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मुंह की खाने के बाद भी ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ वाली राजनीति से आगे बढ़ने को तैयार नहीं कांग्रेस, अब राहुल गांधी के सियासी गुरु सैम पित्रोदा का झलका चीन प्रेम

बोले- चीन हमारा दुश्मन नहीं, बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा विषय

TFI Desk द्वारा TFI Desk
17 February 2025
in राजनीति
Congress's Relations with China: A Closer Look at the Political Dynamics

सैम पित्रोदा का जागा चीन से प्यार

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इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद भारत को जितना नुकसान झेलना पड़ा, उसमें एक बड़ा कारण कांग्रेस की नीतियां और उसके शीर्ष नेतृत्व का चीन प्रेम रहा है। पंडित नेहरू के कमजोर रवैये और अदूरदर्शी नीति के कारण भारत अपनी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन चीन के हाथों गंवा बैठा। लेकिन कांग्रेस का यह रुख यहीं नहीं रुका—समय-समय पर उसका चीन प्रेम खुलकर सामने आता रहा है। कभी यह झलक राहुल गांधी के बयानों में दिखती है, तो कभी कांग्रेस के अन्य नेताओं के रुख में। अब एक बार फिर राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु सैम पित्रोदा ने अपने बयान से कांग्रेस की चीन नीति को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “मुझे नहीं लगता कि चीन से कोई बड़ा खतरा है। इस विषय को कई बार बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।” इतना ही नहीं, उन्होंने भारत की आलोचना करते हुए यह तक कह दिया कि भारत अनावश्यक रूप से चीन के प्रति टकराव का रुख अपनाता है। सैम पित्रोदा द्वारा दिए गए इस विवादित बयान को लेकर भाजपा जमकर पलटवार कर रही है। जहां बीजेपी सांसद सुधांशु त्रिवेदी ने सैम पित्रोदा के बयान को गलवान घाटी में शहीद हुए जवानों का अपमान बताया. उन्होंने कहा कि कुछ षड्यंत्रकारी शक्तियां देश के खिलाफ काम में जुटी हुई हैं।

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यह कोई पहली बार नहीं है जब कांग्रेस नेताओं का चीन के प्रति झुकाव सवालों के घेरे में आया हो। राहुल गांधी की चीनी राजदूत से गुप्त मुलाकात हो या डोकलाम विवाद के दौरान उनकी रहस्यमयी चुप्पी—हर बार कांग्रेस की प्राथमिकता भारत के बजाय चीन ही नजर आई है। अब सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस को भारत की संप्रभुता और सुरक्षा से ज्यादा चीन की छवि बचाने की चिंता है?

नेहरू की चीन नीति का दंश आज भी झेल रहा भारत 

भारत की स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू की चीन नीति ने देश को गहरे जख्म दिए, जिनका असर आज भी दिखता है। नेहरू का चीन प्रेम और उनकी अदूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि भारत अपनी हजारों वर्ग किलोमीटर की भूमि से हाथ धो बैठा। इतिहास गवाह है कि जब चीन भारत की जमीन पर धीरे-धीरे कब्जा कर रहा था, तब नेहरू ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे में मशगूल थे।

1962 युद्ध की पृष्ठभूमि – पंचशील समझौते से विश्वासघात तक

1954 में भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ, जिसमें नेहरू सरकार ने तिब्बत में चीन के शासन को औपचारिक मान्यता दे दी। इसके बाद ही नेहरू ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा बुलंद किया। लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी कूटनीतिक भूल साबित हुई। चीन के आधिकारिक नक्शों में अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र दिखाया जाने लगा, लेकिन जब भारत ने इस पर आपत्ति जताई, तो चीन ने इसे “मानचित्र संबंधी त्रुटि” कहकर बात टाल दी।

1958 में भारत ने अक्साई चिन पर अपना दावा ठोका, लेकिन तब तक चीन इस इलाके में अपने सैनिकों और इन्फ्रास्ट्रक्चर का जाल बिछा चुका था। 1959 में दलाई लामा के भारत में शरण लेने से चीन भड़क उठा और भारत-चीन सीमा पर तनाव चरम पर पहुंच गया। इसी बीच, चीन ने भारत पर तिब्बत में साजिश रचने का आरोप लगाते हुए अक्साई चिन पर कब्जा करने की योजना बनाई।

