भाजपा के भविष्य के नेता कौन-कौन हैं? – आपने ये चर्चा बार-बार सुनी होगी। इस पर बड़े-बड़े विश्लेषण होते हैं। लेकिन, हाल में कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को देखें तो पता चलता है कि भाजपा दूसरी पंक्ति के नेताओं को न सिर्फ तैयार कर रही है और तराश रही है, बल्कि उन्हें चुनौतियों के बीच कार्य करने का मौका देकर भविष्य की लड़ाई के अनुरूप ढाल भी रही है। अंग्रेजी में इसे ‘Second-rung Leadership’ कहा जाता है, अर्थात दूसरी पंक्ति के नेतागण। ऐसे नेता, जो भविष्य में पार्टी की सफलता के सफर को बरकरार रखें।
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों की खूब चर्चा है। जिस महायुति गठबंधन ने 7 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में 48 में से मात्र 17 सीटें जीती थीं, वही महायुति अब 288 में 228 सीटें अपने नाम करती हुई दिख रही है और लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटें जीतने वाला MVA गठबंधन मात्र 52 सीटों पर सिमटता हुआ दिख रहा है। जहाँ इस जीत का श्रेय ब्रांड मोदी को दिया जा रहा है, CM योगी आदित्यनाथ के ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ नारे को दिया जा रहा है, CM एकनाथ शिंदे द्वारा महिलाओं के भत्ते के लिए लाई गई ‘मुख्यमंत्री – माझी लाडकी बहीण योजना’ को दिया जा रहा है, ऐसे तमाम विश्लेषण होते रहेंगे – हम आपको वो बताने जा रहे हैं जो पर्दे के पीछे चल रहा है।
मोदी-शाह की छत्रछाया में नई पौध है तैयार
हमने भाजपा का अटल-आडवाणी युग देखा है। जनसंघ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय प्रमुख भूमिका में रहे। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को अगले नेतृत्व के रूप में तैयार किया। अटल-अडवाणी के समय में भी प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और यहाँ तक कि नरेंद्र मोदी जैसे नेता आगे बढ़े, जो बाद में भाजपा की नेतृत्व की प्रथम पंक्ति में आए। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और अरुण जेटली की संगठनात्मक व सूक्ष्मता से चीजों को जाँच-परख कर रणनीति बनाने की क्षमता के बलबूते भाजपा 2014 में सत्ता में आई। इसी दौर में जमीन पर काम करने वाले अमित शाह जैसे नेता भी ऊपर बढ़े।
कुछ चीजें हैं जो प्रत्यक्ष दिख रही हैं, लेकिन विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक दल पर्दे के पीछे से कैसे दूसरी पंक्ति के नेताओं को भविष्य के लिए तैयार कर रहा है ये भी जानने लायक है। आइए, महाराष्ट्र से ही शुरू करते हैं। आपने भाजपा के देवेंद्र फडणवीस, चंद्रकांत बावनकुले और नितिन गडकरी जैसे नेताओं को महाराष्ट्र में सक्रिय देखा। लेकिन, कुछ ऐसे भी नेता हैं जो ख़ामोशी से कार्य करते रहे और उनकी रणनीतियों की बदौलत पार्टी आज महाराष्ट्र में जीत का पताका लहरा रही है। ये वो नेता हैं जो आगे चल कर भाजपा नेतृत्व की प्रथम पंक्ति में होंगे। अब तक हर चुनाव में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रणनीतियों के भरोसे रहती थी। हर जगह मोदी-शाह दिखते थे। अब रणनीति में एक शिफ्ट दिख रहा है। पीएम मोदी गिनी-चुनी रैलियाँ ही कर रहे हैं, वहीं अमित शाह पहले जैसी सक्रियता के साथ फ्रंटफुट पर नहीं खेलते। इसका कारण ये है कि अगली पंक्ति के नेताओं को चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार कर के उनकी ‘इम्युनिटी’ बूस्ट की जा रही है।
केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव और केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण, रेलवे और केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव को जून 2024 में महाराष्ट्र में क्रमशः प्रदेश चुनाव प्रभारी और सह-प्रभारी बनाए जाने की घोषणा की। भूपेंद्र यादव OBC समाज से आते हैं, उन्होंने राज्य में मराठा आरक्षण के प्रभाव से निकल ओबीसी समाज को भाजपा के साथ जोड़ने के लिए नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें की। ओबीसी वोटों के माइक्रोमैनेजमेंट के लिए 7 जातियों व उप-जातियों को OBC के सेन्ट्रल लिस्ट में जोड़ने जाने का वादा किया गया।
भूपेंद्र यादव: एक के बाद एक राज्यों में तगड़ा प्रदर्शन का रिकॉर्ड
भूपेंद्र यादव को इतनी बड़ी जिम्मेदारी दिए जाने का कारण था पिछले चुनावों में उनका अच्छा प्रदर्शन। 2019 में बिहार लोकसभा चुनाव में उनकी देखरेख में पार्टी ने 17 सीटें जीतीं। 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 105 सीटें जीतीं। महाराष्ट्र में इस बार उनका पुराना अनुभव काम आया और पार्टी ने अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 74 सीटें अपने नाम की। 2022 में गुजरात में 182 में 156 सीटें भाजपा को मिलीं, ये एक प्रचंड जीत थी। 2023 में मध्य प्रदेश में भाजपा 109 से 163 पर पहुँची। 2024 में ओडिशा में पार्टी ने पहली बार सरकार बनाई, 147 में 78 सीटें जीत कर पार्टी ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।
इन सभी चुनावों में भूपेंद्र यादव ने बतौर प्रभारी या सह-प्रभारी मेहनत की, ऐसे में उनका ट्रैक रिकॉर्ड अब तक अच्छा रहा है। इस बार के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन से लेकर बूथ स्तर तक की रणनीति तैयार करने तक उनकी भूमिका रही। राजस्थान से आने वाले भूपेंद्र यादव का कद इस चुनाव के बाद और बढ़ा है, इसमें कोई शक नहीं है। भूपेंद्र यादव को जिम्मेदारी दी गई थी कि वो उम्मीदवारों के चयन के दौरान बगावत को थामें, उन्होंने इसे बखूबी निभाया।
भूपेंद्र यादव के बारे में कहा जाता है कि अमित शाह की रणनीतियों को न केवल बेहतर तरीके से समझते हैं बल्कि उन्हें जमीन पर उतारने में भी इनका कोई सानी नहीं है। अमित शाह के साथ करीबी से काम कर चुके भूपेंद्र यादव उनके तौर-तरीकों को अच्छी तरह समझते हैं और उन्हें लागू करने में सफल भी होते हैं।
अश्विनी वैष्णव: काम आता है कॉर्पोरेट-प्रशासनिक अनुभव
अगर बात करें अश्विनी वैष्णव की तो वो कई बड़े अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट कंपनियों में बड़े पदों पर रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के काल में प्रधानमंत्री के डिप्टी सेक्रेटरी रहे हैं। उनका जन्म भले राजस्थान में हुआ था, लेकिन उनका प्रशासनिक करियर ओडिशा कैडर का रहा। आम तौर पर शांत स्वभाव के माने जाने वाले अश्विनी वैष्णव को मार्च 2023 में जयपुर में आयोजित ‘ब्राह्मण महापंचायत’ में मंच से आक्रामकता से ‘जय परशुराम’ का नारा लगाते हुए देखा गया था। कॉर्पोरेट और प्रशासनिक करियर का उनका लंबा अनुभव अब न केवल सरकार बल्कि पार्टी के भी काम आ रहा है।
जब 2024 का लोकसभा चुनाव चल रहा था, तब 11, अशोक रोड पर भाजपा का जो वॉररूम बना हुआ था वहाँ सब कुछ अश्विनी वैष्णव की निगरानी में ही हो रहा था। भले ही आपको लगे कि अश्विनी वैष्णव मोदी मंत्रिमंडल के कोई सामान्य मंत्री हैं या कांग्रेस जैसी पार्टियाँ उन्हें ‘रील मंत्री’ बताती हैं, तो आपको एक नई बात जाननी चाहिए। देश भर से जो भी डेटा आते हैं, उनके विश्लेषण से लेकर उनका किस तरीके से इस्तेमाल हो इन सबमें उनकी बड़ी भूमिका होती है। तकनीकी रूप से दक्ष अश्विनी वैष्णव की इस खूबी का मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र में पार्टी को लाभ मिला है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘शिवास्त्र’: संघ के तहसील प्रभारी से BJP के राष्ट्रीय सह-संगठन महामंत्री तक
एक और नाम जिसकी चर्चा आवश्यक है, वो है शिवप्रकाश जी का। यूपी के मुरादाबाद स्थित एक छोटे से गाँव वीरू बाला में जन्मे शिवप्रकाश को दिसंबर 2020 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में भाजपा का राष्ट्रीय सह-संगठन महामंत्री बना कर भेजा गया। उन्होंने महाराष्ट्र के ‘प्रवासी कार्यकर्ताओं’ के साथ कई बैठकें की। संगठन के कामकाज पर उनकी पैनी नज़र थी। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘शिवास्त्र’ भी कह सकते हैं। 2023 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने जिम्मेदारी सँभाली थी। बूथ और मंडल जैसी इकाइयों को साध कर उन्होंने एग्जिट पोल्स को गलत साबित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। 2014 से ही BJP के सह-संगठन महामंत्री का पद सँभाल रहे शिवप्रकाश ने 2014 में हरियाणा में भाजपा की सरकार बनने में भी भूमिका निभाई थी और ताबड़तोड़ दौरे कर कार्यकर्ताओं में जोश भरा था। तब भाजपा 4 से सीधे 47 पर पहुँची थी। इसी तरह 2017 के यूपी चुनावों में भी उन्होंने कमान सँभाली और भाजपा की सरकार बनी। शिवप्रकाश को पुराने कार्यकर्ताओं को फिर से सक्रिय करने और नए कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के लिए जाना जाता है।
शिवप्रकाश संघ के प्रचारक हैं, ऐसे में उनका संगठनात्मक अनुभव उनके और पार्टी के काम आता है। 2021 में पश्चिम बंगाल में भी कार्यकर्ताओं को एकजुट करने के लिए उन्हें मोर्चे पर तैनात किया गया था और भाजपा की सीटें 3 से बढ़ कर 77 पहुँच गई। 1986 में अमरोहा में RSS के तहसील प्रचारक और फिर उत्तराखंड में प्रान्त प्रचारक से लेकर अब तक का उनका सफर प्रेरक भी है। 2014 में उन्हें संघ से भाजपा में लाया गया और यूपी में उन्होंने अमित शाह के साथ काम किया। संगठन के पेंच कसने में वो माहिर हैं।
धता होते हैं Exit Polls, धर्मेंद्र प्रधान खेल रहे ताबड़तोड़ मारी
अगर भाजपा के चुनावी प्रदर्शनों की बात करनी है तो इस साल हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव की चर्चा न हो तो ये अधूरी है। हरियाणा में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से लेकर Exit Polls तक, सभी ने भाजपा की हार की भविष्यवाणी की थी। हरियाणा में पार्टी ने केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव प्रभारी और त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विप्लब देब को सह-प्रभारी बना कर भेजा। धर्मेन्द्र प्रधान को हरियाणा की जीत का ‘मूक सूत्रधार’ भी कहा गया। ओडिशा से आने वाले धर्मेंद्र प्रधान देश के पेट्रोलियम और शिक्षा मंत्री हैं। हरियाणा से पहले 2022 में उत्तर प्रदेश और 2017 में उत्तराखंड में भाजपा के सफल चुनावी अभियान का वो हिस्सा रहे।
लेकिन, इन राज्यों से भी बड़ी सफलता उन्हें 2021 में पश्चिम बंगाल में मिली थी जब उन्हें नंदीग्राम की कमान सौंपी गई थी। भले ही राज्य में TMC की सरकार बन गई लेकिन ममता बनर्जी विधानसभा की सीट हार गईं। जाट, किसान, सेना के अभ्यर्थी (अग्निवीर योजना का विरोध) और पहलवान आंदोलन – तमाम कारणों से हरियाणा में भाजपा की हार की भविष्यवाणी की जा रही थी और पार्टी के लिए डगर कठिन थी। कहा जाता है कि धर्मेंद्र प्रधान एक महीने तक हरियाणा से हिले नहीं। रोहतक, कुरुक्षेत्र और पंचकूला में उन्होंने डेरा ही डाल दिया। इसके अलावा टिकट वितरण के कारण होने वाली बगावतों को थामने में भी उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। हरियाणा में भूपेंद्र यादव ने भी उनके साथ काम किया।
सुरेंद्र नागर और सतीश पूनिया: हरियाणा जीत के शिल्पकार ये भी
यहाँ एक और नाम का जिक्र आवश्यक है – सुरेंद्र नागर का। हरियाणा में उन्हें जिन्हें लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान हरियाणा में सह-प्रभारी बनाया गया था। पश्चिमी यूपी में गुर्जर समाज को भाजपा के साथ समन्वित करने के लिए जाने जाने वाले सुरेंद्र नागर की गुर्जर समाज में अच्छी पैठ है। विधानसभा चुनाव में भी उन्हें कमान दी गई। उन्होंने हरियाणा में 6 महीने दिए और गाँव-गाँव घूमे। उन्होंने विशेष रूप से फरीदाबाद और गुरुग्राम की 16 विधानसभा सीटों की जिम्मेदारी सँभाली। उन्होंने कांग्रेस नेताओं की आपसी खींचतान को चिह्नित कर भाजपा को इसका फायदा दिलाया।
चुनाव से ऐन पहले राजस्थान के सतीश पूनिया को चुनाव प्रभारी और सुरेंद्र नागर को सह-प्रभारी घोषित किया गया था। सतीश पूनिया को राजस्थान में विधानसभा चुनाव हारे हुए अधिक दिन नहीं हुए थे, फिर भी उन पर पार्टी ने भरोसा जताया। वो जाट समाज से आते हैं, हरियाणा में जाट मतदाता बहुलता में हैं। जुलाई 2024 में चुनाव से 3 महीने पहले मिली इस जिम्मेदारी को दोनों नेताओं ने बखूबी निभाया। धर्मेंद्र प्रधान और विप्लब देब ने जो आधार तैयार किया था, उस पर इन दोनों नेताओं ने इमारत तैयार की।
विप्लब देब: उत्तर-पूर्व से BJP का चेहरा, त्रिपुरा के बाद ओडिशा-हरियाणा में दिखाया दम
यहाँ विप्लब देब का जिक्र इसीलिए आवश्यक है, क्योंकि हरियाणा से पहले ओडिशा में वो अपना लोहा मनवा चुके थे। ओडिशा में भाजपा का वोट शेयर बढ़ाना मुख्य जिम्मेदरी थी और उन्होंने इसे किया भी। विप्लब देब 2016 से 2018 के बीच त्रिपुरा में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और उनके नेतृत्व में पहली बार राज्य में वामपंथी किला ढहने में भाजपा कामयाब हुई। मई 2022 में उन्हें CM पद छोड़ कर संगठन में वापस आने को कहा गया और पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह उन्होंने इसे स्वीकारा भी। इसके बाद से वो संगठन के कार्यों में लगे हैं।
त्रिपुरा की तरह ओडिशा में भी भाजपा को अपना वोट शेयर बढ़ा कर पहली बार अपने दम पर सरकार बनानी थी, विप्लब देब ने अपने त्रिपुरा वाले अनुभव का यहाँ इस्तेमाल किया। मतगणना से 1 दिन पहले ही उन्होंने आत्मविश्वास भरा बयान दिया था कि भाजपा ओडिशा में सरकार बनाने में कामयाब होगी। ये जमीनी मेहनत का कॉन्फिडेंस था। त्रिपुरा की एक तिहाई जनसंख्या जनजातीय समाज की है, ओडिशा में भी एक चौथाई जनसंख्या उन्हीं की है – ऐसे में विप्लब देब के पास जनजातीय समाज को साधने की रणनीति थी और उन्होंने इसे कर दिखाया।
यहाँ ये जानने लायक है कि नवीन पटनायक के मुख्यमंत्रित्व काल में ओडिशा में VK पांड्यन का बोलबाला था। कहा जाता था कि वो पटनायक उनके ही इशारों पर चलते हैं। विप्लब देब ने सबसे पहले इस चीज को मुद्दा बनाया। वीके पांड्यन तमिलनाडु के हैं, ऐसे में ओडिशा में ये ‘बाहरी हस्तक्षेप’ का मुद्दा भी बना। बाद में समूची भाजपा ने इस मामले को पकड़ा और जनता के बीच ये माहौल बना कि नवीन पटनायक अब निष्क्रिय हो चुके हैं और उनकी जगह पांड्यन ही सत्ता चला रहे हैं।
इस तरह हमने देखा कि हाल ही में जिन विधानसभा चुनावों में भाजपा को जीत मिली उनमें पर्दे के आगे दिख रहे नायकों के अलावा पर्दे के पीछे काम करने वाले कई ‘मूकनायक’ भी थे, जो भविष्य में न केवल पर्दे के आगे आकर पार्टी का चेहरा बनने की काबिलियत रखते हैं, या यूँ कहें कि चेहरा बनने की ओर अग्रसर हैं। तरह-तरह की चुनौतियों से निपटने के बाद वो भविष्य की बड़ी चुनौतियों के लिए तैयार होंगे। कुल मिला कर, भाजपा अब केवल मोदी-शाह के भरोसे नहीं रहती और खुद मोदी-शाह ने भविष्य की पीढ़ी को तैयार करने के लिए कमर कसी हुई है।
झारखंड: हिमंता बिस्वा सरमा और शिवराज सिंह चौहान, बड़े नाम पर परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं
इसमें कोई शक नहीं है कि असम में पहले सर्वानंद सोनोवाल की सरकार में बतौर स्वास्थ्य मंत्री और फिर बतौर मुख्यमंत्री हिंदुत्व के मुद्दे पर हिमंता चर्चा में रहते हैं। अवैध मदरसों पर बुलडोजर चलने से लेकर मुस्लिम समाज की कुरीतियों में सुधार करने तक, उन्होंने बाल विवाह के खिलाफ कानून कड़े करने के अलावा कई फ़ैसले लिए। लेकिन, शायद असम का उनका अनुभव झारखण्ड में काम नहीं आया। शायद जनता को झारखंड के नेतृत्व की जगह किसी अन्य राज्य के नेता का चर्चा में रहना नहीं भाया।
वहीं शिवराज सिंह चौहान की बात करें तो उन्हें बहुत कुछ साबित करने की ज़रूरत नहीं है, मध्य प्रदेश की राजनीति में लगभग ढाई दशक तक चौहान ही चौहान रहे। नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और प्रह्लाद पटेल जैसे तमाम नेता उनके साये में रहे। उनके द्वारा खाली किए गए MP की बुधनी विधानसभा भाजपा किसी तरह लगभग 14,000 वोटों से जीतने में सफल तो रही, लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह चौहान 1 लाख से भी अधिक वोटों के अंतर से जीते थे। बुधनी में जीत का अंतर कम होना ये बताता है कि मध्य प्रदेश में आज भी शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले कोई नेता नहीं है।