मशहूर फ्रेंच थिंकर विक्टर ह्यूगो ने आज से करीब 200 साल पहले कहा था कि पृथ्वी पर कोई शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका वक्त आ गया हो। इस कथन को अगर सियासी इबारत के तौर पर पढ़ने का प्रयास करें, तो कम से कम भारत के संदर्भ में ये कहा जा सकता है कि फिलहाल समय महिलाओं का है और महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों ने एक बार फिर इस पर मुहर भी लगा दी है। महाराष्ट्र में महायुति को महिलाओं का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, तो वहीं झारखंड में उन्होंने हेमंत सोरेन नैया पार लगा दी। अब नतीजों के बाद जाहिर तौर पर अलग अलग पक्ष इनकी मीमांसा और समीक्षा कर रहे हैं।
हार और जीत के कारणों पर मंथन हो रहा है, लेकिन इन चुनावों में महिलाओं की भूमिका को लेकर हर विश्लेषक, हर राजनीतिक दल एकमत है। शुरुआत करते हैं महाराष्ट्र से- 288 सीटों वाले महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली महायुति को 230 सीटें प्राप्त हुईं और 132 सीटें जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। बीजेपी के जन्म के बाद से ये महाराष्ट्र में उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है, जहां वो विभिन्न वर्गों के वोट प्राप्त करने के साथ साथ आधी आबादी का भरोसा जीतने में भी कामयाब रही।
इसका प्रयास शिंदे सरकार ने लोकसभा चुनावों के ठीक बाद ही शुरू कर दिया था। लोकसभा चुनाव में तगड़ा नुकसान झेलने के बाद शिंदे सरकार ने महिलाओं के लिए ‘लाडकी बहिण योजना’ लॉन्च की थी। इस योजना के तहत प्रदेश के हर परिवार की महिला मुखिया को 1500 रुपये मासिक दिए जा रहे हैं। ये योजना महायुति के लिए मास्टरस्ट्रोक साबित हुई, खासकर तब जबकि योजना की पिछली किस्त मतदान के ठीक पहले ही महिलाओं के खातों में पहुंची थी और सरकार ने इसे बढ़ाकर 2500 रुपये तक करने का ऐलान किया था। जो काम महाराष्ट्र में महायुति के लिए लाडकी बहिण योजना ने किया, वही काम झारखंड में हेमंत सोरेन और इंडी गठबंधन के लिए मंइयां सम्मान योजना ने किया। इस योजना के तहत प्रदेश की सभी महिलाओं को एक हजार रुपये प्रतिमाह की आर्थिक मदद दी जा रही है। हालांकि बीजेपी ने भी यहां महिलाओं को 2100 रुपये प्रतिमाह देने का ऐलान किया था, लेकिन इस मामले में महिलाएं अधिक वफादार साबित हुईं, और उन्होंने ज्यादा के वादों पर ऐतबार करने की जगह, जो मिल रहा है, उस पर भी भरोसा जाहिर किया, फिर चाहे वो महाराष्ट्र हो या झारखंड।
यही नहीं, इन दोनों ही राज्यों में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर वोटिंग भी की है। महाराष्ट्र में महिलाओं का वोटर टर्नआउट 65.22 प्रतिशत रहा, जबकि वर्ष 2019 में ये 59.62 प्रतिशत ही था। इसी तरह झारखंड में इस बार रिकॉर्ड 70.46 प्रतिशत महिलाओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया, जबकि वर्ष 2019 में ये आंकड़ा 66.92 प्रतिशत था। सियासी दल जानते हैं कि आंकड़ों में आने वाला ये अंतर चुनावी नतीजों में भी बड़ा अंतर पैदा कर सकता है। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या सरकारों और सियासतदानों का मकसद सिर्फ़ महिलाओं का फायदा है या सियासत इसमें अपना फायदा भी ढूंढ रही है? इसका जवाब हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों के चुनावी नतीजों में छिपा है। दरअसल, महिलाएं सिर्फ़ मजबूत भर नहीं हुई हैं, वो अपने विचारों और अपने अधिकारों को लेकर अधिक मुखर और अधिक जागरुक भी हुई हैं।
ये उनके वोटिंग पैटर्न में भी नज़र आ रही है। आज वो घर से बाहर सिर्फ नौकरी, करियर या बेहतर भविष्य गढ़ने के लिए नहीं निकल रही हैं, वो वोट डालने के लिए भी उसी शिद्दत से बाहर निकल रही हैं। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1971 के बाद से महिला वोटर्स की संख्या में करीब 236 प्रतिशत (235.72%) की ग्रोथ हुई है। ( पचास सालों में करीब ढाई गुना) 2024 के लोक सभा चुनावों के लिए कुल 96 करोड़ 88 लाख वोटर्स ने रजिस्ट्रेशन किया था और इसमें महिला मतदाताओं की संख्या 47 करोड़ से अधिक रही। जबकि 2019 की बात करें तो देश में कुल 43 करोड़ महिला मतदाता ही थीं। यानी इन पांच वर्षों में 4 करोड़ से ज्यादा महिलाओं का नाम बतौर मतदाता चुनाव आयोग की डायरी में दर्ज हुआ है।
