भारत एक बहुभाषीय और सांस्कृतिक विविधता से युक्त सशक्त राष्ट्र है। यह विशेषता भारत को यूरोपीय राष्ट्र की अवधारणा के विपरीत अनूठे रूप में अभिव्यक्त करती है। भारत का यह राष्ट्रीय चरित्र इसकी भू सांस्कृतिक अवधारणा पर आधारित है जिसकी आधारभूत चेतना भारतीय राष्ट्र की अवधारणा है। यह राष्ट्र की अवधारणा सनातन अवधारणा है जिसको ध्यान में रखकर ही श्री अरविंद ने कहा था कि सनातन धर्म ही राष्ट्रवाद है। भारत के इस मातृभूमि कि रक्षा के लिए अलग – अलग भू भागों में अनेकों वीरों ने समय – समय पर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। इनके लक्ष्य में सिर्फ एक ही बात थी और वह थी मातृभूमि कि रक्षा। भारत एक राष्ट्र के रूप में यूरोपीय विचारकों के लिए अबूझ पहेली इसलिए बना है क्योंकि यूरोपीय राष्ट्र की संकल्पना में बहुभाषा, खानपान की बहुलता, रहन–सहन की भिन्नता और सांस्कृतिक विविधता उनके राष्ट्र की अवधारणा से मेल नहीं खाती है और भारत इन सभी विशेषताओं से युक्त होते हुए भी अपने राष्ट्रीय पहचानों के साथ जीवन्त आगे बढ़ता जा रहा है।
जननी जन्म् भूमिश्च का मूल्य ही विविधताओं से युक्त भारत को संगठित रखते हुए इसके राष्ट्रीय स्वरूप को जीवन्त रखे हुए है, इस विचार का आंशिक प्रस्फुटन ऐतिहासिक संदर्भों में दिखाई पड़ता है। हर सामाज के अनुरूप भारतीय समाजिक व्यवस्था के भी कुछ मौलिक गुणधर्म ऐसे रहे हैं जो यहां के सामाजिक व्यवस्था के साथ सनातन रूप में उपस्थिति रहे। यह मूल्य चाहे पति– पत्नी का आपसी संबंध हो या भाई– बहन का साथ मिलकर समस्या समाधान हेतु प्रयास करना, अथवा अपने समाज की समस्याओं को लेकर साथ होकर विद्रोह करने की प्रवृत्ति, यह मूल्य भारतीय जीवन दर्शन में यहां के सभी समाजों में सदा विद्यमान रहे।
इस लेख में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में संथाल विद्रोह में नेतृत्व कर रहे मुर्मू जनजाति परिवार के विद्रोहों की प्रवृत्ति में भारतीय समाजिक मूल्य के जो अंश दिखाई पड़ते हैं, उनको संक्षेप में परिलक्षित करने का प्रयास किया गया है। यह 1855 में संथाल जनजाति द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया विद्रोह था जिसमें लगभग 60,000 संथाल जन जातीय लोगों ने प्रतिभाग किया और 8,000 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई। इस विद्रोह के नायक सिद्धू–कान्हू नामक दो भाई थे। इनका पूरा परिवार जिसमें दो अन्य भाई चांद, भैरव और दो बहने फूलों और जानो तथा सिद्धू की पत्नी माला है। सिद्धू और माला आदर्श भारतीय पति–पत्नी के संबंधों को प्रदर्शित करते हैं। माला अपने पति के साथ उसके सारे सुख–दुःख में भागीदार रहने के चरित्र को उद्धृत रहती है।
