अपने ही वस्त्र फाड़ लहराई पताका, पहली बार दी स्वराज्य की अवधारणा: दयानंद सरस्वती, जिन्होंने वेदों की ओर लौटने का किया आह्वान

लाला लाजपत राय से लेकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक महर्षि दयानंद सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अंधविश्वासों को चुनौती देते हुए 'आर्य समाज' की स्थापना की थी

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अंधविश्वासों को चुनौती देते हुए 'आर्य समाज' की स्थापना की थी

महर्षि दयानंद सरस्वती 19वीं सदी के एक महान समाज सुधारक, संन्यासी, विचारक और चिंतक थे। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की और हिंदुओं से वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया था। महर्षि दयानंद का स्पष्ट मानना था कि प्राचीन काल में मनुष्य का एक ही धर्म सनातन था और एक ही धर्मग्रन्थ था, जो वेद हैं। उन्होंने वेदों को ज्ञान की कुँजी और प्रकाश स्तंभ बताया है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से उन्होंने कई बुराइयों एवं अंधविश्वास को खत्म करने का प्रयास किया था। दयानंद सरस्वती एक धार्मिक नेता ही नहीं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के प्रेरणा स्रोत भी रहे हैं। देश को सबसे पहले स्वराज (Swaraj) की अवधारणा उन्होंने ही दी थी। लाला लाजपत राय से लेकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक महर्षि दयानंद सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे।

स्वामी दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के मोरबी रियासत के टंकारा नाम के एक कस्बे में हुआ था। उनका मूल नाम मूल शंकर था। उन्हें दयाराम भी कहा जाता था। मूलशंकर के पिता का नाम करशन लाल था, जो टैक्स कलेक्टर थे। वे धनी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे। साथ ही शिव भक्त भी थे। उनकी माता का नाम यशोदाबाई था। अपने माता-पिता के पाँच बच्चों में वे सबसे बड़े थे। पाँच वर्ष की अवस्था से उनकी शिक्षा शुरू हुई और उन्होंने आठ वर्ष की उम्र तक देवनागरी लिपि में महारत हासिल कर ली थी। वेदों का अध्ययन शुरू करने के लिए उन्होंने यज्ञोपवित धारण किया। इसके बाद 14 वर्ष की उम्र तक उन्होंने यजुर्वेद और अन्य वेदों के मंत्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जब वे 22 साल के हुए तो उन्होंने संन्यास ले लिया, तब उनका नाम दयानंद पड़ा। इसके बाद वे घर छोड़कर आध्यात्मिक खोज में निकल पड़े। आगे चलकर उनकी मुलाकात स्वामी विरजानंद से हुई। विरजानंद सिद्ध संन्यासी थे और अंधे थे। इनके विचारों ने स्वामी दयानंद सरस्वती की कई उलझनों को दूर कर दिया। वे विरजानंद से बहुत प्रभावित हुए।

उनके मन में धर्म को लेकर बहुत उहापोह की स्थिति थी। संन्यास लेने और घर छोड़ने से पहले दयानंद को उनके पिता महाशिवरात्रि की रात को अपने साथ भगवान शिव के मंदिर ले गए। यहाँ शिव मूर्ति के सामने रात भर जागरण होना था। हालाँकि, समय बीतने के साथ ही एक-एक करके सभी भक्त सो गए। सिर्फ वे जगे रहे। रात गहराई तो उन्होंने देखा कि कुछ चूहे अपने बिलों से निकलकर शंकर भगवान की मूर्ति पर चढ़ाए गए प्रसाद को खा रहे हैं। यह सब देखकर मूलशंकर के मन में कई सवाल उठने लगे। उनके पिता ने समझाने की कोशिश की कि मूर्ति स्वयं भगवान नहीं थी। यह केवल पूजा के उद्देश्य से शिव का प्रतीक है। दयानंद के मन मूर्ति पूजा को शंका उत्पन्न हो गई। इसी दौरान उनकी बहन की मृत्यु हो गई तो उनके मन में दुनिया के लिए विरक्ति पैदा हो गई।

ये वो दौर था, जब हिंदू धर्म विभिन्न मतों में विभाजित था। उन्होंने इन अलग-अलग सिद्धांतों को देखने के बजाय सीधे इनके मूल तत्व वेदों की ओर लौट गए। वे वेद को ‘ईश्वर के वचनों’ का ज्ञान और सत्य का सबसे प्रामाणिक भंडार मानते थे। वैदिक ज्ञान को फिर से सक्रिय करने और चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए स्वामी दयानंद ने कई पुस्तकें लिखीं। इनमें मुख्य सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि, भाष्य-भूमिका और संस्कार विधि हैं। उन्होंने ईश्वर को एक नाम दिया ‘ब्रह्म’।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने 7 अप्रैल 1875 को मुंबई के गिरगाँव में आर्य समाज नामक एक सुधार संगठन की स्थापना की। उन्होंने इसके 10 सिद्धांत बनाए, जो हिंदू धर्म में व्याप्त रीति-रिवाजों से कई मायनों में अलग हैं, लेकिन वेदों पर आधारित हैं। ये 10 सिद्धांत हैं-

