कुछ लोग 6 दिसंबर 1992 की तारीख बार-बार याद दिलाते हुए कहते हैं कि न भूले हैं और न भूलने देंगे। ये लोग अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी को भी 6 दिसंबर के बारे में बताने की बात करते हैं। लेकिन फिर सवाल यह है कि बार-बार 6 दिसंबर, 1992 की बात करने वाले लोग इसके ठीक अगले दिन की बात क्यों नहीं करते? 7 और 8 दिसंबर को जो हुआ आखिर उसकी चर्चा क्यों नहीं होती? इस्लामिक भीड़ ने एक साथ 30 से अधिक मंदिरों को तोड़ दिया था उसकी बात क्यों नहीं करते?
7 और 8 दिसंबर 1992 को पाकिस्तान में इस्लामिक भीड़ हिंदुओं और उनके मंदिरों को निशाना बना रही थी। जहां पर भी हिंदू और उनके मंदिर दिख रहे थे, वहां उन पर हमले किए जा रहे थे और एक साथ न कवल 30 मंदिरों पर हमले हुए बल्कि उन्हें ध्वस्त कर दिया गया। पूरे पाकिस्तान में जब मंदिरों पर हमले हो रहे थे, तब वहां की सरकार छुट्टियां मना रही थी। बाबरी ढांचे के विध्वंस के विरोध में पाकिस्तान में शोक दिवस मनाया जा रहा था सारे दफ्तर और स्कूल-कॉलेज बंद पड़े हुए थे। अगर कोई बाहर था तो सिर्फ और मुस्लिम भीड़, जो पूरे पाकिस्तान में हिन्दू मंदिरों को निशाना बना रही थी। तब पाकिस्तान में करीब 5 लाख हिन्दू थे, कुल जनसंख्या का मात्र 2%।
इस्लामाबाद से लेकर कराची तक हिंदुओं के लिए एक-एक क्षण भयावह था। लाहौर में स्थिति सबसे ज्यादा डरावनी थी। वहां हजारों की संख्या में मुस्लिम भीड़ बुलडोजर लेकर निकली थी और इस भीड़ का एक ही उद्देश्य था, जहाँ भी मंदिर दिखे, उसे ध्वस्त कर दो। लाहौर में 6 मंदिरों को आगे के हवाले कर के उन्हें ख़ाक में मिला दिया गया। अफ़सोस ये कि विरोध तो दूर की बात, आज इस पर बात तक नहीं होती।
पूरी भीड़ ‘भारत को कुचल दो’ और ‘हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ जैसे नारे लगा रही थी। बाबरी ढांचे को तोड़ने का बदला लेने के लिए भीड़ हर से मुस्लिमों को बाहर निकलने के लिए भड़का रही थी। पाकिस्तान में ये सब पहले भी हो रहा था, लेकिन एक घटना के बहाने हिंदुओं और उनके मंदिरों को पूरी ऊर्जा के साथ खत्म करने का बहाना मिल गया था।
इस्लामी भीड़ में शामिल हर एक व्यक्ति के मुंह में सिर्फ ‘बाबरी का बदला’ लेने की फितरत सवार थी। लेकिन किसी ने भी यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि रामलला की जन्मभूमि अयोध्या में आखिर बाबरी ढांचे को किस तरह से बनाया गया था और ना ही यह जानने की कोशिश हुई कि बाबरी ढांचे को बनाने के लिए कितने लोगों का खून बहाया गया था। 16वीं शताब्दी से पहले के इतिहास से किसी को कोई मतलब नहीं था। मतलब था तो सिर्फ हिंदू मंदिरों को तोड़ने से।
इस्लामाबाद में छात्र भी पीछे नहीं थे। कायदे आजम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने भारतीय दूतावास के सामने विरोध प्रदर्शन किया और तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पुतले फूंक दिए। इस्लामवादी युवाओं की भीड़ का कहना था कि इस समस्या का सिर्फ एक ही समाधान है और वह है ‘हिन्दुओं के खिलाफ जिहाद’। जिस मुल्क में 97% मुस्लिम हैं, जिसका आधिकारिक मजहब ही इस्लाम है और जिसका बंटवारा ही इस्लाम के नाम पर हुआ था, वहां ये सब हो रहा था। लेकिन इसके बाद भी बाबरी का रोना रोने वालों के मुंह से इस पर कुछ नहीं निकलता।
हिंदू मंदिरों पर इस्लामिक भीड़ के आतंक को लेकर अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा था: “आज प्रदर्शनकारियों ने कराची में 5 मंदिरों पर हमले किए, पत्थरबाजी की और दक्षिणी सिंध प्रान्त में 25 मंदिरों को आग के हवाले कर दिया।”
दक्षिणी सिंध प्रान्त वह क्षेत्र है, जहां पाकिस्तान के 90% से भी अधिक हिन्दू रहते हैं लेकिन वे वहां भी सुरक्षित नहीं थे। ऐसा नहीं है कि यह सब सिर्फ पाकिस्तान में ही हुआ था। इस दौरान भारत में भी किस तरह से दंगे हुएऔर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया, यह किसी से छिपा नहीं है। बांगलादेश में भी हिंदू और उनके मंदिरों को निशाना बनाया गया था।
आज जरूरत है कि जब हमें बाबरी की याद दिलाई जाती है, तो हम भी उन्हें प्राचीन काल में अवैध रूप से क्रूरता कर के ध्वस्त किए गए 30,000 से अधिक मंदिरों की याद दिलाएं और बाबरी विध्वंस के अगले ही दिन किस तरह से पाकिस्तान में 30 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया, वो याद दिलाएं। वो 30 प्राचीन मंदिर, जिनकी जगह आज कहीं कूड़ा-करकट फेंका जाता है तो कुछ को शौचालय बना दिया गया और कुछ का तो नाम-ओ-निशान ही मिट गया है इन मंदिरों की भी बाबरी का रोना रोने वालों का याद दिलाएं।
अब सवाल तो यह है कि अपने बच्चों को तथाकथित अन्याय की याद दिलाने का दावा करने वाले लोग अपने पूर्वजों की करतूतों के बारे में अगली पीढ़ी को बताएंगे या नहीं? या फिर वही वामपंथी इतिहासकारों के माध्यम से पढ़ाया जाता रहेगा कि अकबर महान था और अयोध्या…बाबरी की वजह से ही पूरी दुनिया में विख्यात थी? और सवाल यह भी कि क्या ये लोग यह बताएंगे कि मुग़ल कहां से आए थे? बाबर का जन्म कहां हुआ था? और तैमूर व चंगेज खान के वंशजों से उनका क्या रिश्ता है?