तुहिन सिन्हा द्वारा लिखित पुस्तक ‘सिद्धू–कान्हू‘ में एक प्रसंग आता है जब सिद्धू अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में रहते हुए रात को काफी विलंब से अपने घर पहुंचता है तो माला काफी परेशान हो जाती है, अपने आंखों में आंसू लिए वह कहती है कि मैं तुमको लेकर काफी चिंतित थी, क्या तुम ठीक हो? मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती, अंग्रेज तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। इस पर सिद्धू कहता है कि मैं अपने कबीले को नहीं छोड़ सकता। हम लोग साथ मिलकर लड़ेंगे और सुरक्षित रहेंगे। सिद्धू अपने चेहरे पर गंभीर भावों को लाते हुए कहता है कि संथाल हमेशा ही लड़ते हुए उठकर खड़े हुए हैं और निरंतर ऐसा करते रहेंगे। हम इतिहास बना रहे हैं। हमारी कहानियाँ आने वाली पीढ़ियों को सुनाई जाती रहेंगी। इस पर माला कहती है कि मैं भी तुम्हारे साथ लड़ना चाहती हूँ। मैं अपने लोगों के लिए लड़ूँगी और कोई भी भय मुझे इससे पीछे नहीं ले जा सकता। इस प्रकार के सम्बन्धों की दृढ़ता ही भारतीय संस्कृति का समुच्चय है। सिद्धू और कान्हू सदैव अपनी मातृभूमि के और भूमि के स्वामित्व के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे।
तुहिन सिन्हा की पुस्तक में उल्लेख मिलता है कि भोगनाडीह गाँव में जब सिद्धू से शुकबर्ग जो एक अंग्रेज अधिकारी है, द्वारा जेल में उसके भाई कान्हू और उसकी रणनीति के विषय में पूछा जाता है तो वह कहते हैं यदि तुम यह सोचते हो कि मैं तुम्हें अपने कैंप और लोगों की जानकारी दूंगा तो तुम गलत हो और सिर्फ अपना समय नष्ट कर रहे हो । शुकबर्ग द्वारा ऐसा कहे जाने पर कि यदि तुम लोगों को लगता है कि इन छोटे मोटे विद्रोहों से तुम युद्ध जीत जाओगे तो तुम सब मूर्ख हो। इस पर सिद्धू ने जो जवाब दिया वह निश्चित ही हर स्वतन्त्रता सेनानी के संघर्षों का एक प्रतिदर्श रहा है। वह कहते हैं कि मूर्ख तो तुम लोग हो जो यह समझते हो कि हम युद्ध जीतना चाहते हैं, हम सबका उद्देश्य कभी भी युद्ध जीतना नहीं रहा है। हमारा उद्देश्य तो स्वतन्त्रता प्राप्त करना रहा है। हम अपनी जमीनें वापस प्राप्त पाना चाहते हैं। तुम चाहो तो मेरी जान ले लो पर हम अपनी मातृभूमि पर अपना हक जताते रहेंगे और इसे प्राप्त करने के लिए लड़ते रहेंगे।
शुकबर्ग द्वारा ऐसा कहे जाने पर कि हम अंग्रेज तुम्हारे स्वामी हैं और हमने ही तुम्हें भूमि का अधिकार दिया है। इस पर सिद्धू का प्रत्युत्तर मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए सम्पूर्ण जनजाति की सामूहिक चेतना के सर्वोच्च बलिदान को उद्घोषित करता हुआ प्रतीत होता है। सिद्धू कहता है कि हो सकता है कि तुम सही कह रहे हो कि तुम हमारे मालिक रहे हो और आगे भी हमारी धरती को अपने पैरों से कुचलते रहो, इस रूप में तुम सही हो सकते हो परंतु साथ ही तुम गलत भी हो क्योंकि यह भूमि कभी भी तुम्हारी रही नहीं है और इसी कारण हम सब इसे तुमसे वापस लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारी आत्मा अभी भी जिंदा है। तुम अपनी शक्ति से हम पर शासन कर सकते हो पर हम अपने पूर्वजों की भांति अपने अधिकारों के लिए सदैव तुम्हारे सामने पूरी शक्ति से खड़े रहेंगे। हमारे बाद हमारे बच्चे भी इसी दृढ़ता के साथ लड़ते रहेंगे, संघर्ष का यह चक्र कभी भी खत्म नहीं होगा और तुम लोग हमारी मातृभूमि पर कभी भी शांति नहीं प्राप्त कर सकोगे।
