उत्तर प्रदेश उप-चुनाव परिणाम के मायने

9 विधानसभा क्षेत्र में अगर छह भाजपा और एक उसकी सहयोगी रालोद जीती, सपा दो पर सिमट गई तो इसका अर्थ क्या है?

यूपी विधानसभा उप-चुनाव में बीजेपी की जीत का विश्लेषण कर रहे हैं अवधेश कुमार

यूपी विधानसभा उप-चुनाव में बीजेपी की जीत का विश्लेषण कर रहे हैं अवधेश कुमार

दैनंदिन घट रही बड़ी घटनाओं के बीच उत्तर प्रदेश उप-चुनाव परिणाम पर देश में ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई है। उत्तर प्रदेश उप-चुनाव का महत्व इसलिए है क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा धक्का उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में ही लगा था। अगर इन राज्यों के परिणाम भाजपा की अपेक्षाओं के अनुरूप आए होते तो वह लोकसभा में अकेले बहुमत का आंकड़ा पार कर जाती । सपा ने अपने जीवन का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया और कांग्रेस भी एक से छह सीट तक पहुंच गई। लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश में हुए इस पहले चुनाव में भाजपा और सपा दोनों के जन समर्थन का परीक्षण होना था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री तथा सपा प्रमुख अखिलेश यादव के वैचारिक वाकद्वंद में भी यह संकेत मिलना था कि किनके वायदों और नारों को आम जनता ज्यादा स्वीकार कर रही है। परिणाम सामने है और इसके आधार पर आप निष्कर्ष निकाल सकते हैं। देशव्यापी उप-चुनावों का एक विश्लेषण यह है कि जहां जिस पार्टी का शासन था वहां उसे सफलता मिली है। यहां एक मौलिक अंतर लोकसभा चुनाव की विभाजक रेखा का है। उप्र उप-चुनाव में परिणाम पलट गया है तो तत्काल इसके इसे इसी रूप में देखना होगा।

9 विधानसभा क्षेत्र में अगर छह भाजपा और एक उसकी सहयोगी रालोद जीती, सपा दो पर सिमट गई तो इसका अर्थ क्या है? पिछले विधानसभा चुनाव में इनमें सपा ने चार जीती थी और उसकी सहयोगी रालोद एक। इस तरह उसके पास पांच विधानसभा सीटें थीं। इस बार उसकी उम्मीदें ज्यादा सीटें जीतने की थी। मुरादाबाद की कुंदरकी विधानसभा में 60% से ज्यादा मुसलमान हैं। 31 वर्ष बाद वहां भाजपा की विजय वर्तमान परिस्थितियों में असाधारण है। इसी तरह अंबेडकरनगर की कटेहरी सीट है। यहां 33 वर्ष बाद भाजपा जीती। देश भर के नामी मुस्लिम चेहरे, संगठन, संस्थाएं जिन दो लोगों को मुसलमान और इस्लाम का दुश्मन साबित कर रहे हैं, वे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं योगी आदित्यनाथ। वहां कुंदरकी में मुसलमान टीवी कैमरे पर आकर कह रहे थे कि हम भाजपा के उम्मीदवार को वोट देंगे तो सहसा सपा या INDI गठबंधन घटकों या उनके समर्थकों के लिए विश्वास करना मुश्किल था। भाजपा ने गाजियाबाद, फूलपुर, खैर और मझवां भी जीती तो सहयोगी रालोद मीरापुर फिर से जीत गई। प्रश्न है कि अखिलेश यादव जी का पीडीए या पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समीकरण कहां गया? करहल और सीसामऊ में उसे जीत मिली। लेकिन करहल यादव परिवार का गढ़ माना जाता है और वहां भी सपा को केवल 14 हजार वोटो से विजय मिली जबकि तेज प्रताप यादव को परिवार का चेहरा बनाकर उतारा गया और अनुजेश प्रताप को बली का बकरा कहा गया। पांच स्थानों पर भाजपा की विजय बड़े अंतर से हुई। दूसरी ओर करहल के अलावा सीसामऊ में सपा प्रत्याशी नसीम सोलंकी ने भाजपा के सुरेश अवस्थी को केवल 8,564 मतों से हराया। तो इसे प्रदेश के मतदाताओं की सोच और व्यवहार में लोकसभा चुनाव के विपरीत आए परिवर्तन का द्योतक क्यों न माना जाए? ऐसा परिणाम क्यों आया?

