भोजपुरी को वैश्विक रंगमंच पर स्थापित करने वाले भिखारी ठाकुर, बिना स्कूली ज्ञान के लिख दीं 29 किताबें

भिखारी ठाकुर को असल मायनों में भारत में ओपन एयर थिएटर या एम्फीथियेटर का जनक माना जा सकता है

जानवरों को चराते चराते ही भिखारी ठाकुर ने रामचरितमानस की चौपाइयों को कंठस्थ कर लिया था

जानवरों को चराते चराते ही भिखारी ठाकुर ने रामचरितमानस की चौपाइयों को कंठस्थ कर लिया था

एक ऐसा व्यक्ति, जिसने कभी स्कूल का मुँह न देखा हो लेकिन उसने एक या दो नहीं 29 किताबें लिख दी हों। एक ऐसा व्यक्ति, जिसने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भैंस चराने के साथ हज्जाम का काम करते हुए बिताया हो, लेकिन काव्य प्रतिभा ऐसी कि उसे भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाने लगे तो ऐसे व्यक्ति को आप क्या कहेंगे? आसान शब्दों में आप उन्हें भिखारी ठाकुर कह सकते हैं, भोजपुरी को व्यापक पहचान दिलाने वाले कवि, लेखक और नाटककार जिन्होंने जीवन की विद्रूपदाओं को, विपन्नताओं को न सिर्फ़ देखा बल्कि समझा और उसे समाज के सामने अपने ही भदेस अंदाज में पेश भी किया।

भैंस चराने वाला लड़का कैसे बना भोजपुरी का शेक्सपियर?

बिहार के एक बड़े क्षेत्र और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित भोजपुरी भाषा है या बोली? इस विवाद को हम भाषा शास्त्रियों के लिए छोड़ भी दें, पर यह सत्य है कि इसे वैश्विक रंगमंच में स्थापित करने में भिखारी ठाकुर का योगदान सर्वाधिक है। कुछ वैसे ही जैसे गोस्वामी तुलसीदास व कबीरदास ने क्लिष्ट व कुलीन भाषा के बदले लोकभाषा को अपनाकर जन-जन के मन में अपना स्थान बनाया, कुछ वही मान्यता उत्तर भारत में भिखारी ठाकुर की है।

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर, 1887 को बिहार के एक हज्जाम परिवार में हुआ था। भिखारी ठाकुर के सामने दोनों तरह की चुनौतियां थीं, आर्थिक भी और सामाजिक भी। लिहाज़ा जिस उम्र में बच्चों का जीवन स्कूल की कक्षाओं में गुजरता है, उस उम्र में भिखारी ठाकुर को गाय-भैंसों को चराने की ज़िम्मेदारी मिली है। लेकिन भिखारी ठाकुर के लिए ये भी आपदा में अवसर ही साबित हुआ। गाने-गुनगुनाने का शौक़ कुछ ऐसा था कि जानवरों को चराते चराते ही भिखारी ठाकुर ने रामचरितमानस की चौपाइयां, कबीर के निर्गुण भजन और रहीम के दोहों को कंठस्थ कर लिया और अपनी मधुर आवाज़ में गुनगुनाने लगे। यहाँ से हुई शुरुआत ने उन्हें भोजपुरी काव्य और गीत-संगीत की दुनिया का सबसे बड़ा नायक बना दिया

जगन्नाथ रथयात्रा से मिली नाट्य मंडली की प्रेरणा

जैसा कि उस दौर के सामान्य परिवारों में होता था, भिखारी ठाकुर भी बचपन में ही ब्याह दिए गए और जल्दी ही उन्हें पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हो गई। परिवार बढ़ा तो जानवरों को चराने के अलावा परिवार का गुज़र बसर चलाने के लिए भिखारी ठाकुर अपने पुश्तैनी पेशी पर वापस आ गए और हज्जाम का काम करने लगे। हालांकि, उनका मन सदा साहित्य में ही रमा रहा था। वर्ष 1927 में भीषण अकाल पड़ा, तो भिखारी ठाकुर भी रोज़ी-रोटी के लिए पहले खड़गपुर और फिर बाद में जगन्नाथपुरी चले गए। वहां उन्होंने प्रवासी मज़दूरों के दर्द और तकलीफ़ को तो क़रीब से देखा ही, कई नाटक मंडलियों से भी उनका परिचय हुआ। हालांकि, परदेस (घर से बाहर किसी दूसरे शहर जाने वालों को गांव-गंवई बोली में आज भी परदेस ही कहा जाता है) में मन नहीं लगा तो भिखारी जल्द ही अपने गांव कुतुबपुर लौट आए लेकिन वो कुछ गढ़ने के लिए लौटे थे।

