एडविना संग आंबेडकर की हार का जश्न मना रहे थे नेहरू: संविधान सभा में भी उनका रास्ता रोका, निधन के बाद भी नहीं मिटी घृणा

जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष पद के लिए कोई नाम सुझाने को कहा तो नेहरू ने ब्रिटिश नागरिक आइवर जेनिंग्स का नाम आगे बढ़ाया।

जवाहर लाल नेहरू, डॉ बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर

अंबेडकर के राजनीतिक करियर खत्म करने के लिए कांग्रेस ने अंबेडकर के पूर्व पीए नारायण एस काजरोलकर को वहाँ से उम्मीदवार बना दिया

भारतीय संविधान के अपनाने के 75 साल पूरे होने के अवसर पर संसद के दोनों सदनों में इस पर चर्चा हो रही थी। इसी दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार (17 दिसंबर, 2024) को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के खिलाफ कांग्रेस के तिकड़म को लेकर कटाक्ष किया, लेकिन फेक न्यूज फैलाने में माहिर कांग्रेस ने उनके बयान को तोड़-मरोड़कर देश के सामने पेश कर दिया। शायद कांग्रेस भूल गई है कि कभी उसके नेता नेहरू अपनी मित्र एडविना के साथ अंबेडकर की हार का जश्न मनाते थे।

कांग्रेस ने अमित शाह पर आरोप लगा दिया कि उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर का अपमान कर दिया, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग थी। अमित शाह बार-बार कांग्रेस की अंबेडकर के खिलाफ किए गए षडयंत्रों को पेश कर रहे थे।

संविधान सभा में अंबेडकर को आने से रोकने के लिए कुचक्र

कांग्रेस ने अमित शाह के बयान के आधे-अधूरे क्लिप को चलाकर एक तीर से दो निशान करने की कोशिश की। पहली बात तो उसने डॉक्टर अंबेडकर के प्रति किए गए कांग्रेस के गुनाहों को छुपाने की कोशिश की और दूसरा, आम जनता खासकर दलित वर्ग को यह संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का अपमान कर रहे हैं। हालाँकि, बाद में पीएम मोदी ने कांग्रेस के कुकर्मों की पूरी पोल-पट्टी खोलकर रख थी।

अपने ट्वीट में पीएम मोदी ने कहा, “भारत के लोगों ने बार-बार देखा है कि कैसे एक वंश (गाँधी-नेहरू परिवार) के नेतृत्व वाली एक पार्टी ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की विरासत को मिटाने और एससी/एसटी समुदायों को अपमानित करने के लिए हरसंभव गंदी चाल चली है। डॉक्टर अंबेडकर के प्रति कांग्रेस के पापों की सूची में ये शामिल हैं: उन्हें (अंबेडकर को) एक बार नहीं बल्कि दो बार चुनाव में हराना। पंडित नेहरू द्वारा उनके खिलाफ प्रचार करना और उनकी हार को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाना। उन्हें भारत रत्न देने से इनकार करना। संसद के सेंट्रल हॉल में उनके चित्र को सम्मान का स्थान नहीं देना।”

दरअसल, नेहरू का कुर्सी प्रेम जगजाहिर है। इसके साथ ही अपने विरोधियों को किनारे लगाने की उनकी नीति भी जगजाहिर है। आज़ादी के दौरान पंडित नेहरू के बराबर के कद के नेताओं में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी शामिल थे। नेताजी की संदिग्ध मौत के बाद उनके लिए डॉक्टर अंबेडकर एक बड़ी मुश्किल थे। हालाँकि, वे समय-समय पर दिखाने की कोशिश करते कि वे सबको साथ लेकर चल रहे हैं, लेकिन नेहरू के कारण उनके मंत्रीमंडल से राजगोपालाचारी और डॉक्टर अंबेडकर जैसे नेताओं ने त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद भी नेहरू का अंबेडकर से द्वेष कम नहीं हुआ।

अंबेडकर से घबरा गई थी कांग्रेस, नेहरू के इशारे पर रोका गया रास्ता

दरअसल, दलित समाज के लिए तरह-तरह के सुधार एवं उनकी दशा सुधारने के लिए की जाने वाली हिमायत के कारण अंबेडकर की छवि एक समाज सुधारक की बन गई थी। दलित समाज के लोग उन्हें अपने दूत की तरह मानने लगे थे। अंबेडकर की इस छवि से कांग्रेस घबरा गई और उन्हें नेपथ्य में भेजने की पूरी कोशिश करने लगी। यही कारण था कि आजादी के दौरान जब संविधान सभा का गठन हुआ तो कांग्रेस ने अंबेडकर को संविधान सभा में जाने से रोकने की हर कोशिश की। संविधान सभा में भेजे गए शुरुआती 296 सदस्यों में अंबेडकर नहीं थे। उस समय के बॉम्बे के मुख्यमंत्री बीजी खेर थे। पंडित नेहरू के कहने पर सरदार वल्लभभाई पटेल ने खेर से बात की और यह सुनिश्चित किया कि अंबेडकर 296 सदस्यीय निकाय के लिए न चुने जाएँ। इस कारण अंबेडकर को बॉम्बे के अनुसूचित जाति संघ का साथ भी नहीं मिल पाया।

