भारत की राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संघर्ष और विवाद का लंबा इतिहास तो रहा ही है, लेकिन आजकल एक चलन जो राजनीति में नज़र आ रहा है वो विपक्षी दलों के बीच आपस में संघर्ष का है। देश में विपक्षी दलों के बीच चल रहे इस संघर्ष के केंद्र में मुस्लिम वोटर्स हैं। भारत की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में एक आम धारणा रही है कि मुस्लिमों का वोट बीजेपी के अलावा अन्य दलों को ही मिलता है। भारत में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या करीब 15-16% के बीच मानी जाती रही है और पार्टियों को उनका एकमुश्त वोट मिलना चुनावी राजनीति में अक्सर जीत की गारंटी के रूप में देखा गया है। ऐसे में मुस्लिम राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता खुद को बड़ा मुस्लिम हितैषी साबित करने की होड़ में लगे हुए हैं।
राहुल गांधी की बदली हुई राजनीति
राहुल गांधी इस समय कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े चेहरे हैं और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में उनका एक ही लक्ष्य नज़र आ रहा है कि वे कैसे मुस्लिमों को और पिछड़े वर्ग को अपने पाले में करें। हालांकि, कांग्रेस लंबे समय से मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करती रही है और उन्हें बड़ी संख्या में मुस्लिमों का वोट भी मिलता रहा है लेकिन 2014 के बाद कांग्रेस अपने न्यूनतम स्तर पर चली गई तो मुस्लिम क्षेत्रीय दलों के पाले में जाना शुरू हो गए थे। बीजेपी की बड़ी जीत के बाद राहुल ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति शुरू की और वे चुनावों से पहले अलग-अलग मंदिरों में दिखाई देने लगे। इससे चलते उनका हिंदुओं का वोट बैंक तो शायद ही मजबूत हुआ लेकिन मुस्लिम मतदाता उनसे और दूर खिसकने लगे।
धीरे-धीरे कांग्रेस और राहुल को यह बात समझ आई तो उन्होंने खुद को बड़ा मुस्लिम हितैषी साबित करना शुरू कर दिया। अमेठी के सांसद के तौर पर राहुल गांधी का चुनाव लड़ने के लिए मुस्लिम बहुल वायनाड चले जाने की वजह मुस्लिम तुष्टिकरण के अलावा और क्या हो सकती है? 2019 के चुनाव में वे अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़े और जहां अमेठी में उन्हें हार मिली, वहीं वे वायनाड में बड़े अंतर से जीते। खुद को मुस्लिमों का हितैषी साबित कर सकें, इस प्रयास में वो लगातार हिंदू धर्म को निशाने पर लेते हैं। राहुल गांधी ने ‘हिंदुत्ववादी और हिंदू’ की एक अतार्किक बहस को जन्म दिया और समाज में खाई पैदा करने की कोशिश शुरू की।
राहुल गांधी ने संसद के भीतर हिंदुओं को हिंसक बताने जैसे बयान भी दिए, जिस पर हंगामा भी हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को उन्हें टोकना पड़ा। बीजेपी पर हिंसक और संविधान विरोधी होने जैसे तमाम तरह के आरोप लगाने वाले राहुल गांधी ने अमेरिका के एक कार्यक्रम में मुस्लिम लीग को पूरी तरह सेक्युलर बताया था (याद रहे कि प्रियंका गांधी के उपचुनाव में कांग्रेस और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के बीच गठबंधन रहा)।
सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति में फेल हो चुकी कांग्रेस और उसके नेता अपने मुद्दे को भी पूरी तरह भूल चुके हैं। राहुल गांधी कभी संसद में खड़े होकर महाभारत के एकलव्य से जुड़ी फर्जी कहानियां सुनाते हैं, तो कभी हिंदू धर्म में जिस तपस्या को सर्वोत्तम स्थान दिया जाता है उसकी भद्दी परिभाषा गढ़कर मज़ाक उड़ाते हैं। मनुस्मृति पर सवाल उठाना तो जैसे राहुल गांधी का पसंदीदा शग़ल है। इन सबके पीछे मकसद यही है कि वे खुद को बीजेपी के साथ साथ हिंदुत्व विरोधी दिखा कर ख़ुद को मुस्लिम हितों का रहनुमा साबित कर सकें। भारत में मनुस्मृति हिंदू धर्म की इकलौती किताब तो है नहीं लेकिन वे फिर भी सिर्फ उसी को निशाना बनाते हैं। राहुल कभी दूसरे धर्म के ग्रंथों पर इस तरह की टिप्पणियां करते कभी नज़र नहीं आते हैं।
राहुल के निशाने पर पिछड़े, तो प्रियंका साध रहीं मुस्लिम वोट बैंक!
प्रियंका गांधी कुछ ही दिन पहले ही लोक सभा में आई हैं और वो मुस्लिम बहुल वायनाड से चुनाव लड़ीं, वही सीट जिस पर उनके भाई राहुल गांधी ने जीत दर्ज की थी। हालांकि, राहुल गांधी ने रायबरेली के लिए वायनाड की सीट छोड़ दी थी। हाल ही में प्रियंका संसद में ‘फिलिस्तीन की आजादी’ लिखा हुआ बैग लेकर पहुंची थीं, इसके पीछे का मकसद भी एक वर्ग विशेष को खुश करना ही माना जा रहा है। हालांकि इस पर हैरान नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर प्रियंका लोकसभा पहुँच सकी हैं, तो उनकी जीत में मुस्लिम लीग की बड़ी भूमिका है। हालांकि जब उनके इस कदम की आलोचना हुई तो प्रियंका अगले दिन बांग्लादेश में हो रही हिंसा से जुड़े शब्दों वाला बैग लेकर पहुंच गई।
अब प्रियंका को खुद को सॉफ्ट हिंदुत्व से दूर भी रखना था और चिंता भी जतानी थी तो उन्होंने बैग पर लिखवाया ‘बांग्लादेश के हिंदुओं और ईसाइयों के साथ खडे़ हो‘। बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की जितनी खबरें आई हैं उनके मुकाबले ईसाइयों के साथ हुए अत्याचार की नहीं आई हैं।(केरल में ईसाइयों की संख्या अच्छी खासी है) हालांकि, हिंसा किसी के साथ भी हो वो कतई जायज़ नहीं है लेकिन प्रियंका इसके ज़रिए शायद खुद को हिंदुत्व से जोड़े जाने से बचाना ही चाहती हैं।
प्रियंका गांधी मौजूदा समय में बेशक वायनाड से सांसद हैं लेकिन उनकी राजनीति का बड़ा वक्त उत्तर प्रदेश में बीता है। कांग्रेस की महासचिव के तौर पर भी उनके पास उत्तर प्रदेश की ही जिम्मेदारी थी। पिछले साल उत्तर प्रदेश में जब राम मंदिर का उद्घाटन हुआ तो इतने बड़े सांस्कृतिक पुनरुत्थान कार्यक्रम में शामिल होने की बात तो दूर कांग्रेस ने उसे राजनीति ही बता दिया था। कांग्रेस की किसी और बड़े नेता को छोड़िए उत्तर प्रदेश की राजनीति कर रहीं प्रियंका गांधी भी आज तक राम मंदिर के दर्शन के लिए नहीं पहुंची हैं, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?
संसद में प्रियंका गांधी ही नहीं सपा भी मुस्लिम हितैषी बनने में पीछे नहीं
मौजूदा लोकसभा को देखें तो बीजेपी और कांग्रेस के बाद अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी तीसरे सबसे बड़ी पार्टी है। लोकसभा में जब ‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़े विधेयक पर चर्चा हो रही थी तो आज़मगढ़ से सपा के सांसद धर्मेंद्र यादव ने इसे ‘मुस्लिम विरोधी’ बता दिया। अब एक ऐसा विधेयक जिसका दूर-दूर तक मुस्लिम समाज से कोई लेना-देना ना हो उसे लेकर इस तरह की टिप्पणी करने की वजह मुस्लिम तुष्टिकरण के अलावा क्या ही हो सकती है। ये हाल सिर्फ धर्मेंद्र यादव का नहीं है बल्कि पूरी समाजवादी पार्टी ही इस रंग में रंगी हुई है। पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव खुल्लम-खुल्ला मुस्लिमों की पैरोकारी करते नज़र आते हैं। यहां तक कि उन्होंने माफियाओं को भी मठाधीशों से जोड़ दिया था।
अखिलेश यादव पर मुस्लिमों के समर्थन के लिए सोशल मीडिया पर गलत दावे के साथ पोस्ट करने के आरोप भी लगे हैं। लंबे समय से अखिलेश यादव की पार्टी MY यानी मुस्लिम यादव के समीकरण पर चलती रही थी। पिछले कुछ समय में जब राहुल के ‘हिंदू विरोध’ के बाद जब मुस्लिम वोटों का कांग्रेस की और शिफ्ट होने का खतरा बना तो अखिलेश ने भी और अधिक तीव्रता के साथ मुस्लिमों का कथित तुष्टिकरण शुरू कर दिया है, ताकि वो कांग्रेस के मुकाबले ख़ुद को ज्यादा बड़ी मुस्लिम हितैषी साबित कर सकें।
मुस्लिम वोटों की लड़ाई में किसका फायदा?
यही स्थिति देश में ज्यादातर बीजेपी विरोधी पार्टियों की है, उनमें होड़ मची है कि वे खुद को मुस्लिमों को बड़ी हितैषी साबित कर पाएं। वजह मुस्लिमों का वोटिंग पैटर्न है, दरअसल मुस्लिम उसे ही एकसाथ वोट दे रहे हैं जो उन्हें बीजेपी के टक्कर में खड़ी दिखाई देती है। फिर चाहे वो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हों, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल हों या फिर बिहार में तेजस्वी यादव। हालांकि, इससे उल्टा उन्हीं को नुक़सान हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा और यूपी के कुंदरकी के नतीजे इसी का प्रतीक हैं और ये नतीजे बताते हैं कि हिंदुस्तान में वोट जिहाद की राजनीति नहीं चलने वाली, फिर भी कांग्रेस को अपनी सियासी ज़मीन बचाए रखने के लिए शायद और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा।