’50 करोड़ यूरोपियन 30 करोड़ अमेरिकियों से क्यों मदद मांग रहे’- NATO मेंबर पोलैंड के पीएम के इस बयान के असल मायने क्या?

कमजोर पड़ता NATO या फिर यूरोप बनाम अमरीका

ट्रम्प और ज़ेलेन्स्की के बीच हुई तीखी बहस पर पोलैंड के पीएम के बयान के असल मायने क्या

ट्रम्प और ज़ेलेन्स्की के बीच हुई तीखी बहस पर पोलैंड के पीएम के बयान के असल मायने क्या (AIद्वारा बनाई गई तस्वीर)

ट्रम्प और ज़ेलेन्स्की के बीच की तीखी बहस वैश्विक राजनीति में इन दिनों चर्चा की मुख्य बहस बन गई है। इसे लेकर दुनिया दो हिस्सों में बंटी नजर आ रही है—कुछ इसे ज़ेलेन्स्की की कूटनीतिक भूल मान रहे हैं, जबकि यूरोपीय संघ (EU) ने खुलकर यूक्रेन के समर्थन में मोर्चा खोल दिया है। इसी बीच, NATO और EU के सदस्य देश पोलैंड के प्रधानमंत्री डोनाल्ड टस्क का बयान चर्चा का विषय बन गया है। उनका सवाल सिर्फ यूक्रेन संकट तक सीमित नहीं, बल्कि यूरोप की सुरक्षा व्यवस्था और NATO की भूमिका को लेकर गहरे संदेह को जन्म देता है।

ट्रम्प ज़ेलेन्स्की तीखी बहस पर पोलैंड के प्रधानमंत्री टस्क ने कहा, “यूक्रेन के साथ यूरोपीय देशों की सेना में 2.6 मिलियन सैनिक हैं, जबकि अमेरिका के पास 1.3 मिलियन, चीन के पास 2 मिलियन और रूस के पास 1.1 मिलियन सैनिक हैं। यूरोप अगर गिनना जानता है, तो उसे खुद पर भरोसा करना चाहिए। यह एक विरोधाभास है कि 50 करोड़ यूरोप की जनता 30 करोड़ अमेरिकियों से गुहार लगा रही है कि वे 14 करोड़ रशियन से उनकी रक्षा करें।”

प्रधानमंत्री डोनाल्ड टस्क का यह बयान न केवल NATO के मौजूदा ढांचे पर सवाल उठाता है, बल्कि अमेरिका की बदलती भू-राजनीतिक रणनीति को भी उजागर करता है। इसे व्यापक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है, खासकर तब जब ट्रंप प्रशासन की वापसी के साथ अमेरिका की प्राथमिकताएं स्पष्ट रूप से बदलती दिख रही हैं। वाशिंगटन अब रूस-यूक्रेन युद्ध से अपना ध्यान हटाकर चीन और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की ओर केंद्रित कर रहा है। इसी संदर्भ में, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज पहले ही अमेरिका के यूरोप से दूरी बनाने को लेकर चिंता जता चुके हैं। ऐसे में, ट्रंप और जेलेंस्की के बीच हुई तीखी बहस के बाद यूरोप और अमेरिका के बीच खिंचती लकीरें अब खुलकर सामने आने लगी हैं।

यूरोप बनाम अमरीका

अमेरिका और यूरोप के बीच बढ़ता तनाव केवल हालिया घटनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें अमेरिका की बदलती विदेश नीति में गहराई से जुड़ी हुई हैं। बाइडेन प्रशासन के दौरान अमेरिका की वैश्विक पकड़ पहले जैसी मजबूत नहीं रही, जिससे उसके पारंपरिक सहयोगियों के बीच असंतोष बढ़ता गया। इसी पृष्ठभूमि में डोनाल्ड ट्रंप ने “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” को अपने चुनावी अभियान का केंद्र बनाया, जिसने उनकी जीत में अहम भूमिका निभाई।