ये सब कुछ पंडित जवाहरलाल नेहरू के इशारे पर हो रहा था। उस समय अंबेडकर के पास कोई दूसरा चारा नहीं था। इसी दौरान उनकी मदद करने के लिए बंगाल के दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल आगे आए। उन्होंने ‘मुस्लिम लीग’ की मदद से अंबेडकर को संविधान सभा में पहुँचवाया । हालाँकि, उनके सामने एक दूसरी समस्या सुरसा की तरह मुँह बाए खड़ी हो गई। इधर, पंडित नेहरू एक दलित नेता की पराजय को देखकर अंदर ही अंदर प्रफुल्लित हो रहे थे। दरअसल, जिन ज़िलों के वोटों से जीतकर अंबेडकर संविधान सभा में पहुँचे थे, वो पूर्वी पाकिस्तान (अलग होने के बाद आज बांग्लादेश है) का हिस्सा बन गए। हालाँकि, वो जिले हिंदू बहुल थे, लेकिन उन्हें पूर्वी बंगाल में शामिल कर दिया गया था। इसका असर ये हुआ कि अंबेडकर भारत की संविधान सभा का सदस्य ना बनकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए। इसके बाद भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई। उधर, अंबेडकर पाकिस्तान के सदस्य नहीं बनना चाहते थे। इसके बाद जहाँ से अंबेडकर पाकिस्तान संविधान सभा के लिए चुने गए थे, वहाँ दोबारा चुनाव हुआ।

पंडित नेहरू और कांग्रेस की साजिश के बाद एक बार फिर उनकी राजनीतिक नैया डूबती नजर आने लगी। हालाँकि, देश की एक विशाल आबादी में उनका प्रभाव था। वे इस बात को जानते थे और यही बात उनकी शक्ति भी थी। जब पाकिस्तानी क्षेत्र से चुनाव जीतने के बाद उन्हें भारतीय संविधान सभा से बाहर कर दिया गया तो अंबेडकर ने कांग्रेस और पंडित नेहरू को चेतावनी दी।उन्होंने कहा कि वो भारतीय संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे दलित-वंचितों के बीच राजनीतिक मुद्दा बनाएँगे। खुद को फँसता देखकर कांग्रेस और नेहरू ने अपने फैसले पर विचार किया और उन्हें संविधान सभा में शामिल करने का फैसला किया। कहा जाता है कि नेहरू के कहने पर बॉम्बे के सदस्य एमआर जयकर ने संविधान सभा में अपना पद से त्यागपत्र दे दिया और उस जगह से अंबेडकर को शामिल किया गया।

अंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन नहीं बनाना चाहते थे नेहरू

संविधान सभा का चुनाव हो चुका था। अंबेडकर उसके सदस्य बन गए थे। संविधान सभा के चुनावों के 13 महीने बाद 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने संविधान ड्राफ्टिंग कमिटी का गठन किया। इस कमिटी में सात सदस्य थे। जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष पद के लिए कोई नाम सुझाने को कहा तो नेहरू ने ब्रिटिश नागरिक आइवर जेनिंग्स का नाम आगे बढ़ाया।

हालाँकि, महात्मा गाँधी इसके लिए तैयार नहीं हुए। महात्मा गाँधी ने कहा कि जेनिंग्स ब्रिटिश कानूनों के जानकार हैं, जबकि भारतीय कानूनों का जानकार अंबेडकर से बेहतर कोई नहीं है। इस तरह महात्मा गाँधी के हस्तक्षेप के बाद अंबेडकर पहले संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी के सदस्य बने और कानून के सबसे बड़े जानकार होने के नाते कमिटी के अध्यक्ष बने।

नेहरू की वादाखिलाफी से टूट गए अंबेडकर

सितंबर 1946 में संविधान सभा ने एक अंतरिम सरकार बनाई और नेहरू को अपना पहला अध्यक्ष चुना। इस वजह से वह अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने। सरदार पटेल इस सरकार में नंबर दो पर थे और दोनों मिलकर फैसले लेते थे। अंबेडकर के कद को देखते हुए उन्हें कानून मंत्री बनाया गया। अंबेडकर अनुसूचित जातियों को लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से खुश नहीं थे। इसके अलावा मतभेद का एक कारण हिंदू कोड बिल भी था। मतभेद इतना बढ़ा कि अंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया।

