दिलीप मंडल ने फातिमा शेख के ज़रिए दोहरा दिया ‘सोकल होक्स’?

सोकल ने अकादमिक पत्रिका 'सोशल टेक्स्ट' में एक लेख दिया था जो पत्रिका और वामपंथी संपादकों की बौद्धिक क्षमता का परीक्षण करने के लिए एक प्रयोग था

सोकल ने 'Transgressing the Boundaries: Towards a Transformative Hermeneutics of Quantum Gravity' नाम से यह लेख लिखा था

सोकल ने 'Transgressing the Boundaries: Towards a Transformative Hermeneutics of Quantum Gravity' नाम से यह लेख लिखा था

सोशल मीडिया से लेकर पेड मीडिया तक एक नयी बहस छिड़ी हुई है। एक विख्यात दलित चिंतक माने जाने वाले पूर्व संपादक दिलीप मंडल ने दावा ठोक दिया है कि फातिमा शेख कोई थी ही नहीं। उनका कहना है कि फातिमा शेख एक फर्जी चरित्र थी, जिसे उसने गढ़ा था। इस दावे को सिद्ध करने के लिए उन्होंने सीधा चुनौती दे डाली कि उनके ही पोस्ट जो सोशल मीडिया पर 2006 से आने शुरू हुए, उन्हें छोड़कर फातिमा शेख का कोई पूर्व का विवरण किसी पुस्तक में कहीं, कोई नहीं दिखा सकता। तथाकथित फैक्ट चेकर्स से लेकर राजनीतिक पार्टियों के छुटभैये नेताओं तक में इस खुलासे से हलचल मच गयी।

एड़ी-चोटी का जोर लगाया गया, लेकिन अभी तक फुले द्वारा एक बार फातिमा का जिक्र करने के अलावा कोई प्रमाण नहीं मिला। जहाँ फातिमा लिखा भी है, वहाँ ज्योतिबा फुले ने पूरा नाम नहीं लिखा, शिक्षा देने में मदद करती थीं या शिक्षिका थीं, ऐसा नहीं लिखा। जो जिक्र है उससे फातिमा घरेलू काम-काज में मदद करने वाली कोई लगती है। फुले परिवार अपने समय के सबसे बड़े ठेकेदारों में से था, जिन्होंने कई पुलों-भवनों का निर्माण किया। उनके परिवार में घरेलू नौकर चाकरों की कमी तो नहीं ही होगी।

यह मामला सीधे-सीधे 1996 में हुए सोकल एक्सपेरिमेंट या सोकल होक्स के नाम से जानी जानेवाली एक घटना की याद ताजा कर देता है। इस घटना में हुआ क्या था? एलन सोकल भौतिकी के प्रोफेसर थे। सोकल ने 1996 में सांस्कृतिक अध्ययनों की एक अकादमिक पत्रिका ‘सोशल टेक्स्ट’ को एक लेख प्रस्तुत किया। यह लेख असल में पत्रिका और वामपंथी संपादकों की बौद्धिक क्षमता का परीक्षण करने के लिए एक प्रयोग था, विशेष रूप से यह जांचने के लिए कि क्या “सांस्कृतिक अध्ययनों की एक अग्रणी उत्तरी अमेरिकी पत्रिका- जिसके संपादकीय समूह में फ्रेडरिक जेम्सन और एंड्रयू रॉस जैसे दिग्गज शामिल हैं वो बकवास से भरपूर एक लेख प्रकाशित करेगी यदि ‘यह अच्छा लगे’ और ‘संपादकों की वैचारिक पूर्वधारणाओं की चापलूसी करे’।”

यह लेख था (Transgressing the Boundaries: Towards a Transformative Hermeneutics of Quantum Gravity) ‘सीमाओं का उल्लंघन: क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के एक परिवर्तनकारी व्याख्याशास्त्र की ओर’, पत्रिका के वसंत/ग्रीष्म 1996 ‘साइंस वार्स’ अंक में प्रकाशित हुआ था। इसने प्रस्तावित किया कि क्वांटम गुरुत्वाकर्षण एक सामाजिक और भाषाई निर्माण है, यानि सोशल एंड लिंगविस्टिक कंस्ट्रक्ट है। उस समय पत्रिका ने अकादमिक पीयर रिव्यु नहीं किया, इसलिए इसकी भौतिक विज्ञान के लोगों द्वारा बाहरी विशेषज्ञ समीक्षा हुई ही नहीं है।

मई 1996 में इसके प्रकाशन के तीन सप्ताह बाद, सोकल ने पत्रिका ‘लिंगुआ फ़्रैंका’ में खुलासा किया कि लेख एक धोखा था। इस धोखाधड़ी ने मानविकी के क्षेत्र में भौतिक विज्ञान पर टिप्पणी की विद्वत्तापूर्ण योग्यता के बारे में विवाद पैदा कर दिया; सामान्य रूप से सामाजिक विषयों पर उत्तर आधुनिक यानि पोस्ट-मॉडर्निज्म का प्रभाव; और शैक्षणिक नैतिकता, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या सोकल ने सोशल टेक्स्ट के संपादकों या पाठकों को धोखा देकर गलत किया था; और क्या सोशल टेक्स्ट ने उचित वैज्ञानिक नैतिकता का पालन किया था। 2008 में, सोकल ने बियॉन्ड द होक्स प्रकाशित किया, जिसमें धोखाधड़ी के इतिहास पर फिर से विचार किया गया और इसके स्थायी प्रभावों पर चर्चा की गई।

सोकल ने बाद में बताया कि ‘हायर सुपरस्टीशन’ (1994) पढ़ने के बाद फर्जी लेख प्रस्तुत करने की प्रेरणा मिली। ‘हायर सुपरस्टीशन’ में लेखक पॉल आर. ग्रॉस और नॉर्मन लेविट का दावा है कि कुछ ह्युमेनेटीज की पत्रिकाएँ तब तक कुछ भी प्रकाशित करेंगी जब तक कि उसमें ‘उचित वामपंथी विचार’ हों और प्रसिद्ध वामपंथी विचारकों को उद्धृत किया गया हो (या उनके द्वारा लिखा गया हो), भले ही लेख पूरा बकवास हो। ग्रॉस और लेविट वैज्ञानिक यथार्थवाद यानि साइंटिफिक रियलिज्‍म वाले विचार के थे, जो वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता (साइंटिफिक ऑब्जेक्टीविटी) पर सवाल उठाने वाले उत्तर-आधुनिकतावादी (पोस्ट-मॉडर्निस्ट) शिक्षाविदों का विरोध करते थे। उन्होंने दावा किया कि लिबरल आर्ट्स विभागों (विशेष रूप से अंग्रेजी विभागों) में बौद्धिक विरोधी भावना ने विघटनवादी (डीकंस्ट्रक्टिव) विचारों को बढ़ावा दिया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः विज्ञान की विघटनवादी (डीकंस्ट्रक्टिव) आलोचना हुई। इन दोनों का मानना था कि विज्ञान के अध्ययन से बचने के लिए इस तरीके से कामचोरी का बचाव तर्क गढ़कर किया जाता है।

इस सोकल होक्स का प्रभाव व्यापक रहा था और 1997 में, सोकल और जीन ब्रिकमोंट ने मिलकर ‘इम्पोस्टर्स इंटेलेक्चुअल्स’ लिखी जो अलग नामों से अमेरिका और यूके में भी प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में स्थापित बुद्धिजीवियों के लेखन के अंशों का विश्लेषण किया गया था। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के बारे में सोकल और ब्रिकमोंट ने दावा किया था कि इन्होंने वैज्ञानिक शब्दावली का दुरुपयोग किया है। बाद में 2008 में, सोकल ने एक और किताब, बियॉन्ड द होक्स प्रकाशित की, जिसमें होक्स के इतिहास पर फिर से विचार किया गया और इसके स्थायी प्रभावों पर चर्चा की गई।

सोकल होक्स का प्रभाव इतना व्यापक था कि फ्रांसीसी दार्शनिक जैक्स डेरिडा, जिनके 1966 में आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के बारे में दिए गए बयान को सोकल के पेपर में उद्धृत किया गया था, की आलोचना शुरू हो गई। खास तौर पर यू.एस. अखबारों में इस धोखाधड़ी की कवरेज के दौरान एक साप्ताहिक पत्रिका ने सोकल के पेपर पर एक ‘डोजियर’ को चित्रित करने के लिए उनकी दो छवियों, एक फोटो और एक कैरिकेचर का इस्तेमाल किया। डेरीडा को डीकंस्ट्रक्शन का सिद्धांत देने के लिए जाना जाता है, जिसका आज भी वामपंथी जमकर इस्तेमाल करते हैं। यानी सोकल होक्स से हाल के दौर के सबसे प्रमुख चिन्तक की ही धज्जियाँ उड़ा दी गयी थीं।

फातिमा का चरित्र गढ़कर जो कारनामा दिलीप मंडल ने किया है, उसे भी सोकल होक्स की तुलना में ही देखा जाना चाहिए। बिना किसी जाँच के फातिमा को एक सचमुच का किरदार कैसे मान लिया गया, उसके पीछे की राजनैतिक सोच कैसे काम करती है वो इस घटना से साफ समझ में आता है। फातिमा शेख का नाम तो कहीं नहीं ही मिलता, यहाँ तक कि अम्बेडकर की लिखी दर्जनों किताबों तक में उनका जिक्र नहीं मिला है। उनके जन्म की तिथि कहीं, कभी नहीं लिखी मिली क्योंकि वो कोई असली किरदार थी ही नहीं। इसके बाद भी गूगल ने तथाकथित दलित समर्थक दिखने के लिए उसके काल्पनिक जन्मदिन पर एक डूडल तक प्रकाशित कर दिया था। कई नेता और उनके छुटभैये इसी काल्पनिक जन्मदिन पर लोगों को बधाइयाँ देते दिखे। उनसे गलती हो गयी है, ये स्वीकारने के बदले लोग आब दिलीप मंडल को गालियाँ दे रहे हैं और उसे बिका हुआ घोषित करने पर लगे हैं। लेकिन अपने तथ्यों को प्रामाणित करने के लिए उसने जो लगभग बीस वर्ष मेहनत की है, वो हाल में अकादमिक जगत में तो किसी ने नहीं दिखाई।

बाकी के लिए मार्क ट्वेन ने कभी लिखा था, ‘जब तक सच अपने जूते पहनता है, तब तक झूठ आधी दुनिया का चक्कर लगा चुका होता है।’ मंडल ने ये काल्पनिक चरित्र ‘जय भीम’ में ‘जय मीम’ जोड़ने के लिए रचा था और ऐसी कहानियों का जो अंजाम होना होता है, पिछले दौर के जोगेंद्र नाथ मंडल जैसी ही गति को ये भी पहुँच गया है। आगे के लिए सावधानी बरतना सीखिए।

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