भारत की गलतफहमी और 1962 का युद्ध

नेहरू सरकार चीन की आक्रामक मंशा को समझने में पूरी तरह विफल रही। भारत को भरोसा था कि चीन हमला नहीं करेगा, लेकिन 20 अक्टूबर 1962 को चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में एक साथ आक्रमण कर दिया। यह युद्ध नेहरू की कूटनीतिक नाकामी का सबसे बड़ा प्रमाण बना।

चीन ने भारतीय संचार नेटवर्क को ध्वस्त कर दिया, जिससे भारतीय सेना को मुख्यालय से संपर्क करने में दिक्कत हुई।
भारतीय सेना को कम संसाधनों में चीन की विशाल सेना से लड़ना पड़ा, क्योंकि नेहरू सरकार युद्ध की संभावना से इनकार करते हुए उचित तैयारी करने में असफल रही।
मात्र चार दिनों में चीनी सेना 15 किमी अंदर घुस आई, और भारत को अपने ही क्षेत्र में पीछे हटना पड़ा।

नेहरू का युद्ध के दौरान रुख और चीन की कुटिल चालें

जब भारत अपनी जमीन गंवा रहा था, तब चीन के प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने नेहरू को पत्र लिखकर युद्धविराम का प्रस्ताव दिया। उन्होंने शर्त रखी कि यदि भारत अक्साई चिन पर अपना दावा छोड़ देता है, तो चीन अरुणाचल प्रदेश से हट जाएगा। नेहरू ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

1962 का युद्ध
1962 का युद्ध (Image Source: Indian Express)

14 नवंबर 1962—नेहरू के जन्मदिन के दिन चीन ने एक बार फिर हमला बोल दिया। इस बार लड़ाई एक हफ्ते तक चली और 21 नवंबर को चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा करने के बाद एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी।

2002 में उजागर हुआ नेहरू का चीन प्रेम

साल 2002 में एक ऐसा खुलासा हुआ जिसने यह साबित कर दिया कि नेहरू की चीन नीति ने भारत को कितना बड़ा नुकसान पहुंचाया। फ्रंटलाइन पत्रिका में अधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ ए. जी. नूरानी का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें 1955 में नेहरू द्वारा लिखे गए एक पत्र का जिक्र किया गया। इस पत्र से पता चला कि अमेरिका और रूस ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन नेहरू ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इससे चीन के साथ भारत के रिश्ते बिगड़ सकते हैं।

नेहरू ने अपने पत्र में लिखा था:
“अमेरिका ने अनौपचारिक रूप से सुझाव दिया कि चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिलनी चाहिए लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं, जबकि भारत को वहां जगह दी जा सकती है। लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इससे चीन के साथ हमारे संबंधों पर असर पड़ेगा। चीन जैसा एक महान राष्ट्र सुरक्षा परिषद में न हो, यह ठीक नहीं होगा। हमने यह भी साफ कर दिया कि इस स्थिति में हम खुद सुरक्षा परिषद में शामिल होने की इच्छा नहीं रखते।”

नेहरू की यह सोच अपने आप में चौंकाने वाली थी। जब दुनिया के दो महाशक्तिशाली देश भारत को वैश्विक मंच पर एक मजबूत स्थान देने के लिए तैयार थे, तब नेहरू ने इसे ठुकरा दिया, सिर्फ इसलिए कि चीन नाराज न हो जाए। यह महज एक कूटनीतिक भूल नहीं थी, बल्कि भारत के दीर्घकालिक रणनीतिक हितों के खिलाफ एक गंभीर चूक थी।

संविधान विशेषज्ञ ए. जी. नूरानी के मुताबिक, नेहरू के इस फैसले के पीछे कई कारण थे। एक तो भारत उस वक्त शीत युद्ध की शुरुआत में किसी भी देश के साथ अपने संबंध खराब नहीं करना चाहता था। दूसरा, नेहरू वैश्विक तनाव कम करने के नाम पर चीन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर जगह दिलाने के लिए प्रतिबद्ध थे। लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि भारत, जो खुद सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट हासिल कर सकता था, उसे चीन की वजह से यह अवसर गंवाना पड़ा।

