बुर्के के पैरवीकार दुष्यंत दवे क्यों रोए? PM मोदी को ‘फ्रिंज’ से जोड़ते हैं, OBC का आरक्षण काट मुस्लिमों को देने की वकालत भी

संभल जैसे मामलों में दवे जैसे लोगों का तर्क शुरू ही 'प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट' 1991 से होता है। उनके हिसाब से ये संविधान की मूल भावनाओं की रक्षा करने वाला एक कानून है। इस तर्क में ये नहीं बताया गया है कि कानून ऊपर होता है या न्याय?

करण थापर, दुष्यंत दवे, रोए

'खुला पत्र' लिख कर चर्चा बटोरते रहे हैं दुष्यंत दवे

सबसे पहली बात तो ये है कि दुष्यंत दवे इकलौते नहीं जो रो रहे हैं। लम्बे समय से अटके पड़े कई मामलों में जैसे जैसे तारीखें पड़नी शुरू हो रही हैं, या फैसले आ रहे हैं, अदालतों के भाई-भतीजा गिरोहों की ऐसी ही रुलाई छूट रही है। संभल जैसे मामलों में तो ये स्पष्ट ही था कि जो स्थल पहले से ASI द्वारा संरक्षित स्थल है वो ‘प्लेसेस ऑफ वोर्शिप एक्ट’ नाम से भारत पर थोप दिए गए 1991 के कानून के दायरे में आता ही नहीं। असल में दवे जैसे वकीलों की दुकानें ही इसलिए चलती रही हैं क्योंकि भाई-भतीजा गिरोह शायद ये सेटिंग कर पाता था कि कौन सा मुकदमा किस जज के पास जाएगा। फिर जब भाई-भतीजे ही न्यायाधीश और वकील हैं, तो फैसला किस पक्ष में आना है ये सुनवाई से पहले ही तय हो जाता था। संपत्ति रखने के अधिकार से जुड़े एक ऐतिहासिक फैसले में अपने रिटायर होने से दो दिन पहले जस्टिस चंद्रचूड़ ने ये भी दर्शा दिया था कि कभी फैसले राजनैतिक विचारधारा (समाजवाद) को भी ध्यान में रखते हुए सुनाये जाते थे। जो समाजवादी नहीं होता, वो फैसला ही नहीं होता!

पिछले वर्ष जब जस्टिस चंद्रचूड़ ने ये तरीका बदलना शुरू किया, यानि कौन से मामले की सुनवाई कौन सा बेंच करेगा, ये बदला जाने लगा तो नवम्बर 2023 में ही दवे ने चीफ जस्टिस को एक ‘खुला पत्र’ लिखा। जाहिर है, उनकी मंशा न्यायिक सुधारों, बदलावों को रोकने की तो थी ही, साथ ही उन्हें इससे प्रसिद्धि भी चाहिए थी। और लोगों को भी पता चले, उनके पक्ष में जनमत आये, ये मंशा नहीं होती, तो ‘खुला पत्र’ लिखने की क्या जरूरत थी, एक ईमेल ही पर्याप्त होता! चार दशकों से अधिक (1978 से) सुप्रीम कोर्ट में काम कर रहे किसी वकील को मुख्य न्यायाधीश द्वारा ये तय किये जाने में कि कौन सा बेंच कौन सा मामला सुनेगी, इसमें परेशानी क्यों होती? बात सिर्फ यहीं समाप्त नहीं होती। UPA के दौर में मलाईदार पदों को संभालने वाले दवे, जो कि 2004 से 2008 तक नेशनल लीगल सर्विस कमीशन के सदस्य भी रहे हैं, वो इकलौते नहीं हैं, जिन्हें दिक्कत हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय जुडिशल कांफ्रेंस में जब जस्टिस अरुण मिश्रा ने प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा कर दी थी, दवे ने तभी से भारतीय न्यायपालिका से निष्पक्षता की उम्मीद छोड़ दी थी।

संभल जैसे मामलों में दवे जैसे लोगों का तर्क शुरू ही ‘प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट’ 1991 से होता है। उनके हिसाब से ये संविधान की मूल भावनाओं की रक्षा करने वाला एक कानून है। इस तर्क में ये नहीं बताया गया है कि कानून ऊपर होता है या न्याय? अगर कोई कानून किसी समुदाय को न्याय देने से ही रोक रहा हो, तो उस कानून का क्या किया जाना चाहिए? दवे जोर-शोर से इस एक्ट के सेक्शन 3 की याद दिलाते हुए कहते हैं कि जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में 15 अगस्त 1947 को था, उसी स्थिति में रखा जाए। अपनी सुविधा को याद रखते हुए वो ये बताना भूल जाते हैं कि जो एएसआई द्वारा संरक्षित ईमारतें हैं, वो इसके दायरे से बाहर रखी गयी हैं। अगर अतीत की नाइन्साफियों की वजह से वर्तमान को दण्डित नहीं किया जा सकता तो फिर हिन्दुओं को अतीत में तलवार के जोर पर उनके साथ किये अत्याचार का दंड आज भी क्यों भुगतना पड़े? कानून को संवैधानिक बताते हुए वो ये भी भूल जाते हैं कि इसका खामियाजा केवल बहुसंख्यक समुदाय को झेलना पड़ रहा है जिससे कभी भी बांग्लादेश जैसी विस्फोटक स्थिति बन सकती है।

अप्रैल 2023 में दुष्यंत दवे ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा था। उस समय भी वो लिख रहे थे कि ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’ और पुलिस मिलीभगत करके काम करते हैं और अल्पसंख्यक समुदायों को इससे बड़ी दिक्कत हो रही है। इस विषय पर न्यायालय भी मौन हैं ये गंभीर चिंता का विषय है। वो अपनी चिट्ठी में प्रधानमंत्री को सितम्बर 2019 में 74वें यूएन जनरल असेंबली में दिए भाषण की याद दिला रहे थे। इसके अलावा वो हिजाब को मुस्लिम लड़कियों का अधिकार बताते हुए मुकदमा लड़ चुके हैं। कर्णाटक में मुहम्मडेन लोगों को ओबीसी कोटे में से आरक्षण मिल सके इसके लिए भी मुकदमा दुष्यंत दवे लड़ रहे थे। कभी-कभी जो पिछड़े-दलित समुदायों के लोग आरक्षण छिन जाने का डर दिखाते हैं, उनके लिए ज्यादा डरावना भाजपा का होना है या उनका आरक्षण खुद को जातिहीन और बराबरी का समाज बताने वाले मुहम्मडेनों को ओबीसी के हिस्से का आरक्षण दिलवाने की कोशिश करने वाले दुष्यंत दवे जैसे लोग, ये कभी न कभी तो तय करना होगा।

असहिष्णुता का जुमला ही तथाकथित प्रगतिशील गिरोहों ने हिन्दुओं को ‘गिल्ट ट्रिप’ पर भेजने के लिए किया था। उसके लिए 26/11 मुंबई हमलों के तुरंत बाद दिग्विजय सिंह और आतंकियों के लिए रेकी करने वालों की मदद करने वाले के पता महेश भट्ट ने हिन्दुओं को ही इस हमले का दोषी बताते हुए किताबें जारी की थीं। आंसुओं के जरिये ब्लैकमेल करने की कोशिश सिर्फ एक नया तरीका है। जो पहले हो रहा था, वो पुराने तरीके से नहीं हो पा रहा तो दुष्यंत दवे ने आंसुओं को ढाल बनाया है। जनता बस अड़ गयी है कि “पिघलना नहीं है”, और भाई-भतीजा गिरोह की सारी समस्या इसी से है।

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