बीजेपी की छवि आमतौर एक ऐसी पार्टी की रही है जो जातिवाद व वंशवाद से इतर राष्ट्रवाद और हिंदू संस्कृति की राजनीति करती है जिसके मूल में हिंदुओं को एकजुट करना है। देश में कई पार्टियां एक जाति या समुदाय पर आधारित राजनीति करती हैं लेकिन बीजेपी की छवि इससे इतर रही थी। हिंदुओं को जाति के नाम बंटने से रोका जाए और उन्हें राष्ट्र व संस्कृति के नाम पर एक रखा जाए यही पार्टी की रणनीति होती है। ‘वो जात पात से तोड़ेंगे, हम संस्कृति से जोड़ेंगे’ की बात करने वाली बीजेपी ने हरियाणा निकाय चुनाव में कुछ ऐसा किया है जिसके बाद हिंदू एकता और सर्व समाज के साथ की बात बेइमानी होती नज़र आ रही है।
दरअसल, हरियाणा में नगर निगम, नगर परिषदों और नगर पालिकाओं के लिए 2 मार्च को मतदान (पानीपत नगर निगम के लिए 9 मार्च) होना है और इनके लिए 17 फरवरी तक नामांकन किए जाने हैं। बीजेपी ने नगर निगम से लेकर वार्ड पार्षदों तक के लिए उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। हालांकि, बीजेपी द्वारा जारी की गई नगर निगम की सूची पर ही हंगामा हो गया था क्योंकि हरियाणा भाजपा के आधिकारिक ट्विटर हैंडल और फ़ेसबुक से साझा की गई सूची को गलत बताकर डिलीट कर दिया गया था और दोबारा नई सूची जारी की गई थी। लेकिन इससे भी ज्यादा चर्चा पार्टी द्वारा जारी की गईं वार्ड पार्षदों के नामों की सूचियों को लेकर हो रही है।
बीजेपी ने हरियाणा निकाय चुनाव में वार्ड पार्षदों की जो सूचियां जारी की हैं उनमें उम्मीदवारों के साथ उनकी जाति को जिस तरह हाईलाइट किया गया है, उसे लेकर खूब चर्चा हो रही है। टिकट बांटने में जातिगत समीकरणों का ध्यान रखा जाता है यह बात सर्वविदित है लेकिन जिस तरह इन सूचियों में जाति बताने पर ज़ोर दिया गया है वो लोगों को अखर रहा है। बीजेपी ने करनाल नगर निगम के वार्ड 7 से जोगिंद्र शर्मा आचार्य को उम्मीदवार बनाया है। बीजेपी की इस लिस्ट में उनके नाम के आगे लिखा है ‘महाब्राह्मण वर्ग ए’। ऐसे ही अनेक उदाहरण आपको बीजेपी की इन तमाम सूचियों में नज़र आएंगे। अब बीजेपी ने यह किसी रणनीति के तहत किया है या बीजेपी की राजनीति पर अब एक नई राह पर रहेगी, यह सवाल देखना होगा।
अगर बीजेपी वास्तव में जाति से ऊपर उठाकर संस्कृति और राष्ट्रवाद के आधार पर देश और समाज को जोड़ना चाहती है तो फिर उम्मीदवारों की जाति को इस तरह प्रमुखता देना उसकी मूल विचारधारा के खिलाफ जाता है। यह कदम ना केवल बीजेपी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर प्रश्नचिह्न है बल्कि यह भी नज़र आ रहा है कि चुनावी समीकरण साधने के लिए पार्टी अब उसी जातिगत राजनीति का सहारा ले रही है, जिसका विरोध करने का दावा वह करती आई है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी अपनी इस रणनीति को किस तरह से आगे लेकर जाती है और क्या वह अपनी मूल विचारधारा पर कायम रह पाएगी या फिर चुनावी राजनीति की मजबूरियों में उलझकर अपनी राजनीतिक दिशा को बदल लेगी।