लोकसभा चुनाव के बाद योगी आदित्यनाथ की विदाई और 2027 में भाजपा सरकार की पराजय की घोषणा करने वाले अखिलेश जी और उनकी पार्टी ने चुनाव परिणाम को सत्ता के भयानक दुरुपयोग और धांधली की परिणति बताया है। मतदान के दिन सपा ने ऐसे वीडियो जारी किए जिनसे लगता था कि पुलिस प्रशासन मुस्लिम मतदाताओं को मतदान करने से रोक रही है, धमका रही है, कानूनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए भाजपा के लिए काम कर रही है। अखिलेश जी ने पत्रकार वार्ता की और इसका संज्ञान चुनाव आयोग ने लेकर सात पुलिस कर्मियों को निलंबित और ड्यूटी मुक्त कर दिया। आरोपों को अभी तक साबित नहीं किया जा सका। पुलिस पर पत्थरबाजी के दृश्य भी लोगों ने देखे और पुरुष व महिला मतदाताओं से बहस भी सुनी। जब भी चुनाव में हिंसा की संभावना दिखती है या होती है तो पुलिस प्रशासन सख्त व्यवहार करता है क्योंकि उसका दायित्व कानून और व्यवस्था बनाए रख चुनाव के शांतिपूर्ण संचालन की है। कार्रवाई के शिकार पुलिस वालों को लेकर प्रशासन ने निर्धारित मापदंडों के अनुरूप भूमिका निभाने की बात कही। बावजूद सपा को समस्या है तो उसे चुनाव आयोग के अलावा न्यायालय में अवश्य जाना चाहिए। उम्मीदवार या पार्टी के पक्ष में बहुमत मतदाता हो तो पुलिस प्रशासन उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं कर सकता। डिजिटल जमाने में सबके पास मोबाइल है और कोई घटना छिप नहीं सकती। इसीलिए लगातार सपा के आरोपों और हमलों का सामना करने वाली पुलिस कहीं उनके विरुद्ध हो तब भी ऐसा एकपक्षीय परिणाम बगैर मतदाताओं के समर्थन के संभव नहीं।

उप-चुनाव में विजय के बाद उत्तर प्रदेश की एक तस्वीर प्रिंट मीडिया के मुख्य पृष्ठ पर स्थान पाईं जिसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दाएं और बाएं उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक तथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी खड़े हैं, केशव प्रसाद मौर्य मुख्यमंत्री को मिठाई खिला रहे हैं। यह तस्वीर भी प्रदेश की राजनीति को लेकर काफी कुछ संदेश दे रही थी। इस तस्वीर का अर्थ है कि प्रदेश का शीर्ष नेतृत्व एकजुट अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहा था। लोकसभा चुनाव की तरह संघ परिवार के अंदर असमंजस भी नहीं था। लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद कुछ समय तक मुख्यमंत्री अवश्य थोड़े दबाव में दिखे किंतु उनका तेवर लौटा और उन्होंने उप-चुनाव की घोषणा के पहले ही धुआंधार प्रचार आरंभ किया। आगरा में उन्होंने बांग्लादेश के हिंदुओं की दुर्दशा की ओर ध्यान दिलाते हुए बटेंगे तो कटेंगे की बात की और चूंकि धरातल पर वातावरण था इसलिए लोगों तक इसकी भावना पहुंची। प्रधानमंत्री ने बटेंगे तो दुश्मन महफिल सजाएंगे और फिर एक रहेंगे तो नेक रहेंगे का नारा दिया और यह दो विधानसभा चुनाव से लेकर उत्तर प्रदेश उप-चुनाव वाले क्षेत्रों में ही नहीं ,चारों ओर फैल गया। गांव में बच्चे ये नारे लगाने लगे। सपा ने मुस्लिम मत पाने के लिए कट्टरपंथी मजहबी उलेमाओं, मौलवियों, मुस्लिम नेताओं को परश्रय दिया तथा अपने मुस्लिम नेताओं पर जघन्य अपराधों को आरोपों पर भी कार्रवाई नहीं की। सिर तन से जुदा के नारे लगाती भीड़ सड़कों पर आई तो लेबनान के नजीबुल्लाह की मृत्यु के बाद हम सब नजीबुल्लाह का भी डरावना प्रदर्शन देखा गया। भाजपा और संघ को छोड़कर किसी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। अयोध्या में मुस्लिम सपा नेता पर नाबालिग दलित लड़की से बलात्कार का आरोप लगा तो पूरी सपा उसके साथ खड़ी दिखी। अगर पार्टी उसको निर्दोष मानती थी तब भी बरी होने तक उनको प्राथमिक सदस्यता से निलंबित किया जा सकता था। ऐसा न करने का अर्थ था कि पार्टी केवल मुस्लिम वोटो के लिए ऐसा कर रही है। इसके विपरीत योगी सरकार ने घटना सामने आने के बाद तुरंत गिरफ्तारी और सारी आलोचना झेलते उसके साम्राज्य को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया। पहले फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद को अयोध्या का राजा बताना तथा संसद में उन्हें आगे बिठाकर भाजपा को चिढ़ाना, अयोध्या के राममंदिर में दर्शन करने किसी भी प्रमुख सपा नेता का नहीं जाना आदि ऐसी घटनाएं थी जिन्हें मुख्यमंत्री और पूरी पार्टी ने उठाया। इस तरह फिर से कार्यकर्ताओं, समर्थकों काफी संख्या में अन्य गैर मुस्लिम भाजपा विरोधियों के बीच भी संदेश गया कि जो भी स्थिति हो वैसी पार्टी को मत देना है जो हिंदुओं की समस्याओं के साथ खुलकर खड़ा हो तथा कट्टरपंथ का विरोध करें। योगी आदित्यनाथ सरकार का रिकॉर्ड इस मामले में आजादी के बाद श्रेष्ठतम है।

ध्यान रखिए, इन उप-चुनावों को भाजपा ने प्रखर हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा, योगी आदित्यनाथ ने स्वयं मथुरा और काशी के पुनरुद्धार की खुलकर बात की, वक्फ संशोधन का समर्थन किया। इस आधार पर चुनाव परिणाम को देखें तो तत्काल निष्कर्ष यही है कि सपा की 2014, 2017, 2019 और 2022 की लगातार पराजय का दौर जारी है। 2024 प्रदेश सरकार और संगठन द्वारा कार्यकर्ताओं व प्रतिबद्ध समर्थकों की उपेक्षा तथा पुलिस प्रशासन द्वारा उनके साथ सही व्यवहार न किए जाने से उत्पन्न उदासीनता या विरोध की परिणति थी जिसका लगभग अंत हो गया है। यानी 2014 और 2017 में उत्तर प्रदेश जिस पैराडाइज शिफ्ट की ओर बढ़ा, उसके सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया जारी है। कारण हिंदुओं के अंदर लंबे समय बाद अपनी अस्मिता, सभ्यता और संस्कृति को लेकर हुए पुनर्जागरण हुआ या योगी आदित्यनाथ सरकार और भाजपा ने कार्यों और वक्तव्यों से बल प्रदान किया है। आगे राजनीतिक भूल नहीं हुई तथा स्थानीय नेताओं- कार्यकर्ताओं प्रतिबद्ध समर्थकों की भावनाओं का सरकार और संगठन ने ध्यान रखा तो प्रदेश में किसी भी विपक्ष के लिए लंबे समय तक सत्ता में आने की गुंजाइश नहीं रहेगी। सपा इस सच्चाई को समझ कर उसके अनुसार अपनी रणनीति बनाए तथा वैसे चेहरों को आगे लाए जो इसे समझ कर बोलें व काम करें तभी उसकी पुनर्वापसी संभव होगी। सपा ही नहीं संपूर्ण INDI गठबंधन कट्टर मुस्लिम मजहबवाद को समर्थन देकर या मौन रहकर प्रोत्साहित कर रही है उसे उदार मुस्लिम समाज भी पसंद नहीं कर रहा।

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