इस प्रकार यह संघर्ष निश्चित ही भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतीय सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जुझारू व्यक्तित्व का अनुपम उदाहरण है जिसका प्रभाव आने वाले स्वतन्त्रता आन्दोलन में स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ता है। भारतीय मूल्यों में ऐसी कहानियां ही यहां के समाज के आदर्श नायकों को सामान्य लोगों से जोड़ती प्रतीत होती हैं। भारतीयता की एक उत्कृष्ट विशेषता यह है कि हर कालखंड का नायक सदैव ही सामान्य व्यक्तियों के बीच अपने कार्यों से एक मानक स्थापित करता है। राम, कृष्ण, गोखले, विवेकानंद, गांधी, बिरसा मुंडा, सिद्धू–कान्हूं सभी कालखंड के नायक सामान्य जीवन जीते हुए कर्म भावना से समाज में महापुरुष बनते गए। इनका सम्पूर्ण जीवनवृत्त ही समाज को आगे बढ़ाने अर्थात् मार्गदर्शन करने वाला होता है। भारतीय व्यवस्था में नीति भी कहती है कि महाजना: येन गता: स: पंथा: अर्थात् महापुरुषों का आचरण ही जीवन का पाथेय होता है। इस पाथेय पर आगे बढ़ते हुए व्यक्ति खुद महापुरुष के रूप में स्थापित हो सकता है अथवा देवत्व को प्राप्त कर सकता है। सिद्धू और कान्हूँ की कहानी भी इसी विचार का विस्तार है। ऐसे चरित्र आम जनमानस के बीच आना तब और भी आवश्यक हो जाता है जब समाज में विभिन्न स्वार्थों के कारण जातीय, क्षेत्रीय, वर्गीय, नश्लीय इत्यादि आधारों पर वैमनष्व फैलाने का दुष्चक्र रचा जा रहा हो।
इस कहानी के इतने विस्तार से प्रकाश में आने से यह स्पष्ट होता है कि भारत के पराधीनता के कालखंड में सम्पूर्ण भारत का समाज ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के विरुद्ध एक साथ मिलकर संघर्ष कर रहा था और इन सबका समूहिक लक्ष्य था– भारत की स्वतन्त्रता। स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव कालखंड में हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी यह है कि सम्पूर्ण भारत के अमर बलिदानियों की गौरव गाथाएँ प्रकाश मे आयें जिससे समाज के समस्त वर्गों के प्रति आदर और सम्मान का वातावरण बना रहे।
भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री ने 30 जून 2024 को अपने मन की बात कार्यक्रम में सिद्धू–कान्हू का उल्लेख किया। उन्होने कहा कि मेरे प्यारे देशवासियों, आज 30 जून का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे आदिवासी भाई–बहन इस दिन को ‘हूल दिवस‘ के रूप में मनाते हैं। यह दिन वीर सिद्धू–कान्हू के अदम्य साहस से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने विदेशी शासकों के अत्याचारों का डटकर विरोध किया। वीर सिद्धू–कान्हू ने हजारों संथाल साथियों को संगठित किया और ब्रिटिशों से पूरी ताकत से लोहा लिया। और क्या आप जानते हैं, यह कब हुआ था? यह 1855 में हुआ था, यानी भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम से दो साल पहले 1857 में। उस समय झारखंड के संथाल परगना में हमारे आदिवासी भाई–बहनों ने विदेशी शासकों के खिलाफ हथियार उठा लिए थे। ब्रिटिशों ने हमारे संथाल भाई-बहनों पर कई अत्याचार किए थे और उन पर कई प्रकार की पाबंदियाँ भी लगाई थीं। इस संघर्ष में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीर सिद्धू और कान्हू ने शहादत प्राप्त की। झारखंड की इस धरती के इन अमर पुत्रों का सर्वोच्च बलिदान आज भी देशवासियों को प्रेरणा देता है।