शीर्ष देश अपनी मातृभाषा में ही कर रहे सारा काम, समझिए शिक्षा और अनुसंधान में क्यों ज़रूरी है अपनी भाषा

विश्वविद्यालय एवं उच्च शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूले के अंतर्गत देव भाषा संस्कृत और भारत की अन्य पारंपरिक भाषाओं में से विकल्प चुनने का प्रावधान हो

मातृभाषा, भाषा

यूरोपीय देशों ने भारतीय संस्कृति ,सभ्यता, ज्ञान परंपरा इत्यादि के प्रति जो हीनभावना विकसित की, वह भारतीयों के मन में घर कर गई (प्रतीकात्मक चित्र)

शिक्षा स्वयं में एक क्रिया भी है तथा संस्था भी। अपने व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में यह संस्कृत की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बनती है जिसका अर्थ है, सीखना और सिखाना। इस प्रकार शिक्षा सीखने और सिखाने की क्रिया है। संस्था के रूप में शिक्षा किसी एक पीढ़ी द्वारा आने वाली अगली पीढ़ी को किया गया ज्ञान का हस्तांतरण है। इस प्रकार यह किसी व्यक्ति को समाज विशेष से जोड़कर संस्कृति और सभ्यता की निरंतरता को बनाए रखने में सहायक होती है। अनुसंधान भी शिक्षा के उप समुच्चय के रूप में एक क्रिया है जिसे अंग्रेजी में Research कहा जाता है। वस्तुतः यहाँ Research का अर्थ किसी खोजे गए ज्ञान विज्ञान को पुनः खोजना न होकर गहन खोज करना है।

एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी ऑफ करंट इंग्लिश के अनुसार, “ज्ञान की किसी भी शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानी पूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच-पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।” इन बातों से स्पष्ट होता है कि शिक्षा एवं शोध के लिए किसी विषय का गहन ज्ञान एवं भाषाई समझ होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं है तो न तो शिक्षा का कोई उत्कर्ष बोधक महत्व होता है तथा न ही शोध के लिए उपयुक्त अवकाश मिल पाता है। शिक्षा का सौंदर्यबोध व्यक्ति के जीवन के प्रारंभिक समय के लोक व्यवहार, लोक कथाएं ,सुदृढ़ भविष्य हेतु व्यक्ति की स्वप्निक अभिलाषा इत्यादि में छिपा होता है।

विभिन्न अनुसंधान से ज्ञात होता है कि व्यक्ति की अस्मिता साहित्य तथा उसकी सृजनात्मकता का सर्वोच्च वैभव उसकी मातृभाषा में ही संभव है। मातृभाषा व्यक्ति को उसकी प्राचीन परंपरा में परिष्कृत करती है तथा उसके जीवन की अर्थपूर्ण संभावना प्रकट करती है। इस संदर्भ में डॉक्टर अतुल कोठारी कहते हैं, “मातृभाषा के संबंध में कुछ विद्वानों का मानना है कि मां की ही भाषा मातृभाषा है। यह पूर्ण सत्य नहीं है, मां की भाषा के साथ-साथ बच्चे का शैशव और बाल्यकाल जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव है।

ज्ञान परंपरा, शिक्षा और तकनीकी विकास से जुड़ी होती है मातृभाषा

जिस परिवेश में बच्चा पलता हैं, वहां जो भाषा वह सीखता है ,वह भाषा उस बच्चे की मातृभाषा कहलाती है। यहां परिवेश से अर्थ परिवार एवं उस परिवार के सांस्कृतिक मूल्यों से है।” ‘न्यूरोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ लर्निंग’ के अनुसार किसी बच्चे की पाठन गति उसकी मातृभाषा में सर्वाधिक होती है क्योंकि उस भाषा के अधिकांश शब्द उसे परिचित महसूस होते हैं। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट महत्वपूर्ण है:

1. अधिकांश बच्चे विद्यालय जाने से कतराते हैं क्योंकि उनकी शिक्षा का माध्यम हुआ भाषा नहीं है जो भाषा घर में बोली जाती है।
2.संयुक्त राष्ट्र संघ के बाल अधिकारों के घोषणा पत्र में भी कहा गया है कि बच्चों को उसी भाषा में शिक्षा प्रदान की जाए जिस भाषा का प्रयोग उसके माता-पिता एवं सारे पारिवारिक सदस्य करते हैं।

