आज (16 जनवरी 2025) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991(Places Of Worship Act 1991) की वैधता को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। कांग्रेस का कहना है कि यह अधिनियम स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय राष्ट्रीयता के साथ जुड़ी धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है, और यह भारतीय जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
लेकिन क्या यह सच में समाज के बहुसंख्यक वर्ग की इच्छाओं को सम्मानित करता है, या यह केवल कांग्रेस की छिपी हुई राजनीति का हिस्सा है, जो हमेशा हिंदू आस्थाओं को नज़रअंदाज़ कर एक खास वर्ग को तुष्ट करने का प्रयास करती है? कांग्रेस पर बार-बार यह आरोप लगे हैं कि वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम वोटबैंक साधने की कोशिश करते हैं, और यही बात सुषमा स्वराज ने 1996 में लोकसभा में अपने भाषण के दौरान भी उजागर की थी। उन्होंने तब साफ तौर पर कहा था कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता असल में तुष्टिकरण की राजनीति है, जो किसी भी असली समानता और राष्ट्रीयता के सिद्धांत के खिलाफ है।
यह सवाल केवल एक कानूनी मसले का नहीं है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक पहचान और समाज के बहुसंख्यक वर्ग के अधिकारों का है। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि आस्था और परंपरा को नजरअंदाज करना उनकी खोखली राजनीति को और ज्यादा उजागर करता है। कांग्रेस का यह कदम फिर से यह सवाल खड़ा करता है: क्या वे सच में देश की विविधता और आस्था का सम्मान करते हैं, या यह सिर्फ तुष्टिकरण की राजनीति का हिस्सा है, जो हिंदू समाज को हमेशा उपेक्षित करने की कोशिश करती है?
कांग्रेस की दलील
कांग्रेस के सीनियर नेता केसी वेणुगोपाल ने आज सुप्रीम कोर्ट में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट (1991) की वैधता को लेकर याचिका दायर की है, जिसमें उन्होंने इस कानून का समर्थन किया है। वेणुगोपाल का कहना है कि यह कानून भारत में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए आवश्यक है और इसे भारतीय जनता के सामूहिक हित में लागू किया गया है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अहम सुनवाई 17 जनवरी को होनी है, जिसके पहले कांग्रेस ने यह याचिका दायर की है।
कांग्रेस का दावा है कि यह कानून भारत में धर्मनिरपेक्षता की भावना को सुरक्षित रखने के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इस कानून के खिलाफ दायर याचिकाएं यह कहती हैं कि यह हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदायों को उन धार्मिक स्थलों पर अपना हक जताने से रोकता है, जहां पहले जबरन मस्ज़िदें, दरगाह या चर्च बनाए गए थे। इन याचिकाओं का मानना है कि इस कानून से उनकी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि वे अपने पवित्र स्थलों पर न्याय पाने के अधिकार से वंचित हैं।
इस मामले में जमीयत उलेमा का पक्ष है कि पूजा स्थल कानून को प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए ताकि धार्मिक विवादों को जल्द सुलझाया जा सके। उन्होंने भी सुप्रीम कोर्ट से इस मुद्दे पर त्वरित सुनवाई की मांग की थी, ताकि देशभर में धार्मिक स्थलों को लेकर जो विवाद हो रहे हैं, उनका समाधान निकाला जा सके।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट: कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता या हिंदू आस्थाओं का खिलवाड़?
1991 में जब भारत में धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद गहरे होने लगे थे, कांग्रेस सरकार ने एक ऐसा कानून पारित किया जिसे प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के नाम से जाना जाता है। इस कानून के तहत यह कहा गया कि देश में किसी भी धार्मिक स्थल की स्थिति 15 अगस्त 1947 के दिन जैसी थी, वैसी ही बनी रहेगी। इस कानून का मुख्य उद्देश्य धार्मिक विवादों से बचना था, खासकर मथुरा और काशी जैसे प्रमुख धार्मिक स्थलों पर।
लेकिन इस कानून को लेकर सवाल उठते हैं। विरोधी दलों का कहना है कि यह कानून हिंदू समुदाय को अपने पवित्र स्थलों पर अपना अधिकार जताने से रोकता है, जिन पर जबरन मस्ज़िदों, चर्चों या अन्य पूजा स्थलों का निर्माण किया गया। कांग्रेस इसे धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का कदम मानती है, लेकिन भाजपा और अन्य विपक्षी दल इसे तुष्टिकरण की राजनीति के रूप में देखते हैं।
1996 में सुषमा स्वराज ने कांग्रेस की इस तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का संसद में विरोध करते हुए खुलकर चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था, “कांग्रेस अपनी राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करती है, जबकि असल में वह सिर्फ अपने वोटबैंक को खुश करने के लिए हिंदू आस्थाओं का अपमान करती है।” उनका कहना था कि असली धर्मनिरपेक्षता तब होती है जब हर व्यक्ति अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करता है।
कांग्रेस का यह कदम फिर से यह सवाल खड़ा करता है कि क्या यह वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का कदम है, या सिर्फ मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति का एक और प्रयास? देश के बहुसंख्यक समाज की आस्थाओं और परंपराओं को नजरअंदाज कर, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस तरह के कदम उठाना, क्या कांग्रेस की असली मंशा को नहीं उजागर करता?