दरअसल, हिंदू कोड बिल साल 1947 में सदन में पेश किया गया था। इसमें हिंदू परिवारों को लेकर कुछ कायदे-कानून बनाए जाने थे। जैसे कि किसी परिवार के पुरुष की मृत्यु होने के बाद उसकी संपत्ति में विधवा को, उसके बेटे को और उसकी बेटी को समान अधिकार दिया जाए। इसके साथ ही हिंदू पुरुषों को एक से ज्यादा शादी पर रोक लगाई जाए और महिलाओं को भी तलाक का अधिकार दिया जाए। हालाँकि, पंडित नेहरू इसके पक्ष में नहीं थे।

नेहरू के प्रभाव वाले सदन में उस बिल पर बिना किसी चर्चा के उसे खारिज कर दिया गया। तब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया। उन्होंने कहा था कि यह बिल देश की देश का सबसे बड़ा समाज सुधार होता। हालाँकि, बिल के खारिज होने के बाद अंबेडकर इतने निराश हुए कि उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए।

एडविना को पत्र लिख नेहरू ने मनाया अंबेडकर की हार का जश्न

कांग्रेस में अंबेडकर के प्रति एक गहरी साजिश चलती रही। साल 1952 में देश का पहला आम चुनाव होना था। कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद वे अनुसूचित जातियों को संगठित करने में जुट गए। उन्होंने ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन’ नामक संगठन बनाया। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। हालाँकि, कांग्रेस उन्हें अपने साथ लेने को तैयार नहीं थी। इसके बजाय अंबेडकर के राजनीतिक करियर खत्म करने के लिए कांग्रेस ने अंबेडकर के पूर्व पीए नारायण एस काजरोलकर को वहाँ से उम्मीदवार बना दिया। काजरोलकर पिछड़ी जाति से थे और दूध का कारोबार करते थे। अंबेडकर को तब शेड्यूल्‍ड कास्‍ट फेडरेशन पार्टी से चुनाव लड़ना पड़ा। अंबेडकर के विरोध में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दो बार चुनाव सभाएँ की।

आखिरकार इस चुनाव में अंबेडकर 15 हजार वोटों से हार गए और वे चौथे नंबर पर रहे। पंडित नेहरू ने आरोप लगाया कि अंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे। इसलिए उन्होंने अंबेडकर का विरोध किया। इस चुनाव को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि अंबेडकर के चुनाव हारने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 16 जनवरी 1952 को खुशी जाहिर करते हुए एडविना माउंटबेटन को पत्र लिखा था।

इसके बाद साल 1954 में बंडारा लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ। अंबेडकर ने इस सीट से चुनाव लड़ने की फिर तैयारी की। हालाँकि, इस बार भी कांग्रेस ने उन्हें समर्थन देने के बजाय उनके विरोध में अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। इस बार अंबेडकर 8 हजार वोटों से चुनाव हार गए। लगातार दो बार की अपनी हार से अंबेडकर बेहद निराश हो गए। वे पहले लोकसभा चुनाव में हार के बाद से बीमार रहने लगे थे। इस हार ने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया। कहा जाता है कि उपचुनाव में अपनी जीत को लेकर वे इतने आश्वस्त थे कि संसद में काम निपटाने को लेकर उन्होंने सूची तक बना ली थी। लेकिन इस हार ने उन्हें ऐसा सदमा दिया कि वे काफी बीमार पड़ गए और आखिरकार 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया। इस तरह, पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने तिकड़म में कामयाब रहे और अंबेडकर को अपने रास्ते से हटा दिया।

अंबेडकर के निधन के बाद कांग्रेस और नेहरू का कुचक्र चलता रहा

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर दलितों के पुनर्जागरण के दूत थे। नेहरू और अन्य नेताओं से भले ही उनके मतभेद रहे हों, लेकिन भारत के इतिहास में अंबेडकर के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता। हालांकि, कांग्रेस ने उनके काम को महत्व नहीं दिया। यहाँ तक उनकी मौत 35 साल बीत गए, तब तक उन्हें भारत रत्न नहीं दिया गया। वहीं, पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री रहते हुए सन 1955 में खुद ही भारत रत्न ले लिया था। वही काम उनकी बेटी इंदिरा गाँधी ने किया था। इंदिरा गाँधी ने सन 1971 में खुद को भारत रत्न दिया।

हालाँकि, बाबा साहेब को 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने भारत रत्न दिया। वीपी सिंह की सरकार ने उनके सपने को पूरा करते हुए एससी-एसटी एक्ट और आरक्षण कानून भी लागू किया। जब तक कांग्रेस सत्ता में रही, उन्हें कभी भी सार्वजनिक समारोहों या मंचों से याद नहीं किया। यहाँ तक कि उनकी पहचान को मिटाने के लिए कांग्रेस ने कई काम किए। आज वहीं, कांग्रेस अंबेडकर के अपमान की बात कर रही है।

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