अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा USAID (United States Agency for International Development) की फंडिंग रोकने सम्बन्धी आदेशों पर विश्व भर में हंगामा है लेकिन भारत के अखबारों और मीडिया में इसने सुर्खियाँ नहीं बटोरींI आखिर क्या वजह होगी इसकी? असल में इस चुप्पी की असली वजह ये है कि USAID के जरिये ‘इंटर-न्यूज़’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ को फंडिंग होती थीI दिल्ली में ‘इंटर-न्यूज़’ की सहयोगी संस्था है ‘डाटा-लीड्स’ और इस ‘डाटा लीड्स’ ने भारत में 75,000 से अधिक ‘पत्रकारों’ को प्रशिक्षण दिया हैI जाहिर सी बात है कि जिस संगठन के जरिये इतने पत्रकारों को ‘प्रशिक्षण’ मिल रहा है, उसके लोग तो हर संस्थान, हर मीडिया हाउस में हैंI ऐसे में वो अपने ही विदेशी फण्ड करने वाले के विरुद्ध बोलेगा कैसे? ऐसे गंभीर आरोप को एक बार हजम कर पाना मुश्किल लग सकता है, इसलिए आइये एक-एक करके देखते हैं कि कड़ियाँ जुड़ती कैसे हैंI
इस क्रम में सबसे पहले तो USAID के ‘इंटर-न्यूज़’ से सम्बन्ध हैं जो कि स्वयं ‘इंटर-न्यूज़’ की वार्षिक रिपोर्ट्स में स्पष्ट हैंI ‘इंटर-न्यूज़’ की भारतीय पार्टनर डाटा-लीड्स के एक्स हैंडल से उनके काम के बारे में काफी जानकारी मिल जाती हैI उनकी वेबसाइट पर पार्टनर्स/स्पोंसर्स की सूची में भी ‘इंटर-न्यूज़’ दिख जाता हैI डाटा-लीड्स काम कैसे करती है, ये देखें तब कहीं जाकर हमें ‘फैक्ट-शाला’ दिखाई देती हैI फैक्ट-शाला की वेबसाइट के मुताबिक, अबतक ये लोग 2500 वर्कशॉप करवा चुके हैं, जिसमें 75,000 लोगों को मीडिया सम्बन्धी ट्रेनिंग दी जा चुकी हैI इनके पास 253 प्रशिक्षक हैं, जो 18 भाषाओँ में प्रशिक्षण दे सकते हैंI इनकी पहुँच 500 शहरों तक है और 400 कॉलेज/यूनिवर्सिटी में हैI अब अनुमान लगाइए कि किस स्तर की और कितनी व्यापक पहुँच की बात की जा रही है। अगर सिर्फ ये मान लें कि जिन लोगों को प्रशिक्षण दिया गया, उनमें से 10 प्रतिशत लोग इनकी विचारधारा की ओर झुकाव रखते हैं और वो सोशल मीडिया पर मौजूद हैं, तो किसी खबर को फैलाने या किसी खबर को दबा देने की इनकी क्षमता का अनुमान आप लगा सकते हैंI
गोड्डा (झारखण्ड) से भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने USAID के जरिये राजीव गाँधी फाउंडेशन को मिलने वाले पैसे पर ही नहीं बल्कि जातीय जनगणना की वकालत करने वाले ‘रूरल डेवलपमेंट ट्रस्ट’ को USAID से मिलने वाले फण्ड पर सवाल उठाएI राजीव गाँधी फाउंडेशन के विजय महाजन और उनकी संस्था ‘प्रदान’ को मिलने वाले फण्ड पर भी उन्होंने सवाल खड़े कियेI इस क्रम में उन्होंने मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते, नेपाल के एथीस्ट मूवमेंट को बल देने में USAID के योगदान और वहाँ से हिन्दू राष्ट्र के समाप्त होने पर भी प्रश्न कियाI