अकबर ने कैद किया, जहांगीर ने काट कर लगवा दी आग: कहानी प्रयागराज के अमर वृक्ष अक्षयवट की, जो राख से भी पनप आया

अक्षय वट प्रयागराज महाकुंभ

प्रयागराज में स्थित अक्षय वट वृक्ष

प्रयागराज में मां गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम तट पर करोड़ों श्रद्धालु महाकुंभ स्नान करने के लिए पहुंच रहे हैं। इस पुण्य भूमि पर यूं तो अनेकानेक तीर्थ स्थल हैं। लेकिन यहां एक ऐसा वृक्ष है जो पौराणिक काल से ही प्रयाग में मौजूद है। संगम तट पर यमुना नदी के किनारे एक ऐतिहासिक किला है, इस किले के भीतर ही यह वृक्ष है, जिसका नाम है अक्षय वट। वास्तव में इस अक्षय वट का लिखित इतिहास ही 400 साल से अधिक पुराना है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि यह वृक्ष अविनाशी अर्थात कभी न नष्ट होने वाला है और इसे यह आशीर्वाद मां सीता से मिला था।

अक्षयवट संस्कृत के शब्दों अक्षय अर्थात अविनाशी या कभी नष्ट न होने वाला और वट अर्थात बरगद से मिलकर बना है। पुराण कहते हैं कि यह वृक्ष इस दुनिया की शुरुआत के साथ ही उत्पन्न हुआ था और चारों युगों की समाप्ति के बाद होने वाले कई महाप्रलय का भी साक्षी है। पद्मपुराण में वर्णित प्रयाग माहात्म्य शताध्यायी में इस बात का वर्णन है कि पाताल लोक के नाग और नागिन शेषनाग के साथ भगवान हरि और हर अर्थात भगवान विष्णु और भगवान शिव शंकर दोनों का एक साथ दर्शन प्राप्त करने के लिए इसी स्थान पर आए और यहीं उनके सचिव बनकर रहने लगे।

इसके चलते ही यहां मौजूद पाताल पूरी मंदिर को ‘असिमाधव’ मंदिर भी कहा जाता है। इसके अलावा पद्म पुराण में यह भी कहा गया है कि महाप्रलय के समय जब उथल-पुथल के बाद पूरी दुनिया जलमग्न हो जाती है और जीवन का कोई नाम-निशान नहीं बचता तब भी एक वट वृक्ष बच जाता है, जो जीवन को फिर से शुरू करने में मदद करता है।

वाल्मीकि रामायण में भी है वर्णन:

अक्षयवट का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में भी मिलता है। भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता वनवास के दौरान प्रयागराज पहुंचे थे। इस दौरान भारद्वाज मुनि ने भगवान राम से कहा था यमुना नदी के तट पर उन्हें बहुत बड़ा वट वृक्ष मिलेगा। उसके पत्ते हरे रंग के हैं। वह चारों ओर से दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है। उसका नाम श्यामवट है। वृक्ष छाया में बहुत से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं।

अक्षयवट से जुड़ी एक अन्य कथा के अनुसार, अयोध्या के राजा दशरथ के निधन के बाद भगवान श्रीराम पिंडदान करने हेतु कुछ सामग्री लेने वन में गए हुए थे। इस दौरान राजा दशरथ अक्षयवट पर प्रकट हुए और सीता माता से भोजन मांगा। इस पर माता सीता ने अक्षय वट के नीचे की रेत का पिंड बनाकर राजा दशरथ को अर्पित कर दिया था।

इसके बाद जब प्रभु श्रीराम आए और पिंडदान करने लगे तब माता सीता ने दशरथ के वट वृक्ष में प्रकट होने और फिर पिंडदान करने की सारी घटना सुना दी। इस पर प्रभु श्रीराम ने यह बात वट वृक्ष से पूछी तो उसने भी अपनी पत्तों की सरसराहट के जरिए राजा दशरथ के पिंडदान वाली बात बता दी। इस पर माता सीता ने वट वृक्ष को अक्षय रहने अर्थात कभी नष्ट न होने का वरदान दे दिया। इसके बाद से यह वृक्ष अक्षयवट कहा जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि संगम में स्नान कर अक्षयवट के दर्शन करने से वंशवृद्धि और मानसिक व शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।

कई बार हुई नष्ट करने की कोशिश

इस्लामी आक्रांताओं से लेकर अंग्रेजों तक ने कई बार इस अक्षयवट को नष्ट करने की कोशिश की। लेकिन जो वृक्ष महाप्रलय में नष्ट नहीं हुआ, वह आक्रांताओं के तुच्छ प्रयास से कैसे नष्ट हो जाता। इतिहासकार बताते हैं कि साल 1575 में इस्लामी आक्रांता अकबर प्रयाग पहुंचा तो उसे संगम तट बहुत ही अच्छा लगा। ऐसे में उसने यहां रहने का फैसला कर लिया। इसके बाद बाद किला बनाया तो प्राचीन पातालपुरी मंदिर और इस वृक्ष को किले की सीमा के अंदर कर लिया। इस दौरान उसने वृक्ष को काफी हद तक नुकसान पहुंचाने की भी कोशिश की थी। हालांकि अक्षय वृक्ष को इससे किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ा।

अकबर के शासन के बाद इस किले पर जहांगीर का कब्जा था। उसने भी इस वृक्ष को काटने की कोशिश की। हालांकि जब पेड़ पूरी तरह से नहीं कट पाया तो फिर इसमें आग लगाकर जलाने की कोशिश की। हकीम शम्स उल्ला कादरी ने अपनी किताब ‘तारीख-ए-हिंद’ में लिखा है कि जहांगीर ने अक्षयवट को कटवा दिया था। इसके बाद उसने उस जगह को लोहे की मोटी चादर से ढंकवा दिया था, ताकि वृक्ष बाहर नहीं आ सके। लेकिन फिर भी अक्षय वट की कोंपलें फिर से निकल आई थीं। इसके बाद उसने जड़ों पर गर्म तवा रखवाकर उसमें आग लगवा दी थी। इसके बाद ऐसा समझा गया था कि अब वृक्ष पूरी तरह से नष्ट हो चुका है, क्योंकि वहां सिर्फ राख ही राख बची हुई थी। लेकिन इसके बाद भी अक्षय वट की कोंपलें एक बार फिर पनप गई थीं। इसके बाद जहांगीर ने अक्षय वट और मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते को ही बंद करा दिया था।

अलबरूनी ने भी किया जिक्र:

फारसी का जानकार अलबरूनी 1017 ईस्वी में भारत आया था। अपनी भारत यात्रा को लेकर अलबरूनी ने जो दस्तावेज तैयार किए थे, उन्हें किताब के रूप में ‘तारीख-अल-हिंद’ कहा जाता है। इस किताब में अलबरूनी ने लिखा है कि संगम के पास एक बड़ा वृक्ष है, जिसकी लंबी-लंबी शाखाएं हैं। यह एक वट वृक्ष है, जिसे अक्षयवट कहा जाता है। इस वृक्ष पर चढ़कर लोग गंगा में कूदते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। इसके दोनों तरफ मानव कंकाल और हड्डियों के अवशेष हैं। कई लोग तो खुद को गंगा में डुबोने के लिए एक व्यक्ति भी साथ लेकर जाते हैं. वो व्यक्ति तब तक उन्हें गंगा में डुबोए रखता है जब तक प्राण न निकल जाए।

2019 में आम जनता के लिए खुला मंदिर और अक्षयवट वृक्ष:

जहांगीर के बाद औरंगजेब ने भी पातालपुरी मंदिर और अक्षयवट को जनता के लिए बंद कर दिया था। इसके बाद अंग्रेजों ने भी यही परंपरा जारी रखी। आजाद भारत में पातालपुरी मंदिर और अक्षयवट दोनों ही लंबे समय तक भारतीय सेना के अधीन रहे। हालांकि साल 2018 में तत्कालीन सीडीएस जनरल बिपिन रावत और तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रयाग दौरे के दौरान इस मंदिर का निरीक्षण किया था। इसके बाद मंदिर का पुनरुद्धार तेजी से हुआ। पीने के पानी से लेकर परिक्रमा मार्ग व अन्य सभी व्यवस्थाएं दुरुस्त करने के बाद 10 जनवरी 2019 को अक्षयवट जनता के लिए खोल दिया गया था। इसके बाद से यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

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