स्वामी विवेकानंद ने गीता के एक उपदेश को दोहराया

।। ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुर्वतते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।

इसका मतलब समझाते हुए उन्होंने कहा, “जो भी मुझ तक आता है, किसी भी रूप में, मैं उस तक पहुंचता हूं। सभी मनुष्य उस रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो मुझ तक पहुंचती है।”

सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती पर कब्जा कर रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है, इस बार-बार मानव रक्त से सरोबार किया है। कई सभ्यताओं को नष्ट किया है और कितने देश मिटा दिए गए हैं।

उन्होंने कहा, “यदि ये भयानक राक्षस ने होते, तो मानव समाज की अभी की तुलना में कहीं अधिक विकसित और उन्नत होते, लेकिन उनका समय आ गया है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन की शुरुआत में जो घंटी बजाई गई है, वह सभी कट्टरता की मौत की घंटी हो सकती है, चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।

स्वामी विवेकानंद ने कहा, “अगर यहां कोई यह उम्मीद करता है कि यह एकता किसी एक घर्म की विजय और अन्य धर्मों के विनाश से आएगी, तो मैं उससे कहता हूं कि यह आशा एक असंभव आशा है। बीज भूमि में डाला जाता है और उसमें वायु, जल और मिट्टी होती है, तो क्या बीज पानी वायु और मिट्टी बन जाता है, नहीं, वो एक पौधा बन जाता है। वह अपने नियम के मुताबिक ही विकसित होता है। ठीक ऐसा ही धर्म के साथ भी है। हमें ईसाई को हिंदू और हिंदू या बौद्ध को ईसाई नहीं बनाना है, बल्कि दूसरों की भावनाओं को आत्मसात करना होगा और विकास के अपने नियम के अनुसार आगे बढ़वा होगा।”

भाषण के अंत में तालियों की आवाज से गूंजा हॉल

स्वामी विवेकानंद का भाषण समाप्त होते ही पूरे हॉल में तालियों की आवाज गूंजी थी और आज भी जब उस पल को याद किया जाता है, तो सभी भारतीयों को गर्व महसूस होता है। 11 सितंबर, 1983 का दिन भारत के इतिहास में एक सुनहरा दिन और सुनहरा पल बन गया है। स्वामी विवेकानंद को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद में हिन्दू धर्म व भारतीय संस्कृति का शंखनाद करने के लिए भेजा गया था, जिसमें वो सफल हुए थे।