नेहरू की इस नीति का असर यह हुआ कि चीन न केवल सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन गया, बल्कि उसने इसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ करना शुरू कर दिया। आज जब भी भारत किसी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर आगे बढ़ने की कोशिश करता है, चीन अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर बाधा खड़ी कर देता है। अगर उस वक्त भारत सुरक्षा परिषद का सदस्य बन जाता, तो आज उसकी स्थिति कहीं ज्यादा मजबूत होती।

राहुल गांधी और कांग्रेस का ‘चीन प्रेम’

नेहरू के दौर में शुरू हुई चीन परस्ती कांग्रेस की विदेश नीति का हिस्सा बनी रही, और राहुल गांधी ने इसे और आगे बढ़ाया। उनके बयानों और नीतियों को देखें तो यह साफ झलकता है कि चीन के प्रति उनका झुकाव सिर्फ एक संयोग नहीं, बल्कि एक सोच के तहत है।

मार्च 2023 में कैम्ब्रिज बिजनेस स्कूल में दिए गए अपने भाषण में राहुल गांधी ने चीन को ‘महाशक्ति बनने की आकांक्षा रखने वाला’ और ‘प्राकृतिक शक्ति’ बताया। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि चीन में ‘सामाजिक समरसता’ है। लेकिन हकीकत यह है कि तिब्बत और शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के मानवाधिकारों का हनन पूरी दुनिया के सामने है। राहुल गांधी चीन के विवादित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का समर्थन कर चुके हैं, जिसे भारत ने अपनी संप्रभुता के खिलाफ माना है।

2022 में ‘द प्रिंट’ को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि “चीन अपने आसपास के देशों की तरक्की चाहता है।” लेकिन जब 2023 में लद्दाख दौरे पर गए तो खुद स्वीकार किया कि “चीन ने भारत की चरागाह भूमि पर कब्जा कर लिया है।” यही नहीं, 2022 में ब्रिटेन में उन्होंने बयान दिया था कि “लद्दाख, चीन के लिए वही है, जो रूस के लिए यूक्रेन है।” यह तुलना भारत की संप्रभुता पर गंभीर सवाल खड़े करती है और चीन के पक्ष में झुकाव को दर्शाती है।

राहुल गांधी की चीन पर नरम नीति सिर्फ बयानों तक सीमित नहीं रही। 2020 में उन्होंने खुले तौर पर विदेशी ताकतों से भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने की अपील की थी। यही नहीं, राजीव गांधी फाउंडेशन (RGF) और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CPC) के बीच आर्थिक लेन-देन का मामला भी उजागर हुआ। ऑपइंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, 2006 के बाद चीनी सरकार ने RGF को 1 करोड़ रुपये से ज्यादा की फंडिंग दी थी।

2008 में यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CPC) के बीच एक गुप्त समझौता (MoU) भी हुआ था। इस समझौते के तहत दोनों दलों को “महत्वपूर्ण द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों पर विचार-विमर्श” करने की बात कही गई थी। यह समझौता तब हुआ जब कांग्रेस सत्ता में थी और चीन के साथ कई विवाद चल रहे थे।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि 2017 में डोकलाम विवाद के दौरान राहुल गांधी ने गुपचुप तरीके से चीन के राजदूत लुओ झाओहुई से मुलाकात की थी। 2018 में कैलाश मानसरोवर यात्रा के दौरान उन्होंने चीनी मंत्रियों से भी मुलाकात की, लेकिन इसकी जानकारी सरकार या मीडिया को नहीं दी।

 

स्रोत: कांग्रेस, सैम पित्रोदा, सैम पित्रोदा बयान, राहुल गाँधी, चीन, चीन युद्ध, 1962 युद्ध, कांग्रेस का चीन प्रेम, जवाहरलाल नेहरू, Congress, Sam Pitroda, Sam Pitroda statement, Rahul Gandhi, China, China war, 1962 war, Congress’s love for China, Jawaharlal Nehru
Tags: 1962 war1962 युद्धChinaChina warCongressCongress’s love for ChinaJawaharlal NehruRahul GandhiSam PitrodaSam Pitroda statementकांग्रेसकांग्रेस का चीन प्रेमचीनचीन युद्धजवाहरलाल नेहरूराहुल गाँधीसैम पित्रोदासैम पित्रोदा बयान
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मणिपुर में केंद्र के तमाम कोशिश के बाद शांति लौटते ही एक बार फिर से राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। विधायक एक नई सरकार...

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