अपना पूरा जीवन भक्ति और श्री राम को समर्पित करने वाले अयोध्या के राम मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास का 87 वर्ष की आयु में निधन हो गया है। उन्हें 3 फरवरी को ‘ब्रेन हैमरेज’ हो गया था जिसके बाद उन्हें लखनऊ के SGPGI में भर्ती कराया गया था और वहीं उन्होंने आखिरी सांस ली है। 32 साल से राम जन्मभूमि में सेवा दे रहे सत्येंद्र दास के निधन पर अयोध्या के सभी मठ-मंदिरों में शोक की लहर दौड़ गई है। संत समाज, राम भक्तों और श्रद्धालुओं ने उनके निधन को आध्यात्मिक जगत की अपूरणीय क्षति बताया। सत्येंद्र दास ना केवल शांत स्वभाव के धनी थे बल्कि उनका ज्ञान और तपस्वी जीवन लाखों श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र था।
जब संन्यासी बने थे सत्येंद्र दास
आचार्य सत्येंद्र दास का जन्म अयोध्या से करीब 98 किमी दूर संत कबीर नगर जिले में हुआ था। उनके मन में बचपन से ही भक्तिभाव था और जब उनके पिता अयोध्या जाते थे तो वे भी उनसे साथ वहां जाया करते थे। अयोध्या का माहौल तब बड़ा धार्मिक होता था और उनका मन यहां रम जाता था। यहां सत्येंद्र दास के पिता अभिराम दास से मिलने आते थे। अभिराम दास वही संत थे, जिन्होंने 22-23 दिसंबर 1949 को राम जन्मभूमि के गर्भगृह में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता जी की मूर्तियों के प्रकट होने का दावा किया था। इन्हीं मूर्तियों को आधार बनाकर आगे का संघर्ष लड़ा गया।
अभिराम दास जी की रामलला के प्रति सेवा देखकर सत्येंद्र दास ने उन्हीं के आश्रम में रहने के लिए संन्यास लेने का फैसला किया। फरवरी 1958 में वे अयोध्या आ गए और फिर खुद को रामलला की सेवा में समर्पित कर दिया। जब उनके पिता को पता चला कि बेटे संन्यासी बनना चाहता है तो उन्होंने खुशी से सत्येंद्र दास को संन्यास का मार्ग चुनने की अनुमति दे दी। उनके पिता का कहना था कि एक भाई घर पर रहेगा और एक भगवान की सेवा में जाएगा।
अध्यापक से पुजारी बनने का सफर
परिवार से अनुमति मिलने के बाद सत्येंद्र दास ने अभिराम दास के आश्रम में ही अध्ययन शुरू कर दिया था। गुरुकुल पद्धति से पढ़ाई शुरू की और 12वीं तक की पढ़ाई संस्कृत के विद्यालय से पूरी की। 1975 में सत्येंद्र दास ने संस्कृत विद्यालय से आचार्य किया और नौकरी की तलाश करनी शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्हें अयोध्या के संस्कृत महाविद्यालय में 1976 में व्याकरण विभाग में सहायक अध्यापक की नौकरी मिल गई और उस समय उन्हें 75 रुपए वेतन मिलता था।
उस समय ही दास राम जन्मभूमि जाने लगे थे और साथ ही, पूजा-पाठ का काम भी चल रहा था। 1992 में राम जन्मभूमि के मुख्य पुजारी लालदास थे और मंदिर की व्यवस्थाओं की देखरेख का जिम्मा एक रिटायर्ड जज को सौंपा जाता था। उस दौरान जेपी सिंह इस पद पर नियुक्त थे लेकिन फरवरी 1992 में उनके निधन के बाद राम जन्मभूमि की व्यवस्था जिला प्रशासन के हाथों में चली गई। इसी दौरान पुजारी लालदास को हटाने की चर्चा शुरू हुई।