राष्ट्रपति पद संभालने के बाद ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका अब यूरोप की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं है। उन्होंने NATO सहयोगियों को चेतावनी दी कि वे अपने रक्षा खर्च में वृद्धि करें, अन्यथा अमेरिका अपने समर्थन पर पुनर्विचार करेगा। यह बयान यूरोपीय नेताओं के लिए एक स्पष्ट संदेश था कि अमेरिका अब पहले की तरह यूरोप की सैन्य सुरक्षा की गारंटी नहीं देगा। यही नहीं बाइडेन प्रशासन के दौरान अमेरिका ने यूक्रेन को 106 अरब डॉलर की सैन्य सहायता दी थी, लेकिन ट्रम्प और उनके सहयोगियों ने इसे अमेरिकी संसाधनों की बर्बादी करार दिया। सत्ता में आते ही ट्रंप ने यूक्रेन की मदद रोक दी, जिससे यूरोप पर सैन्य और आर्थिक दबाव कई गुना बढ़ गया।

लेकिन असली झटका तब लगा जब अमेरिकी प्रशासन ने रूस के साथ वन-टू-वन बैठक की। इस गुप्त वार्ता ने यूरोपीय नेताओं को हिला दिया। उन्हें डर है कि अमेरिका अब यूरोप को उसके हाल पर छोड़ सकता है और रूस से ऐसा समझौता कर सकता है जिससे यूक्रेन पूरी तरह असहाय हो जाए। यूरोप में पहले ही यह आशंका थी कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका की विदेश नीति को एशिया और इंडो-पैसिफिक पर केंद्रित करेगा, लेकिन रूस के साथ सीधी बातचीत ने इन आशंकाओं को और पुख्ता कर दिया।

इसका असर यह हुआ कि शुक्रवार को ट्रम्प और ज़ेलेन्स्की के बीच हुई तीखी वार्ता के बाद जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा, स्पेन, पोलैंड और नीदरलैंड सहित कई यूरोपीय देशों के नेताओं ने यूक्रेन के समर्थन में सोशल मीडिया पर बयान जारी किए। जिसमें कहा गया कि यूरोप अब इस सच का सामना कर रहा है कि उसे अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भरता कम करनी होगी। बता दें कि यह इतना आसान नहीं होने वाला अमेरिका के पास अभी भी जर्मनी और ब्रिटेन सहित पूरे यूरोप में 30 से अधिक सैन्य अड्डे हैं, जहां 60,000 से अधिक सैन्यकर्मी तैनात हैं। ऐसे में अमरीका के बिना फिलहाल यूरोप की ताकत रूस के सामने बहुत कम है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने युद्ध शुरू होने के बाद से यूक्रेन को 114 बिलियन डॉलर की सहायता दी थी, जबकि यूरोप का योगदान 132 बिलियन डॉलर था।

इसी संदर्भ में, रविवार को यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर द्वारा आयोजित एक शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन पहुंचे। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट था—रूस के साथ किसी भी संभावित शांति समझौते में यूरोप और यूक्रेन मिलकर अमेरिका को सुरक्षा गारंटर के रूप में कैसे वापस ला सकते हैं? यह चिंता निराधार नहीं है, क्योंकि यदि अमेरिकी समर्थन पूरी तरह समाप्त हो जाता है और रूस युद्धविराम समझौते को तोड़ता है, तो यूरोप के पास उसे रोकने के सीमित विकल्प ही बचेंगे। यही कारण है कि शुक्रवार को ट्रम्प और ज़ेलेन्स्की के बीच हुई तीखी बहस के बावजूद, जेलेंस्की अब भी वाशिंगटन से सुरक्षा गारंटी की मांग कर रहे हैं, ताकि रूस के बढ़ते खतरे का प्रभावी रूप से सामना किया जा सके।

क्या NATO का अंत निकट है

यूरोप और अमेरिका के बीच बढ़ती राजनीतिक दरार ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है—क्या NATO अब अपने अस्तित्व के अंत की ओर बढ़ रहा है? डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी ने यूरोप की भू-राजनीतिक स्थिति को एक अस्थिर मोड़ पर ला खड़ा किया है। अमेरिका, जिसे कभी यूरोपीय सुरक्षा का प्रमुख संरक्षक माना जाता था, अब अपनी पुरानी भूमिका से हटता हुआ दिखाई दे रहा है। ट्रंप प्रशासन की नीतियां और रिपब्लिकन पार्टी का दृष्टिकोण यह स्पष्ट कर रहा है कि यूरोप और NATO अब वाशिंगटन की प्राथमिकताओं में पहले की तरह प्रमुख नहीं हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध पर चल रही कूटनीतिक बातचीत, अमेरिका का बदलता वैश्विक दृष्टिकोण और यूरोपीय देशों की बढ़ती चिंताएं इस बदलते समीकरण को दर्शाती हैं। हाल के दिनों में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, जो इस बदलाव की पुष्टि करती हैं—

1️⃣ संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिका का अप्रत्याशित रुख: रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर हुई मतदान प्रक्रिया में अमेरिका ने चौंकाने वाला निर्णय लिया और अप्रत्याशित रूप से रूस के पक्ष में समर्थन दिखाया, जबकि भारत और चीन ने मतदान से दूरी बनाए रखी। यह संकेत देता है कि अमेरिका की विदेश नीति में बड़ा परिवर्तन हो रहा है।

2️⃣ फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों का अमेरिका दौरा: जहां यूरोपीय सुरक्षा और NATO की भूमिका को लेकर गहन चर्चा हुई। हालांकि, ट्रंप और मैक्रों के बीच इस विषय पर स्पष्ट मतभेद उभरकर सामने आए।

NATO के लिए कठिन समय, अमेरिका-यूरोप संबंधों में बढ़ती खाई

डोनाल्ड ट्रम्प और उनके सहयोगी जेडी वेंस की नीति यूरोप को यह स्पष्ट संदेश देने की है कि अमेरिका अब वैश्विक सुरक्षा की जिम्मेदारी अकेले उठाने को तैयार नहीं है, जब तक कि यूरोप स्वयं सैन्य और आर्थिक रूप से अधिक योगदान नहीं देता। ट्रंप का यह बयान कि “अगर NATO सदस्य अपने हिस्से का योगदान नहीं देते, तो अमेरिका उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं लेगा”—ने पूरे यूरोप में गहरी चिंता पैदा कर दी है।

इसी कारण यूरोपीय नेतृत्व के भीतर तनाव बढ़ रहा है। अमेरिका की बदली हुई विदेश नीति ने NATO की स्थिरता को संदेह के घेरे में डाल दिया है, जिससे यह सवाल और अधिक प्रासंगिक हो गया है—क्या NATO अपने अस्तित्व की अंतिम सीमा तक पहुंच चुका है?

ट्रम्प की ‘America First’ नीति

ट्रम्प की रणनीति स्पष्ट है—”America First” और यूरोप को अब अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठानी होगी। उन्होंने यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य सहायता को रोकने की बात भी कही है, जिससे यूरोपीय देशों की चिंताओं में और वृद्धि हुई है। ट्रंप का मानना है कि अमेरिका को उन संघर्षों पर अपने संसाधन खर्च नहीं करने चाहिए, जिनका अमेरिकी नागरिकों पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता।

ऐसे में अब यूरोप को तय करना होगा कि वह अमेरिकी सुरक्षा आश्रय के बिना अपने बचाव के लिए कौन-सी रणनीति अपनाएगा। क्या वे अपने रक्षा बजट में भारी वृद्धि करेंगे? क्या NATO के अलावा किसी द्दोसरे विकल्प को तलाशेंगे? यह स्पष्ट हो चुका है कि अमेरिका और यूरोप के बीच यह तनाव केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक और आर्थिक भी है। आने वाले समय में यह संघर्ष और गहराएगा या कोई नया संतुलन विकसित होगा, यह देखने योग्य होगा। लेकिन एक बात निश्चित है—NATO की स्थिरता अब पहले जैसी नहीं रही, और अमेरिका-यूरोप संबंध एक नए और अधिक जटिल दौर में प्रवेश कर चुके हैं।

 

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