कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इस साल के बजट में मुस्लिमों के लिए कई प्रावधान किए हैं। हज भवन और मुस्लिम बस्तियों को विकसित करने से लेकर कब्रिस्तान घेराबंदी करने के लिए तमाम प्रावधान किए गए हैं। हालाँकि, इन सबमें सबसे बड़ा विवाद सरकारी ठेकों में मुस्लिमों को 4 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रावधान को लेकर हुआ है। इस फैसले की हर तरफ आलोचना हो रही है। वहीं, भाजपा ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के बजट को मुस्लिम लीग का बजट करार दिया है। इन तमाम आरोपों एवं आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस सरकार इस मुद्दे पर पीछे हटने को तैयार नहीं है, भले ही उस पर मुस्लिम तुष्टीकरण के कितने ही आरोप लगे हैं। शायद कांग्रेस चाहती भी यही है कि ये आरोप उस पर लगे, ताकि इसका वह राजनीतिक फायदा उठा सके।
राज्य सरकार के बजट में किए गए आरक्षण के इस प्रस्ताव को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने शुक्रवार (14 मार्च 2025) को कैबिनेट मीटिंग में कर्नाटक ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक प्रोक्योर्मेंट (KTPP) एक्ट में बदलाव को मंजूर कर लिया गया है। अब राज्य सरकार इस एक्ट में बदलाव के लिए संशोधन बिल विधानसभा के इसी बजट सत्र में पेश करेगी। अगर विधानसभा में यह संशोधन बिल पास हो जाता है तो सरकारी टेंडरों में मुस्लिमों को चार प्रतिशत आरक्षण देने का रास्ता साफ हो जाएगा। इस तरह कांग्रेस सरकार ने आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बहस को दोबारा छेड़ दिया है। इसके साथ ही संविधान में किए गए प्रावधानों का भी मजाक उड़ाया है, जिसमें धर्म के आधार पर आरक्षण देने की स्पष्ट मनाही है।
सिद्धारमैया सरकार के इस फैसले पर भाजपा सांसद एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि पार्टी कांग्रेस के इस निर्णय का विरोध करती है। उन्होंने कहा कि सरकारी ठेकों में आरक्षण देना पूरी तरह असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर इसकी अनुमति दी जा सकती है, लेकिन धार्मिक आधार पर आरक्षण देना भाजपा को स्वीकार्य नहीं है।
भारत में आरक्षण की व्यवस्था
भारत में आरक्षण की व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। अंग्रेज भारतीय लोगों को अलग-अलग जातियों में बाँटकर- बाँटो और राज करो की नीति पर काम कर रहे थे। जाति-आधारित आरक्षण प्रणाली का विचार मूलतः 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले द्वारा प्रस्तुत किया गया था। आज जो आरक्षण है, वह 1993 में तब शुरू हुआ था जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक पुरस्कार पेश किया था। इस पुरस्कार में मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय लोगों और दलितों के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया था। हालाँकि, महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया, जबकि भीमराव अंबेडकर ने इसका समर्थन किया था। इसलिए इस स्थिति से निपटने के लिए गाँधी और अंबेडकर के बीच लंबी बातचीत के बाद 1932 में पूना समझौते हुआ। इस समझौते के अनुसार, देश में एक ही हिंदू निर्वाचन क्षेत्र होगा, जिसमें दलितों के लिए सीटें आरक्षित होंगी।
आगे चलकर अंग्रेजों ने देश की स्वतंत्रता से लगभग 20 साल पहले आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी। अछूत जातियों के उद्धार के नाम पर अंग्रेजों ने अनुसूचित जातियों के नाम से एक अनुसूची बनाकर आरक्षण लागू किया था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी इसकी लंबे समय से माँग कर रहे थे। भारत जब आजाद हुआ और देश का संविधान बना तो अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की दो कैटेगरी बनाकर दोनों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को चालू रखा गया। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (SC/ST) की परिभाषा भारत के संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में दी गई है।
संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि कौन सी जातियाँ SC/ST वर्ग में होगीं। हालाँकि, संविधान में ये जरूर कहा गया है कि किसी राज्य के राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति इन पर फैसला लेंगे। संविधान के अनुच्छेद 15 (4) व 15 (5) में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों या फिर एससी-एसटी के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था है। बाद में 1990 के दशक में पिछड़ों के लिए भी आरक्षण लागू कर दिया गया। अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। पिछड़े वर्गों का यह आरक्षण मंडल कमीशन की अनुशंसा पर भाजपा की समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार ने लागू किया था।
अंग्रेजों द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए शुरू की गई आरक्षण की व्यवस्था को भारत ने अपना लिया था। संविधान सभा ने सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और सरकारी शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण तय किया था। इस आरक्षण को सिर्फ 10 वर्ष के लिए लागू किया गया था। उसमें कहा गया था कि 10 साल के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी। समीक्षा का अर्थ इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका अर्थ ये था कि समाज के ऊपरी पायदान पर आ चुकी जातियों को इससे अलग किया जा सकता है। हालाँकि, भारत में हटाने की जगह 78 साल बाद भी इसे ढोया जा रहा है, क्योंकि लोकतंत्र लोगों की संख्या पर आधारित तंत्र है और जिन जातियों की जनसंख्या अधिक है, उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए कोई दल आरक्षण से अलग नहीं कर रहा है।
वहीं, संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था को नकार दिया गया है। अल्पसंख्यकों को पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण मिल सकता है, लेकिन धार्मिक आधार पर नहीं। हालाँकि, कर्नाटक की सरकार ने संविधान की इस व्यवस्था को अपने राजनीतिक लाभ के लिए तिलांजलि दे दी। कांग्रेस सरकार ने जिस से धार्मिक आधार पर मुस्लिमों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है, उसे कोर्ट में जरूर चुनौती दी जाएगी और उम्मीद है कि कोर्ट इसे रद्द भी करेगा, जैसा कि बिहार के मामले में हुआ था। बिहार में जातिगत जनगणना के नाम पर राजद की गठबंधन वाली नीतीश कुमार की सरकार ने आरक्षण की सीमा को राज्य में बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया था। हालाँकि, कोर्ट में चुनौती मिलने के बाद इस पर रोक लगा दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में कहा है कि आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं किया जा सकता है। धार्मिक आधार पर आरक्षण बिल्कुल नहीं दिया जा सकता।
आरक्षण भारत में एक सुलगता सवाल है। लोगों का तर्क है कि आरक्षण की व्यवस्था लोगों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए है। वहीं, आरक्षण का लाभ ले रहे लोगों का तर्क है कि आरक्षण का आर्थिक पक्ष नहीं, बल्कि सामाजिक पक्ष है। जो लोग समाज ने निचले पायदान पर रहे, जिनके साथ भेदभाव, छुआछूत हुआ उन्हें आरक्षण मिला। यह आरक्षण तब तक लागू रहना चाहिए, जब तक कि ऊँच नीच का भेद नहीं मिट जाता है। वहीं, आरक्षण का विरोध करने वालों का तर्क है कि आरक्षण का लाभ ले रहीं कई जातियाँ कथित सवर्ण जाति से भी आगे निकल चुकी हैं।