उस समय सत्येंद्र दास की नजदीकी तत्कालीन भाजपा सांसद विनय कटियार और विश्व हिंदू परिषद (VHP) के नेताओं और संतों से थी। इन लोगों ने सत्येंद्र दास को मुख्य पुजारी बनाने की चर्चा शुरू की और उस समय के VHP अध्यक्ष अशोक सिंघल ने भी उनके नाम को अपनी स्वीकृति दे दी। इस तरह सत्येंद्र दास राम जन्मभूमि पर मुख्य पुजारी बन गए और उन्होंने अपने साथ 4 सहायक पुजारियों को भी रामलला की सेवा के लिए जोड़ लिया था।
पुजारी के तौर पर ₹100 था वेतन
पुजारी बनाए जाने पर भी वे सहायता प्राप्त स्कूल में पढ़ा रहे थे और वे सुबह 10 बजे तक मंदिर में रहते फिर सुबह 10 से शाम 4 बजे तक उनका समय स्कूल में बीतता था। इसके बाद वे शाम को फिर लौट आते और रामलला की सेवा में जुट जाते थे। उस समय उन्हें मंदिर से 100 रुपये का पारिश्रमिक मिलता था और 30 जून 2007 को जब उन्होंने स्कूल छोड़ दिया तो उनका वेतन बढ़कर 13,000 रुपए हो गया था।
विवादित ढांचा गिराए जाने के दिन क्या कर रहे थे दास
6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में हलचल थी और हज़ारों की संख्या में कारसेवक राम जन्मभूमि के आसपास जुटे हुए थे। सुबह करीब 11 बजे मंच सजा हुआ था और लाउडस्पीकर से लगातार अनाउंसमेंट किए जा रहे थे। उस समय नेताओं ने पुजारी सत्येंद्र दास से कहा कि ‘पुजारी जी, रामलला को भोग लगा दीजिए और फिर पर्दा बंद कर दीजिए’। उन्होंने रामलला को भोग अर्पित किया और फिर पर्दा गिरा दिया। इससे एक दिन पहले ही कारसेवकों से सरयू नदी से जल लाने को कहा गया था।
राम जन्मभूमि पर विवादित ढांचे के पास एक चबूतरा बनाया गया था और लोगों से कहा गया कि जल अर्पित करें और इसे धोएं। यह सुनकर वहां मौजूद लोग नाराज़ हो गए और बोले कि हम यह कार सेवा करने नहीं आए हैं। पल-पल में माहौल बदलता रहा और रामलला के प्रति भक्ति भाव से भरे कारसेवकों की भीड़ बैरिकेडिंग तोड़ते हुए विवादित ढांचे की ओर बढ़ने लगी। कारसेवक गुंबद तक पहुंच गए और ढांचे को तोड़ना शुरू कर दिया।
आचार्य सत्येंद्र दास उस समय विवादित ढांचे के बीच वाले बड़े गुंबद के नीचे खड़े होकर रामलला की रखवाली कर रहे थे। कारसेवक धीरे-धीरे उस बड़े गुंबद पर भी चढ़ गए और उसे तोड़ना शुरू कर दिया। गुंबद के बीच एक बड़ा सुराख बन गया और मिट्टी व मलबा रामलला के आसन पर ही गिरने लगा। सत्येंद्र दास के साथ उस समय पुजारी संतोष और चंद्र भूषण भी मौजूद थे। तय किया गया कि रामलला को सुरक्षित जगह पर ले जाया जाए। आचार्य सत्येंद्र दास ने रामलला की मूर्ति को गोद में उठा लिया और भरत-शत्रुघ्न की मूर्तियां भी थीं और उन्हें लेकर वे वहां से सुरक्षित स्थान के लिए निकल गए।
रामलला को एक सुरक्षित जगह पर पहुंचाया गया और बाद में उन्हें एक अस्थाई टेंट में स्थापित कर दिया गया। यही टेंट लंबे समय तक अस्थाई मंदिर रहा और यहीं रामलला वर्षों तक विराजमान रहे। वक्त का पहिया घूमा और आज रामलला अस्थायी टेंट से निकलकर एक भव्य और विशाल मंदिर में पहुंच गए हैं। सदियों से करोड़ों लोगों की उन्हें भव्य मंदिर में देखने की प्रतीक्षा पूर्ण हुई है। टेंट से भव्य राम मंदिर की यात्रा के साक्षी रहे सत्येंद्र दास अब हमारे बीच नहीं हैं। राम का यह प्रिय ‘दास’ सदैव के लिए उनमें विलीन हो गया है।