महाकुंभ में अखाड़ों की गौरवशाली परंपरा: जानें कितने अखाड़े हैं, किसने की थी शुरुआत, और क्या है कल्पवास का आध्यात्मिक महत्व?

अखाड़ों की पवित्र परंपरा

महाकुंभ में अखाड़ों की गौरवशाली परंपरा: जानें कितने अखाड़े हैं, किसने की थी शुरुआत, और क्या है कल्पवास का आध्यात्मिक महत्व?

अखाड़ों में कल्पवास: महाकुंभ की आस्था और साधना का अद्वितीय अनुभव (Image Source: Mahakumbh.in & Social Media)

CM योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में होने वाले भव्य महाकुम्भ 2025 की तैयारियां अपने अंतिम चरण में हैं। इसी बीच बुधवार, 8 जनवरी 2025 को महाकुंभ 2025 के वैष्णव अखाड़े की भव्य पेशवाई ने प्रयागराज के संगम तट पर आस्था और उल्लास का अद्भुत माहौल बना दिया है। ध्वजों की लहराती शोभा, शंखनाद की गूंज और साधु-संतों के जयघोष ने इस स्थान को एक दिव्य आभा से भर दिया है। वैष्णव अखाड़ा पेशवाई सिर्फ साधु-संतों की परेड नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराओं का प्रतीक है, जो कई पीढ़ियों से जीवित और मजबूत होती आ रही हैं।

तीनों वैष्णव अखाड़ों की छावनी प्रवेश यात्रा में सनातन धर्म की अखंड महिमा और वैभव का उद्घाटन हुआ

महाकुंभ मेला में अखाड़ों की भागीदारी का विशेष महत्व है, क्योंकि ये स्थान न केवल साधु-संतों के मिलन का केंद्र हैं, बल्कि सनातन धर्म के प्रचार और प्रसार के भी महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। यहां साधु-संत ध्यान, साधना और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, और उनका यह समागम महाकुंभ को और भी पवित्र बनाता है। महाकुंभ में अखाड़ों की उपस्थिति हमारे गौरवमयी धर्म और संस्कृति का प्रतीक है, जो हमें हमारे इतिहास और परंपराओं से जुड़ा महसूस कराती है।

जानें कितने अखाड़े हैं और किसने की थी शुरुआत

अखाड़ों का इतिहास भारतीय संस्कृति और धर्म से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है, और यह सदियों से समाज में धार्मिक जागरूकता और सांस्कृतिक समृद्धि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है। पहले के समय में जब साधु जीवन आश्रमों में बिताते थे, तब उनके समूहों को ‘अखाड़ा’ कहा जाता था। इस परंपरा की शुरुआत आदि शंकराचार्य ने की, जिन्होंने हिंदू धर्म के संरक्षण और प्रसार के लिए इन अखाड़ों की नींव रखी।

जब बौद्ध और जैन दर्शन के प्रभाव से हिन्दुओं में शस्त्र ज्ञान को भूलने की स्थिति आ गई, तब शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए साधुओं को एकत्र किया और उन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों का ज्ञान दिया। यही वजह है कि आज अखाड़े केवल साधना और तपस्या के केंद्र नहीं हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रचारक भी माने जाते हैं। शंकराचार्य ने दशहरे के दिन शस्त्र पूजन की परंपरा भी शुरू की थी, जिसे दशनामी संन्यासी परंपरा के नागा संन्यासी आज भी निभाते हैं।

कुंभ मेला के दौरान अखाड़ों का महत्व और भी बढ़ जाता है। ये अखाड़े न केवल हिंदू धर्म के प्रचारक होते हैं, बल्कि समाज को धार्मिक मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं। साधु-संतों के यह जत्थे अपनी पुरानी परंपराओं और साधना के लिए प्रसिद्ध हैं और आम लोगों को जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। कुंभ मेला के अखाड़े भारतीय धार्मिकता का जीवंत उदाहरण होते हैं, जो हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं से जोड़ते हैं।

शुरुआत में केवल चार अखाड़े थे, लेकिन समय के साथ इनका विस्तार हुआ और अब कुल 13 प्रमुख अखाड़े हैं। इनमें शैव संप्रदाय के सात अखाड़े, बैरागी वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़े और उदासीन संप्रदाय के तीन अखाड़े शामिल हैं। इन अखाड़ों के बीच कभी-कभी वैचारिक मतभेद होते हैं, जिनका समाधान करने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई थी। यह परिषद कुंभ मेले के आयोजन और अन्य मामलों में अखाड़ों के प्रमुखों के बीच समन्वय बनाए रखती है।

13 प्रमुख अखाड़ों का नाम

शैव संन्यासी संप्रदाय के 7 अखाड़े का नाम
1. श्रीपंचायती अखाड़ा
2. श्री पंचअटल अखाड़ा
3. श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी
4. श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती
5. श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा
6. श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा
7. श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा

बैरागी वैष्णव संप्रदाय के 3 अखाड़े का नाम
8. श्री दिगंबर अनी अखाड़ा
9. श्री निर्वानी अनी अखाड़ा
10. श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा

उदासीन संप्रदाय के 3 अखाड़े का नाम
11. श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा
12. श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन
13. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा

महाकुम्भ में कल्पवास का महत्व

सनातन धर्म में महाकुंभ, कुंभ या माघ मास में कल्पवास का अत्यधिक महत्व है, जिसे आत्मिक शुद्धि और साधना का सर्वोत्तम माध्यम माना जाता है। कल्पवास का अर्थ है संगम तट पर एक महीने तक निवास करते हुए वेदों का अध्ययन और ध्यान साधना करना। यह समय न केवल आत्म-उन्नति का अवसर है, बल्कि एक साधक के जीवन को शुद्धता और आध्यात्मिकता की दिशा में एक नए मोड़ पर भी ले जाता है।

महाकुंभ के दौरान कल्पवास का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह समय प्रभु के दर्शन, ध्यान और साधना के लिए सबसे पवित्र माना जाता है। इस पर्व की शुरुआत पौष माह के 11वें दिन होती है और यह माघ माह के 12वें दिन समाप्त होता है। ऐसा विश्वास है कि सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करते ही आरंभ होने वाला यह एक महीने का कल्पवास उतना पुण्य देता है, जितना कि ब्रह्मा के एक दिन के बराबर एक कल्प में मिलता है।

 

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