ही शुरू कर देना चाहिए था।
लंबे समय में भारत को लाभ ही होगा
फ़िलहाल जो स्थितियां हैं, उसमें विदेश नीतियों में भी भारत खुलकर अपना पक्ष रख रहा है। सुषमा स्वराज के “सर्वे भवन्तु सुखिना” की जो नीतियां हमने शुरू में इस सरकार की देखी थीं, उसके बाद अब जयशंकर के दौर में हम भारतीय हितों को पहले रखने की ओर बढ़ते राष्ट्र को देख रहे हैं। ऐसे दौर में जब ट्रम्प जैसा कोई व्यक्ति सत्ता में आता है, जो कि खुलकर साम्यवादी आर्थिक नीतियों का विरोध करता हो, तो लम्बे समय में भारत के लिए इसके लाभ ही होंगे। छोटे स्तर पर देखें तो बांग्लादेश में जारी हिन्दुओं के दमन और नरसंहार के विरुद्ध खुलकर अपना पक्ष वो चुनावी दौर में ही रख चुके हैं।
भारत में लम्बे समय से बौद्धिक और लेखन आदि क्षेत्रों पर कब्ज़ा किए बैठे, खाए-पिए, अघाए वर्ग को जैसी दिक्कत ट्रम्प के जीतने से हुई है, कुछ लोग उसमें भी रस ले रहे हैं। बाकी सामरिक और व्यापारिक से लेकर लोगों के आवागमन तक में भारत के हिस्से क्या आता है, ये समय के साथ दिखने ही लगेगा!