ग्रामीण भारत में ओपन एयर थियेटर के जनक भिखारी ठाकुर

वो पढ़े लिखे नहीं थे, न ही ऊंची सामाजिक हैसियत थी लेकिन वो समाज के एक बड़े वर्ग के दिल में झांकना जानते थे, मनोरंजन के साथ लोगों का मर्म छूना जानते थे। जल्दी ही भिखारी ठाकुर ने अपनी अलग मंडली बना ली, जिसके संगीतकार और निर्देशक भी वो ख़ुद ही थे। उन्होने गाँव के लोगों में ही अपने गायक, अभिनेता, लबार (विदूषक) और संगीतकार चुने। मंच नहीं था तो वो तख्त या चौकी को ही स्टेज बना कर खुले आसमान के नीचे अपना रंगमंच सजा लेते थे। उन्हें असल मायनों में भारत में ओपन एयर थिएटर या एम्फीथियेटर का जनक माना जा सकता है।

भिखारी ठाकुर की इस नाट्य मंडली ने कजरी, होरी, चैता, बिरहा, चौबोला, बारामासा, सोहार, विवाह गीत, जंतसार, सोरठी, आल्हा, पचरा जैसी लोक विधाओं को चुना और भजन व कीर्तन के ज़रिए भी लोगों का न सिर्फ मनोरंजन किया, बल्कि उनके अंदर सामाजिक चेतना भी पैदा की। भिखारी ठाकुर अपने ने अपने काव्यात्मक अंदाज में जिस तरह सामाजिक सच्चाइयों को भी पेश करते थे, उसमें मनोरंजन के साथ साथ तंज़ भी होता था।

स्कूल नहीं गए, लेकिन लिखीं 29 किताबें

उन्होंने अपनी टीम के साथ सभी तरह की सामाजिक कुरीतियों, समाज में उपेक्षित तबके के साथ होने वाले अत्याचार, विधवाओं की स्थिति से लेकर नशाख़ोरी, दहेज प्रथा और धार्मिक पाखंड तक पर अपनी रचनाओं के ज़रिए जागरूकता पैदा की। भिखारी ठाकुर कभी स्कूल नहीं गए लेकिन उन्होंने 29 किताबें लिखीं जो लोकगीतों पर आधारित हैं। कैथी लिपि में लिखी गई इन किताबों को बाद में देवनागरी में बदला गया और बाद में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने भिखारी ठाकुर रचनावली के नाम से इनका संपूर्ण संकलन भी प्रकाशित किया। भिखारी ठाकुर के बेटी वियोग, बिदेसिया, ननद भौजाई, गबर घिचौर और कलियुग का प्रेम जैसे लोक नाटकों ने आम जनमानस के बीच न सिर्फ जगह बनाई बल्कि उन्हें झकझोरा भी था।

‘बेटी वियोग’, यहां शादी के बाद बिटिया के पराए होने के दुख पर आधारित है, तो वहीं ‘बिदेसिया’ उस महिला के दर्द की दास्तां है जिसका पति आजीविका कमाने के लिए परदेश चला गया है। इसी तरह ‘गबरघिचौर’ एक महिला के यौनिक अधिकारों पर आधारित नाटक है सेक्सुअल अधिकारों पर टिप्पणी करता है। विदेशिया नाटक की महिला किरदार अपने पति को याद करती है- पिया मोरा गैलन परदेस, ए बटोही भैया…रात नहीं नीन, दिन तनी ना चैनवा।

भोजपुरी को वैश्विक रंगमंच पर पहुंचाने वाले नाटककार

भिखारी ठाकुर की करीब तीन चौथाई रचनाएं कविताओं के रूप में हैं, जिनमें मेलोड्रामा, भक्ति, सांसारिक प्रेम, उदासी और प्रसन्नता जैसे एहसास एक साथ माला की तरह पिरोए नज़र आते हैं। आमतौर पर, उनके लोक नाटकों के पात्र भी दलित और निचली जातियों से आते हैं और उनकी कथावस्तु को ये किरदार सार्थक भी करते हैं, फिर चाहे वो झंटुल हों, चटक, चेथरू, अखाजो या फिर लोभा हो। बिहार शासन और अनेक संस्थाओं से उन्हें सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान मिले पर वे सदा घर के आगे चटाई बिछाकर आम लोगों से मिलते रहते थे।

अपने नाटकों में रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध करने वाले इस कवि एवं नाटककार का निधन 10 जुलाई, 1971 को हुआ। भोजपुरी फिल्म और गीत-संगीत के अलावा लोक संगीत का दायरा भी काफ़ी विस्तृत है और इसकी एक पहचान के तौर पर भिखारी ठाकुर हमेशा याद किए जाते रहेंगे। आधुनिकतम तकनीक के दौर में जबकि लोक संस्कृति को बचाने का संकट है, ऐसे में भोजपुरी समाज के लिए भिखारी ठाकुर की विरासत को बचाने की चुनौती है ।

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