मनुस्मृति: जन्म आधारित जाति और वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार करने वाले ग्रंथ में क्या बताया गया है?

मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म योग्यता है न कि जन्म आधारित संकीर्ण जातिव्यवस्था

मनुस्मृति को प्रमुख मानव धर्म शास्त्र कहा जाता है। यह धर्मशास्त्र समाज के लोगों का धर्म एवं कर्तव्य निर्धारित करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति में स्मृतियों का महत्व इस रूप में रहा है कि ये तत्कालीन समय में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों तथा कर्तव्यों का निर्धारण करती रही हैं। यह स्मृतियाँ समाज, शासन, सत्ता, न्याय इत्यादि सभी बिंदुओं पर अपना मत एवं विचार रखती हैं। सनातन व्यवस्था में स्मृतियाँ तत्कालीन आचारशास्त्र होने से समयांतर में सामाजिक व्यवस्था बदलने पर प्रगतिशीलता का समर्थन भी करती हुई दिखाई पड़ती हैं

मनुस्मृति जो एक प्रमुख एवं सबसे प्रसिद्ध स्मृति है, में कुल 12 अध्याय एवं 2,694 श्लोक हैं। यह ग्रंथ निम्नलिखित विषयों को विस्तृत रूप में वर्णित करता है।

इस प्रकार मनुस्मृति व्यक्ति एवं समाज से संबंधित सभी प्रमुख विषयों पर अपना विचार प्रस्तुत करती है। प्रसिद्ध विद्वान एन्टॉनी रीड के अनुसार बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया, जावाबाली आदि देशों में धर्मशास्त्रों, विशेष रूप से मनुस्मृति, को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। इन ग्रंथों को प्राकृतिक नियमों का स्रोत माना जाता था और राजाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे इनके अनुसार शासन करें। इन ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ बनाई गईं, उनका अनुवाद किया गया और उन्हें स्थानीय कानूनों में सम्मिलित किया गया।  लुई जैकोलिऑट ने अपनी पुस्तकबाइबल इन इंडियामें लिखा है कि मनुस्मृति वह आधारशिला थी, जिस पर मिस्र, फारस, ग्रीस और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार यह दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है कि मनुस्मृति का प्रभाव केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित न होकर विभिन्न सभ्यताओं के क़ानूनी एवं सामाजिक ढांचों पर भी निरंतर पढ़ता रहा है

मनुस्मृति में व्यक्तिगत चित्त शुद्धि से लेकर पूरे समाज व्यवस्था तक की उत्तम अवधारणाएँ हैं जो वर्तमान में भी हमारे लिए मार्गदर्शक की तरह हैं। जन्म के आधार पर जाति और वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार मनुस्मृति में ही देखने को मिलता है। सबके लिए शिक्षा एवं सबसे शिक्षा ग्रहण करने की बात मनुस्मृति में वर्णित है। समाज में सुस्थिरता एवं प्रगतिशीलता का परिचायक मनुस्मृति में वर्णित स्त्री विचार है जहाँ उन्हें समाज में समान अधिकार देने, उनका सम्मान करने, उन्हें कभी शोक न प्रदान करने, सदैव प्रसन्न रखने एवं संपत्ति में विशेष अधिकार देने जैसी महत्वपूर्ण एवं प्रगतिशील बातें कही गई हैं। मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म योग्यता है न कि जन्म आधारित संकीर्ण जातिव्यवस्था। मनुस्मृति अध्याय दस के श्लोक 65 में वर्णित है:

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।
क्षत्रियाज् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च ।।

अर्थात, शूद्र ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य में भी वर्ण परिवर्तन हो सकता है।

उल्लेखनीय है कि जब मनुस्मृति का आज के समय में विरोध किया जाता है तो इसे इस रूप में अंगीकार करते हुए विरोध किया जाता है कि यह ईसाईयों के बाइबल एवं मुस्लिमों के क़ुरान एवं हदीस के अनुरूप अक्षरश: पालन किया जाने वाला ग्रंथ है। वस्तुतः मनुस्मृति इन ग्रंथों की भाँति अक्षरश: पालन करने की बात नहीं करता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में आज स्मृति ग्रंथों को इस रूप में कभी नहीं लिया गया है। स्मृति ग्रंथ अपनी रचना के कालखंड में ही पूर्ण रूप में पालन किए जाते रहे हैं।मनुस्मृति का विरोध करने वाले एवं इसको जलाने वाले संभावित रूप में वही हैं जिन्होंने इसका पूरा पाठ नहीं किया है। उन्हें कबीरदास की इन पंक्तियों का ध्यान रखना चाहिए:

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथादेईउड़ाय॥

अर्थात, इस संसार में ऐसे सज्जनों की आवश्यकता है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है जो सार्थक को बचा लेता है और निरर्थक को उड़ा देता है।

मनुस्मृति का अंधा विरोध करने वाले लोगों को चाहिए कि जो विचार आज के समय के अनुकूल हों उसे अपना लें तथा जो अनुकूल न हो, उसे त्याग दें। यही विचार एक सुन्दर समाज का निर्माण करेगा। महात्मा गाँधी ने भी मनुस्मृति को जलाए जाने का विरोध किया था। उनके अनुसार जातिगत भेदभाव आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक है परंतु इसका हिंदू धर्म या मनु स्मृति जैसे ग्रंथों से कोई संबंध नहीं है। गाँधी जी के अनुसार मनुस्मृति विभिन्न व्यवसायों की महत्ता को रेखांकित करती है तथा यह अधिकारों की नहीं बल्कि कर्तव्यों की परिभाषा प्रस्तुत करती है। इनके अनुसार मनुस्मृति को सम्पूर्ण रूप से पढ़ा जाना चाहिए परंतु जो बातें सत्य और अहिंसा के शाश्वत सिद्धांतों से मेल नहीं खाती उन्हें स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय परंपरा में स्मृति ग्रंथ अनार्ष परंपरा में आते हैं जो कालखंड के अनुरूप परिवर्तन की अपेक्षा रखते हुए युगानुकुल बने रहते हैं।

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