किसी देश की भाषा उस देश के लिए केवल भावात्मक विषय न होकर वहां की ज्ञान परंपरा, शिक्षा तथा तकनीकी विकास से संबंधित होती है। कोई भी भाषा भावना एवं संवेदना को मूर्त रूप दिए जाने का माध्यम होती है न कि प्रतिष्ठा का प्रतीक। सामान्यतः ऐसा देखा जाता है कोई भी विकसित एवं समृद्ध राष्ट्र अपनी शिक्षा और शोध के कार्यक्रम अपनी मातृभाषा में करना उचित समझता है । माइक्रोसॉफ्ट के वरिष्ठ वैज्ञानिक “संक्रांत सानू” ने अपनी पुस्तक में दिए गए तथ्यों में कहा कि, “दुनिया में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के लिहाज से शीर्ष 20 देश अपना मुख्य काम मातृभाषा में ही कर रहे हैं। इनमें चार देश अंग्रेजी भाषी हैं क्योंकि उनकी मातृभाषा अंग्रेजी है। वह आगे लिखते हैं कि विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे पिछड़े हुए 20 देशों में विदेशी भाषा या अपनी और विदेशी दोनों भाषा में उच्च शिक्षा दी जा रही है तथा शासन प्रशासन का कार्य भी इसी प्रकार किया जा रहा है।” मातृभाषा में दी जा रही शिक्षा तथा होने वाले अनुसंधान का महत्व इजरायल जैसे छोटे से देश को देखकर समझा जा सकता है जिसने अपनी मातृभाषा हिब्रू में किए अनुसंधानों के आधार पर 16 नोबेल पुरस्कार अपने नाम किए हैं।

मातृभाषा में शोध से होता है मनोवैज्ञानिक उत्थान

मातृभाषा हिंदी के विषय में ‘राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र’ की ‘डॉ नंदिनी सिंह’ का अनुसंधान कहता है कि “अंग्रेजी की पढ़ाई से मस्तिष्क का एक ही हिस्सा सक्रिय होता है जबकि हिंदी की पढ़ाई से मस्तिष्क के दोनों भाग सक्रिय होते हैं।” पूर्व राष्ट्रपति “डॉ अब्दुल कलाम” ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कहा कि ,”मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की।” पंडित मदन मोहन मालवीय अंग्रेजी के बहुत अच्छे ज्ञाता थे परंतु उनके अनुसार ,”मैं 60 वर्षों से अंग्रेजी का प्रयोग करता आ रहा हूं परंतु बोलने में हिंदी जितनी सहजता अंग्रेजी में नहीं आ पाती।” नोबेल पुरस्कार विजेता ‘रवींद्रनाथ ठाकुर’ ने भी कहा, “यदि विज्ञान को जन सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।”

मातृभाषा में शिक्षा तथा शोध मनोवैज्ञानिक रूप से भी व्यक्ति के उत्थान एवं ज्ञान में सहायक होता है। प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री ‘प्रोफेसर यशपाल ‘के नेतृत्व में निर्मित “विश्वविद्यालय शिक्षा के नवीनतम दस्तावेज” राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के खंड 3.1.1 के अनुसार, “विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए क्योंकि मातृभाषा में ही छात्र अपने घर आसपास तथा सामाजिक वातावरण की गतिविधियों को स्वाभाविक रूप से सीख पाते हैं।” इन्हीं सभी बातों को ध्यान में रखते हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ में प्रावधान किया गया है कि कक्षा 5 तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए तथा कक्षा आठ और उसके आगे भी भारतीय भाषाओं में अध्ययन का प्रावधान किया जाए।