इनमें अहीर, कुर्मी, कुशवाहा, राजभर, जाटव, मीणा आदि जातियाँ शामिल हैं, जो आर्थिक तौर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक तौर पर भी बहुत आगे जा चुकी हैं। इसलिए संविधान में कहे गए आरक्षण की समीक्षा की बात की जानी चाहिए और जो जातियाँ सवर्णों के बराबर या उनसे आगे निकल चुकी हैं, उन्हें आरक्षण व्यवस्था से निकाला जाए। आरक्षण विरोधी लोगों का तर्क है कि ये जातियाँ वंचितों का भी हक खा रही हैं। वहीं, संख्या बल में अधिक होने के कारण इन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर निकालने का साहस कोई भी सरकार नहीं जुटा पा रही है। आरक्षण का लाभ उठाने वाली ये जातियाँ तो अब निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग कर रही हैं, जो कि देश के लिए बड़ी समस्या बन गई है।
आरक्षण और ब्रेन ड्रेन
आरक्षण के कारण संविधान में दिए गए बराबरी के अधिकार की पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा है। इसके अलावा, जो कुशल एवं मेधा-शक्ति से युक्त हैं, उन्हें भी नजरअंदाज किया जा रहा है। इसके कारण आम लोगों में आक्रोश तो है ही, देश में ब्रेन ड्रेन की समस्या उत्पन्न हो गई है। जो मेधावी एवं प्रतिभाशाली हैं, वो देश के बाहर जाकर पढ़ाई कर रहे हैं और देश में अवसर की कमी के कारण बाहरी देशों के लिए काम कर रहे हैं। इससे आखिरकार अपने देश को ही नुकसान हो रहा है। विज्ञान, तकनीक, अर्थशास्त्र सहित विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले प्रतिभाशाली देश के बाहर अवसर का तलाश कर रहे हैं।
आखिरकार इससे देश और देश की जनता को ही नुकसान हो रहा है। आज विश्व की सबसे बड़ी कंपनियों के प्रबंधक ऐसे लोग हैं, जिन्हें देश में कम अवसर मिला और वे बाहर जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं। बीते दिनों से जाति के नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत तेज हुई है। मेधावी लोगों से ही देश की तरक्की होती है। मेधावी गरीब या अमीर किसी भी वर्ग में हो सकते हैं। अगर कोई अमीर वर्ग का मेधावी है तो उसे पढ़ाई या शोध में किसी तरह की समस्या नहीं आएगी, लेकिन गरीब तबके का है तो यह उसके लिए सपना होगा। ऐसे में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकार को आरक्षण वित्तीय सहायता के रूप में देनी चाहिए। उनकी पढ़ाई लिखाई से लेकर शोध तक का खर्च सरकार को उठाना चाहिए।
वहीं, जातिगत आरक्षण के कारण कम होनहार लोग अध्यापक, इंजीनियर या डॉक्टर बन रहे हैं। इसे कुशलता में भारी कमी के रूप में देखा गया है। इतना ही नहीं। कई बार तो ये भी देखा गया है कि आरक्षण की वजह से कम नंबर मिलने के बावजूद किसी अकुशल छात्र को IIT या IIM या AIIMS में नामांकन मिल जाता है, लेकिन वो पढ़ाई के दबाव को सहन नहीं कर पाता और कई बार उन्हें इसे लेकर अवसादग्रस्त भी देखा गया है।ऐसे मामले लगातार आ रहे हैं, जो आरक्षण व्यवस्था की वर्तमान स्थिति पर सवाल खड़े करता है। ऊपर से कर्नाटक जैसे राज्य धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करके कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं।
जिस देश में आरक्षण को लेकर पहले से ही विवाद चल रहा हो वहाँ संविधान के दायरे से बाहर निकल धार्मिक आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है, जो विभाजन को गहरा करेगा। भाजपा सरकार से पहले इस देश ने मुस्लिम तुष्टिकरण की चरम राजनीति को देखा है, जिसमें कहा जाता था कि इस देश के संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला हक है। जब मुस्लिमों के त्योहार आदि आते थे तो हिंदुओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए जाते थे। यहाँ तक कि सांप्रदायिक बिल लाने की भी तैयारी थी, जिसमें दंगा होने की स्थिति में सारी जिम्मेदारी हिंदुओं पर डालने की तैयारी थी। ऐसे में अगर कर्नाटक की कांग्रेस सरकार सरकारी ठेकों में मुस्लिमों को आरक्षण की व्यवस्था करती है तो संविधान का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित कर राजनीतिक स्तर पर लाभ लेने की कोशिश कही जा सकती है।
(इस लेख में प्रस्तुत किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)