दिलचस्प बात ये है कि इलेक्टोरल रोल में रजिस्ट्रेशन कराने के मामले में महिलाओं ने पहली बार पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है। चुनाव आयोग के ही डेटा के अनुसार 2024 के आम चुनाव के लिए करीब 2 करोड़ 63 लाख नए मतदाता जोड़े गए थे, जिसमें 1 करोड़ 41 लाख महिलाएं थीं, जबकि नए पुरुष मतदाताओं की संख्या 1 करोड़ 22 लाख ही रही। इस लिहाज से पुरुषों की तुलना में महिलाओं के वोटररोल में इनरोलमेंट का आंकड़ा 15 प्रतिशत से भी ज्यादा रहा। ऐसा भी नहीं है कि महिला मतदाताओं की सिर्फ़ संख्या बढ़ रही है, उनका वोटिंग प्रतिशत भी बढ़ रहा है। साल 1962 में महिलाओं और पुरुषों के वोटिंग टर्नआउट में (16.71) करीब 17 प्रतिशत का अंतर था। लेकिन 2019 आते आते ये तस्वीर बदल गई और अब इन आंकड़ों का झुकाव महिलाओं की तरफ है। चुनाव आयोग का डेटा बताता है कि 2019 के लोक सभा चुनाव में महिलाओं का वोटिंग टर्नआउट 67.18% प्रतिशत रहा, जबकि पुरुषों का वोटिंग टर्नआउट 67.01% ही रह गया था। यानी बीते लोकसभा चुनावों में महिलाओं ने पुरुषों से करीब 0.17 प्रतिशत ज्यादा वोटिंग की और वोटिंग में जो जेंडर गैप था वो अब महिलाओं की तरफ़ झुक गया है।
इसी वर्ष SBI की एक रिपोर्ट के अनुसार बीते पांच सालों में जिन 23 बड़े राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए हैं, उनमें 18 राज्य ऐसे रहे, जहां महिलाओं का वोटिंग टर्नआउट पुरुषों से ज्यादा रहा। हालांकि बात सिर्फ़ इतनी नहीं है कि महिलाएं वोट डाल रही हैं। बात ये भी है कि वो अपनी मर्जी से वोट डाल रही हैं और आज वो ये तय कर रही हैं कि उनकी उंगली किस बटन को दबाएगी, न कि उनके पति, पिता या सामाजिक ठेकेदार। इसीलिए महिलाएं सिर्फ़ वोट नहीं कर रही हैं, वो सरकारें बना भी रही हैं, और बदल भी रही हैं। मध्य प्रदेश आधी आबादी की इस सियासी शक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण रहा, जहां बीते 20 वर्षों की एंटीइनकम्बैंसी के बावजूद बीजेपी ने जबर्दस्त जीत दर्ज की।
SBI की रिपोर्ट को मानें तो शिवराज सरकार की लाडली बहना योजना इस जीत की सबसे बड़ी वजह साबित हुई। इसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनने में भी महिलाओं का बड़ा हाथ रहा, जिन्होने मुफ्त बस यात्रा से लेकर कई अन्य महिला केंद्रित योजनाओं के नाम पर कांग्रेस को समर्थन दिया। हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में भी कांग्रेस ने महिलाओं के लिए सीधे आर्थिक मदद देने और कई अन्य स्कीमों का ऐलान किया था, फलस्वरूप इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही। ये चुनावी नतीजे बताते हैं कि बदलती सियासत में महिलाओं की भूमिका और उनकी अहमियत क्या है और इसीलिए हर पार्टी महिलाओं को रिझाने में जुटी है, फिर चाहे उन पर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का इल्जाम ही क्यों न लगे।
‘लेकिन सवाल ये भी है कि क्या लोकतंत्र में भागीदारी के साथ संसद में भी उनकी हिस्सेदारी उसी अनुपात में बढ़ेगी, क्योंकि पुरुषों से ज्यादा मतदान करने के बाद भी 17 वीं लोक सभा में महज 78 महिलाएं चुन कर संसद पहुंचीं हैं। (14 प्रतिशत से थोड़ा सा ही ज्यादा) हालांकि अब जब नारी शक्ति वंदन अधियिनम पास हो चुका है तो उम्मीद है कि ये आंकड़ा और महिलाओं की तकदीर दोनों में ही सुधार होगा। वैसे SBI की ही एक रिपोर्ट ये भी बताती है कि महिला वोटर्स ने वोटिंग एनरोलमेंट के मामले में भले ही अभी भी 50 प्रतिशत का आंकड़ा न छुआ हो, लेकिन 2047 आते आते कुल वोटर्स में महिलाओं की संख्या 55 प्रतिशत हो चुकी होगी, जबकि पुरुषों मतदादा सिर्फ 45 प्रतिशत ही बचेंगे और जाहिर है कि तब महिलाएं ही देश की सियासी दिशा और दशा तय करेंगी।