साथ ही विश्वविद्यालय एवं उच्च शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूले के अंतर्गत देव भाषा संस्कृत और भारत की अन्य पारंपरिक भाषाओं में से विकल्प चुनने का प्रावधान हो। भारतीय भाषाओं में शिक्षा तथा शोध कार्य का परिणाम यह होगा कि एक और विद्यार्थी जहाँ अपनी मूल सांस्कृतिक भावना से जुड़ा रहेगा वहीं दूसरी तरफ अपने राष्ट्र में हुए बौद्धिक प्रगति को समझ कर तथा आधार बनाकर नवीन अनुसंधान कर सकेगा। प्राचीन भारत के अधिकांश का महानतम ग्रंथ जोकि ज्ञान विज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर लिखे गए हैं, में गूढ़ दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चिंतन है, जिसको बौद्धिक संपदा के रूप में वर्तमान में प्रासंगिक तभी बनाया जा सकता है जबकि उन ग्रंथों की मूल भाषाओं में शिक्षा तथा शोध कार्य प्रारंभ हो सके। उदाहरणस्वरूप परमाणु पर शोध करने वाले महर्षि कणाद, आयुर्वेदिक ग्रंथ “सुश्रुत संहिता” के प्रणेता महर्षि सुश्रुत ,रसायन विज्ञानी नागार्जुन, योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि इत्यादि ने अपने ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे हैं ।अतः यदि इन ग्रंथों के गूढ़ वैज्ञानिक ज्ञान को बौद्धिक संपदा के रूप में भारत को बनाए रखना है तो शिक्षा और शोध में संस्कृत भाषा को महत्व देना पड़ेगा। संस्कृत भाषा की सामर्थ्य और इसकी वैज्ञानिकता को देखते हुए ‘बाबा साहब अंबेडकर’ ने भी इसे राष्ट्रभाषा बनाने की मांग की थी।

अपनी बौद्धिक संपदा को सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी

किसी भी राष्ट्र की शिक्षा एवं शोध कार्य अगर वहां की स्थानीय एवं मातृ भाषा में न संपादित हो तो वहां का अधिकांश बौद्धिक वर्ग अपनी सांस्कृतिक एवं बौद्धिक विरासत के ज्ञान से अछूता रह जाता है। भारत के संदर्भ में यह बात रही कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी के प्रति व्यापक सौंदर्य बोध एवं श्रद्धा भाव रहा। जिससे भारत का बौद्धिक वर्ग न तो अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त कर सका तथा नहीं शोध कार्यों हेतु भारत के विराट बौद्धिक संपदा से विज्ञ हो सका। परिणामस्वरूप यूरोपीय देशों ने भारतीय संस्कृति ,सभ्यता, ज्ञान परंपरा इत्यादि के प्रति जो हीनभावना विकसित की, वह भारतीयों के मन में घर कर गई। इसका फायदा पाश्चात्य देशों ने भारतीय ज्ञान परंपरा एवं विचारों की चोरी कर, उन पर विस्तृत अनुसंधान कर तथा उनके नाम परिवर्तित कर, उन्हें अपनी बौद्धिक संपदा घोषित कर प्रचारित किया।

इसके कुछ प्रमुख उदाहरण निम्न है- जॉन कबाँर्ड जिन जो कि ध्यान-विज्ञान के संस्थापक माने जाते हैं, ने विपश्यना को सचेतनता(Mindfullness) के रूप में प्रचारित किया जबकि उन्होंने यह ख़ुद स्वीकार किया कि उन्हें यह ज्ञान सत्य नारायण गोयनका से प्राप्त हुआ जो कि भारतीय थे।इसी प्रकार भारतीय योगनिद्रा को Stenford के स्टीफ़न लाबर्स ने ल्युसिड ड्रीमिंग के नाम से प्रचारित किया।

अब स्थिति यह है, हम पश्चिमी लोगों द्वारा दिए हुए नामों से ही अपनी विरासत को जान रहे हैं तथा इससे स्पष्ट है कि यदि किसी देश की बौद्धिक संपदा को संरक्षित रखना है तथा उसका वर्तमान जीवन में उपयोग कर स्वयं को वैश्विक पटल पर स्थापित करना है तो इसके लिए उस देश की शिक्षा व शोध कार्यक्रम मातृभाषा में होने चाहिए। गांधी जी ने भी हिंद स्वराज में लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी।” भारत के संदर्भ में मात्रृभाषा को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा आपसी बातचीत, कार्य व व्यवहार में संगठन ,संस्था इत्यादि के स्तर पर इसका अधिकाधिक प्रयोग किया जाए। देशव्यापी जन जागरण जिसके अंतर्गत गोष्ठी,परिचर्चा, परिसंवाद इत्यादि का आयोजन तथा भारतीय भाषाओं में अनुवाद एवं अनुसंधान हेतु शोध केंद्रों की स्थापना इत्यादि कार्यक्रम संपादित किए जा सकते हैं।

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