जो जकात फाउंडेशन अभी वक्फ बोर्ड के समर्थन में उतरी हुई है, उसे USAID से कितना क्या मिल रहा है, इसपर भी उन्होंने प्रश्न कियाI अब प्रश्न ये है कि भारत विखंडन के लिए प्रयासरत इतने संगठनों को मिलने वाले फण्ड पर क्या मीडिया की नजर नहीं पड़ी होगी? अवश्य पड़ी होगीI वो चुप क्यों रही, किसी ने कोई प्रश्न क्यों नहीं किया इसका उत्तर USAID के फण्ड से चलने वाले पत्रकारिता के ‘प्रशिक्षण’ में ही छुपा हुआ हैI
अब प्रश्न उठता है कि अगर साधारण लोग, मामूली सी इंटरनेट के जरिये की गयी जांच में इतनी बातें पता कर सकते हैं, USAID के इंटर-न्यूज़ से और फिर इंटर-न्यूज़ के फैक्ट-शाला तक के सम्बन्ध खंगाल सकते हैं तो हमारी जांच एजेंसियां क्या कर रही थीं? आखिर क्या उन्हें इन सबका पता नहीं चला? जो ‘एडिटर्स गिल्ड’ जैसे कथित रूप से स्वायत्त और निष्पक्ष पत्रकारिता के संस्थान हैं, क्या उनको इतने दिनों में किसी गड़बड़ी की आशंका नहीं हुई? स्पष्ट ही कहा जा सकता है कि बाहर के जो संगठन थे, वो निजी हितों के मोह में चुप रहे और सरकारी एजेंसियों ने राजनैतिक समस्याएँ उठने के डर से चुप्पी साध रखी थीI सत्ता का संतुलन बना रहे, अपने-अपने हित सधते रहें, इस चक्कर में जनता के हितों की साफ अनदेखी की गयी हैI
इंटरनेट के जरिये जो सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर बने, उनपर नियंत्रण रखने के लिए सरकारों ने दिशानिर्देश बनाएI अलग-अलग राज्यों में इनपर कानून भी बने, अभी हाल में हम लोग बिहार में ऐसे कानून और उनका मनीष कश्यप जैसे लोगों पर इस्तेमाल भी देख चुके हैंI बंगाल में सोशल मीडिया पर एक कार्टून साझा करने के लिए, ओड़िसा में नवीन पटनायक पर टिप्पणी के कारण और महाराष्ट्र में शरद पवार और बाला ठाकरे पर हुई टिप्पणी के कारण लोगों का जेल जाना भी हम लोगों ने देखा हैI इसकी तुलना में फेक न्यूज़ और भ्रामक जानकारियाँ फैलाने के लिए मुख्य धारा की पेड मीडिया पर कोई कानून या तो हैं ही नहीं, और अगर हैं भी तो उनका कभी प्रयोग नहीं होताI इसे राजनैतिक दलों की कायरता और अपना लाभ देखने से भी जोड़कर देखा जा सकता हैI कड़े कानून न बनाने के बदले में सरकार के अनुचित फैसलों पर इसके बदले में चुप्पी भी तो साधी जा सकती है? दिल्ली में केजरीवाल की सरकार मजीठिया आयोग की अनुशंसाएं लागू करने के नाम पर लम्बे समय तक एक बड़े धड़े का समर्थन पाती दिखी हैंI
अब जब संसद में भी इस मुद्दे पर सवाल उठने लगे हैं, तब क्या मुख्य धारा की मीडिया में इसपर चर्चा होनी शुरू होगी? ये एक बड़ा सवाल है जो नैतिकता से जुड़ा हुआ हैI बाकी इस सवाल का कोई जवाब आता है या नहीं, मीडिया पर उचित कानून बनने की प्रक्रिया शुरू होती भी है या नहीं, ये भविष्य के गर्भ में है, और उसके उत्तर के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगीI