पहले होते थे ‘एक देश, एक चुनाव’, कांग्रेस के एक तानाशाही कदम ने कर दिया सब गुड़-गोबर

समझिए इससे कैसे बचेगा देश का संसाधन, निर्बाध होगा विकास

एक देश, एक चुनाव

जानिए क्यों 'एक देश, एक चुनाव' देश के लिए है फायदेमंद

लोकसभा में मंगलवार, 17 दिसंबर को, संविधान (129वां संशोधन) विधेयक और संघ राज्य क्षेत्र संशोधन विधेयक के जरिए एक साथ चुनाव कराने के लिए विधायी तंत्र स्थापित करने हेतु दो विधेयक पेश किए गए। यह प्रक्रिया गरमागरम बहस के बीच पूरी हुई। दोनों विधेयकों को नई संसद भवन में पहली बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग प्रणाली का उपयोग करके सदन में टेबल किया गया। एक देश एक चुनाव के पक्ष में 269 सांसदों ने मतदान किया, वहीं 198 ने इसके खिलाफ वोट दिया। इसके बाद सदन की कार्यवाही कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई।

एक देश, एक चुनाव

नीति आयोग की रिपोर्ट

‘एक देश एक चुनाव’ विधेयक पेश होने से पहले ही चुनावी रैलियों और सियासत के गलियारे में एक अहम् मुद्दा रहा है। जहां कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल इसे देश का नहीं बल्कि भाजपा का मुद्दा बताते आए हैं वहीं भाजपा के द्वारा इसे भारतीय लोकतंत्र को एक नई दिशा देने के साथ-साथ एक मजबूत और समृद्ध शासन प्रणाली की पहल बताई जा रही है। 2014 से ही भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में इसको लागू करने की बात कही जा रही है।

इसी फेहरिस्त में साल 2017 में थिंक टैंक ऑफ़ इंडियन गवर्नमेंट कहे जाने वाली संस्था नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट जिसका शीर्षक था “ANALYSIS OF SIMULTANEOUS ELECTIONS :THE “WHAT”, “WHY” AND “HOW”. इसमें बताया गया था कि लोकसभा के सामान्य 5 साल के कार्यकाल में कुछ अपवादिक वर्षों को छोड़कर, देश हर साल औसतन लगभग 5-7 राज्य विधानसभाओं के चुनावों में व्यस्त रहा। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से प्रशासन में स्थिरता, विकास योजनाओं पर ध्यान और खर्चों में कमी हो सकती है।

‘एक देश एक चुनाव’ का मतलब क्या

‘एक देश, एक चुनाव’ का अर्थ बहुत व्यापक है, अलग- अलग पार्टियां इसे अलग-अलग नज़रिए से देखती हैं। हालांकि, ‘एक देश एक चुनाव’ का उद्देश्य सामान्यतः यह है कि भारत में लोकसभा, राज्य विधानसभा, पंचायत, और नगरपालिका चुनावों को एक साथ कराना है। इसका मतलब होगा कि देशभर में एक ही समय पर सभी स्तरों के चुनाव संपन्न हों। इस विचार के पीछे दो मुख्य पहलू हैं:

1. चुनाव प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना

भाजपा का कहना है कि वर्तमान प्रणाली, जिसमें विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, वित्तीय और समय की बर्बादी को बढ़ावा देती है। इससे पार्टियां चुनाव जीतने के लिए बड़े-बड़े वादे करती हैं, लेकिन इन्हें पूरा करने का समय नहीं होता क्योंकि वे दूसरे राज्यों में चुनावों की तैयारी में व्यस्त हो जाती हैं।
– मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC): बार-बार चुनावों के कारण MCC लागू होता है, जिससे सरकारें नीतिगत निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती हैं।
– मतदाताओं की परेशानी: बार-बार चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने से मतदाताओं को असुविधा होती है।
– नीतियों का प्रभाव: चुनावी प्रतिबंधों के कारण सरकार की योजनाएं ज़मीन पर नहीं उतर पातीं।

2. चुनाव सूची का एकीकरण

वर्तमान में, अनुच्छेद 243 राज्य चुनाव आयोगों को पंचायत और नगरपालिका चुनावों के लिए स्वतंत्र मतदाता सूची तैयार करने का अधिकार देता है। जबकि लोकसभा और विधानसभाओं के लिए अलग सूची बनाई जाती है। भाजपा का कहना है कि जब एक ही व्यक्ति हर चुनाव में वोट डालता है, तो एकीकृत मतदाता सूची बनाना समय और धन की बचत करेगा।

एक देश एक चुनाव के पक्ष में तर्क

एक देश एक चुनाव के पक्ष में तर्क देते हुए राजनीतिक विशेषज्ञ कई तर्क देते आये हैं जैसे

1. शासन :

राजनीति के धुरंधरों की मानें तो एक साथ चुनाव होने से MCC के कारण जो नीति निर्माण में रुकावटें आती हैं उनसे बच कर एक समृद्ध भारत की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। साथ ही एक तर्क यह भी है कि चुनाव के दौरान स्टाफ की नियुक्तियों में बदलाव से शासन पर असर पड़ता है, जिसके कारण पैसे और समय दोनों की ही बर्बादी होती है। इस समस्या का समाधान एक साथ चुनाव कराकर किया जा सकता है।

2. वित्तीय लाभ :

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, एक साथ चुनाव कराने से सरकार पर होने वाला खर्च भी कम होगा, जिसे बाद में भारत के विकास कार्यों में उपयोग किया जा सकता है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2019 में आम चुनाव के साथ 4 विधानसभा चुनाव आयोजित किए गए थे, जिनमें लगभग ₹10,000 करोड़ का खर्च आया था। वहीं 2024 के आम चुनावों में ही यह राशि बढ़कर ₹1,00,000 करोड़ हो गई है।

Rising Electoral Expenditures

रिपोर्ट के मुताबिक, प्रति मतदाता खर्च (चुनाव पर खर्च/मतदाताओं की संख्या) 2019 में ₹700 प्रति वोट था, जो 2024 में बढ़कर ₹1400 प्रति वोट हो गया है। इस बढ़ते खर्च को देखते हुए, एक साथ चुनाव कराने से खर्च में कमी लाना और पैसे की बचत करना संभव हो सकता है।

3. सामाजिक समरसता :

चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व माना जाता है, लेकिन जब भी चुनाव नज़दीक आते हैं, पार्टियां अपने वोट बैंक को साधने के लिए सांप्रदायिकता और विभाजनकारी राजनीति का सहारा लेती हैं, जिससे चुनावों के दौरान समाज में कड़वाहट और तनाव अपने चर्म पर होता है। ऐसे में, यदि पांच साल में सिर्फ एक बार चुनाव होते हैं, तो संभावनाएं हैं कि इससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिल सकता है और समाज में एकता और सद्भावना को मजबूती मिलेगी।

4. भ्रष्टाचार में कमी:

चुनावों के लिए बार-बार धन इकट्ठा करने की आवश्यकता से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि पार्टियां और उम्मीदवार चुनावी खर्चों को पूरा करने के लिए अनियमित तरीकों का सहारा लेते हैं। इस स्थिति को देखते हुए, अगर चुनाव एक साथ कराए जाएं, तो यह समस्या कम हो सकती है और भ्रष्टाचार में भी कमी आ सकती है।

राज्य की स्वायत्तता और चुनावी स्वतंत्रता पर प्रभाव

‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रस्ताव को जहां केंद्र सरकार और कुछ राजनीतिक दलों से भारी समर्थन मिल रहा है, वहीं इसका विरोध भी जोरशोर से हो रहा है। विरोधियों का कहना है कि इस प्रणाली के लागू होने से राज्यों की स्वायत्तता पर आक्रमण होगा और उनकी राजनीतिक शक्ति में कमी आएगी। विपक्षी दलों का यह भी मानना है कि केंद्र में मजबूत सरकार की स्थिति राज्यों के चुनावों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है, क्योंकि इससे राज्यों में स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो सकते हैं। उनका कहना है कि एक साथ चुनावों की प्रक्रिया राज्यों की राजनीतिक स्वतंत्रता और उनके चुनावी अधिकारों को नुकसान पहुंचा सकती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1947 में देश की आजादी के साथ ही भारत ने संविधान सभा के माध्यम से एक अंतरिम सरकार बनाई, जिसमें डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो कि ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी’ से थे, और श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो हिंदू महासभा से थे, को सरकार की कैबिनेट में शामिल किया गया। 1950 में संविधान लागू होने के बाद, अक्टूबर 1951 से लेकर फरवरी 1952 तक लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हुए। इसके बाद राज्य सभा के चुनाव हुए और उसका पहला सत्र 3 अप्रैल 1952 को शुरू हुआ।

जब लोक सभा और राज्य सभा के चुनाव हो गए, तो राष्ट्रपति का चुनाव भी हुआ। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपना कार्यभार 13 मई 1952 को संभाला। चुनाव प्रक्रिया सही चलने लगी। इस बीच, 1959 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने केरल की कम्युनिस्ट सरकार को तानाशाही ढंग से हटाकर राष्ट्रपति शासन लागू किया, हालांकि, इसे एक अपवाद के रूप में माना जाता है।

एक देश, एक चुनाव

5 साल के चुनाव प्रणाली में असली अंतर आना शुरू हुआ 1967 में जहाँ इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई – कांग्रेस (O) और कांग्रेस (R)। इसके बाद, लोक सभा चुनाव 1972 में होना था, लेकिन इंदिरा गांधी ने चुनावी लाभ के लिए 1971 में ही लोक सभा को भंग करवा कर चुनाव करवा दिए।

इसके बाद, 1976 में चुनाव होने थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान एक एक्ट लागू किया, जिसके तहत लोक सभा और विधान सभा का कार्यकाल छह साल कर दिया गया। इसके बाद 1977 में चुनाव हुए, जिसमें जनता पार्टी ने जीत हासिल की, लेकिन यह सरकार दो साल बाद गिर गई और 1980 में फिर से आम चुनाव हुए और एक बार फिर इंदिरा सत्तारूढ़ हुईं।

1985 में चुनाव होना था, लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद चुनावी फायदे के लिए तय समय से 3 महीने पहले ही चुनाव करा दिया गया और राजीव गाँधी को प्रचंड बहुमत मिला। इसके बाद समय-समय पर कभी मेजॉरिटी की वजह से तो कभी आपदाओं के कारण सरकारें 5 साल की समय सीमा से नहीं चल पाईं।

हालांकि, 1983 में निर्वाचन आयोग ने यह सुझाव दिया कि हमें ‘एक देश, एक चुनाव’ की प्रणाली को फिर से अपनाना चाहिए, लेकिन इसपर कोई एक्शन नहीं लिया गया।

राजनीतिक अस्थिरता के लंबे अंतराल के बाद, 1999 से अब तक सरकारें अपने पांच साल के कार्यकाल को पूरा करने में सक्षम रही हैं। ऐसे में, भाजपा के सत्ता में आने के बाद 2014 से ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर चर्चाएं फिर से तेज हो गईं हैं। भाजपा इस मुद्दे पर सक्रिय रूप से काम कर रही है, और 2 सितंबर 2023 को एक 8 सदस्यीय कमेटी गठित की गई। इस कमेटी की अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने की। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, गुलाम नबी आजाद, एनके सिंह, जनरल सुभाष कश्यप, हरीश साल्वे, और संजय कोठारी जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं।

इनके अलावा, स्पेशल मेम्बर के रूप में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल भी इस कमेटी का हिस्सा हैं। इस कमेटी ने 14 मार्च 2024 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को तीन प्रमुख सुझावों के साथ अपनी रिपोर्ट सौंपी।

निष्कर्ष

‘एक देश, एक चुनाव’ विचार भारत के लोकतांत्रिक और संघीय ढांचे में बड़े बदलाव का प्रतीक है। इसके समर्थन में मजबूत तर्क हैं, जैसे शासन में सुधार, वित्तीय बचत, और समाजिक एकता। हालांकि, इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियां हैं, जैसे संवैधानिक संशोधन, राज्यों और केंद्र के बीच समन्वय, और राजनीतिक सहमति।

यदि यह पहल सफल होती है, तो यह भारतीय लोकतंत्र को एक नई दिशा देने के साथ-साथ एक मजबूत और समृद्ध शासन प्रणाली की ओर ले जा सकती है।

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