1. ईश्वर समस्त सत्य ज्ञान और ज्ञान से ज्ञात होने वाली सभी बातों का कारण है।

2. ईश्वर सत्त्वगुणी, बुद्धिमान और आनन्दमय है। वह निराकार, सर्वज्ञ, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अपरिवर्तनीय, अनादि, अद्वितीय, सबका आधार, सबका स्वामी, सर्वव्यापी, अव्यक्त, अजर, अमर, अभय, नित्य और पवित्र है तथा सबका रचयिता है। केवल वही पूजनीय है।

3. वेद सब सत्य विद्याओं के शास्त्र हैं। इन्हें पढ़ना, पढ़ाना, सुनाना तथा पढ़ते हुए सुनना सभी आर्यों का परम कर्तव्य है।

4. सत्य को ग्रहण करना और असत्य को त्यागना चाहिए।

5. सभी कार्य धर्मानुसार करने चाहिए।

6. आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य विश्व का कल्याण करना है, अर्थात् सभी का शारीरिक, आध्यात्मिक और सामाजिक कल्याण करना।

7. सभी के प्रति आचरण प्रेम, धार्मिकता और न्याय से निर्देशित होना चाहिए।

8. हमें अज्ञान को दूर करना चाहिए और ज्ञान को बढ़ावा देना चाहिए।

9. हमें सभी की भलाई में अपनी भलाई देखनी चाहिए।

10. सभी के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए समाज के नियमों का पालन करना चाहिए और इसके लिए व्यक्ति को स्वयं को प्रतिबन्धित समझना चाहिए।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने मूर्ति पूजा, जाति व्यवस्था, कर्मकांड, भाग्यवाद, शिशु-हत्या, नरबलि, बाल विवाह, सती प्रथा, दूल्हे की बिक्री, मंदिरों में देवदासी प्रथा, बहुविवाह, मृतक श्राद्ध, मौत के बाद बच्चों को दफनाने, समुद्र यात्रा निषेध का खंडन जैसे कुसंस्कारों का विरोध किया और विधवा विवाह का समर्थन किया। वे महिलाओं की मुक्ति एवं उनकी शिक्षा के सशक्त पैरोकार थे। साथ ही वे दलित वर्ग के उत्थान के लिए भी खड़े थे। वे पुरुष-नारी समानता के पक्षधर थे। इसके साथ ही वे सभी मनुष्य को एक मानते थे। वेदों और हिंदुओं की सर्वोच्चता को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध किया। वे अन्य संप्रदायों को हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाने की वकालत की। इस आंदोलन का नाम उन्होंने शुद्धि आंदोलन दिया। इस कारण से इस्लाम और ईसाई धर्म को अपनाए सैकड़ों हिंदुओं ने घर वापसी की। इसके अलावा भी उन्होंने कई आंदोलन चलाए और हिंदू धर्म की कुरीतियों को दूर किया।

सन 1867 में हरिद्वार में कुम्भ के दौरान महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने वस्त्र को फाड़कर एक पताका तैयार किया। उस पताके पर लिखा ‘पाखंड खंडिनी’। इसके जरिए उन्होंने पोंगापंथ, कर्मकांड, भाग्यवाद, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ युद्ध छेड़ दी। पोंगापंथ को चुनौती देने के लिए उन्होंने शास्त्रार्थ किया और अपने तर्क से इसका खंडन किया। वे जाति आधारित नहीं, कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे। उनका मानना था कि जो ज्ञानी है वो ब्राह्मण है और जो लोगों की रक्षा कर रहा है वो क्षत्रिय है। इस तरह व्यापार करने वाले व्यक्ति को उन्होंने वैश्य और साफ-सफाई करने वाले को उन्होंने शूद्र कहा। समाज सुधार के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक समरसता, सबको शिक्षा, सामाजिक समानता और आपसी भाईचारा का प्रबल समर्थन किया। शिक्षा के लिए उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी जैसे विश्वविद्यालय की स्थापना की।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने धार्मिक सुधार ही नहीं, परतंत्रता का भी भारी विरोध किया। उन्होंने भारत को भारतीयों के लिए बताया। कहा जाता है कि उन्होंने हरिद्वार में नाना साहेब, अजीमुल्ला खाँ, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुँवर सिंह से मुलाकात की। यहाँ पर विदेशी सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रान्ति के लिए जमीन तैयार की गई, जो आगे चलकर 1857 के गदर के रूप में दिखाई दी। वे अपने प्रवचनों में राष्ट्र प्रेम एवं स्वतंत्रता की बात करते थे। इसका व्यापक असर देखने को मिलता था।

एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानंद ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि ‘भारत भारतीयों के लिए है।’ सन 1883 में स्वामी दयानंद सरस्वती इस नश्वर शरीर को छोड़ गए। उनकी मृत्यु के बाद ‘दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसाइटी की स्थापना की गई, जो आज DAV नाम से देश भर में कई शिक्षण संस्थान संचालित करता है। आगे चलकर लड़कियों की शिक्षा के लिए भी कई स्कूल-कॉलेज खोले गए। इस तरह धर्म से लेकर शिक्षा एवं राष्ट्रवाद तक स्वामी दयानंद ने प्रेरणास्रोत का काम किया।

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