आज ही के दिन यानी 10 मार्च को भारत की सबसे पहली आधुनिक नारीवादियों में शामिल सावित्रीबाई फुले का 1897 में निधन हुआ था। उनके निधन को एक सदी से अधिक समय बीत गया है लेकिन उनके कार्यों को आज भी याद किया जाता है। सावित्रीबाई फुले ने देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में उस दौर में अहम भूमिका निभाई थी जब महिला शिक्षा पर ज्यादा गौर नहीं दिया जाता था। उन्होंने अपने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर देश में लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक समय का पहला स्कूल 1848 में पुणे में खोला था और भारत में महिला शिक्षा की अगुआ बनी थीं।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा के नायगांव में एक किसान परिवार में हुआ था। महिला शिक्षा की नायिका बनीं सावित्री फुले को सबसे पहले अपने घर में शिक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा था। एक दिन जब वह अपने घर में बैठकर अंग्रेज़ी की किताब पढ़ रही थीं तो उनके पिता ने देख लिया और डांटकर पढ़ने से मना कर दिया। पिता की डांट से आहत सावित्रीबाई ने तभी प्रण कर लिया था कि वे पढ़ाई ज़रूर करेंगी। सावित्रीबाई ने अपनी पढ़ाई के अलावा दो शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी दाखिला लिया था जिनमें से पहला अहमदनगर में सिंथिया फर्रार द्वारा संचालित संस्थान में था और दूसरा पूना के एक सामान्य स्कूल में था।
अपनी पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अन्य लड़कियों की शिक्षा का बीड़ा भी उठा लिया। बताते हैं कि जब वह पढ़ाने के लिए निकलती थीं तो लोग उन्हें पत्थरों से मारते थे और कूड़ा और कीचड़ भी फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी साड़ी को बदल लेती थीं। उन्होंने ना केवल महिला शिक्षा के लिए काम किया बल्कि जातिवाद, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयों के खिलाफ भी आवाज़ उठाई थी। वे एक कवियत्री भी थीं और उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था। उनकी कविताओं में सामाजिक सुधार और नारी शिक्षा पर जोर रहता था।
1840 में केवल 9 वर्ष की उम्र में सावित्री बाई का विवाह 13 वर्ष के ज्योतिराव फुले से हुआ था। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर लड़कियों की शिक्षा के लिए कुल 18 स्कूलों की स्थापना की थी। जिस दौर पर महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी थी समाज में कुरीतियां चरम पर थीं उस दौर में उन्होंने एक साल के भीतर 5 नए स्कूल खोले थे और तत्कालीन सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था। सावित्रीबाई ने महिलाओं के अधिकारों से संबंधित मुद्दों के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए महिला सेवा मंडल बनाया था। वे महिलाओं को एक जैसी जगह पर इकट्ठा करती थीं जो किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से रहित हो और जाति भेद को भूलकर सभी महिलाएं एक ही चटाई पर बैठा करती थीं। उन्होंने शिशु हत्या की रोकथाम के लिए एक आश्रम भी बनाया था जहां विधवाएं सुरक्षित रूप से अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं और यदि वे चाहें तो उन्हें वहां छोड़ सकती थीं।
महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने 1863 में पुणे में ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना की थी और यह भारत का पहला ऐसा गृह था जिसमें गर्भवती विधवाओं और बलात्कारी महिलाओं को आश्रय दिया जाता था। साथ ही, उन्होंने विधवाओं के लिए पुनर्विवाह की परंपरा की भी शुरुआत की थी और उन्होंने नाइयों के खिलाफ एक हड़ताल का नेतृत्व किया ताकि वे विधवाओं का मुंडन न कर सकें। साथ ही साथ उन्होंने अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया था। ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की जो बिना पुजारी और दहेज के विवाह संपन्न कराता था। सत्यशोधक समाज की स्थापना निम्न जाति, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को शिक्षा देने तथा समाज की शोषक परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से की गई थी
1897 में नालासोपारा के क्षेत्र में प्लेग महामारी फैल गई थी तो सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत के साथ मिलकर इससे प्रभावित व्यक्तियों के इलाज के लिए एक क्लिनिक खोला था। पुणे के पश्चिमी उपनगर में संक्रमण से मुक्त वातावरण में यह क्लिनिक खोला गया था। इस महामारी के दौरान पांडुरंग बाबाजी गायकवाड़ के बेटे भी प्लेग की चपेट में आ गए थे तो सावित्रीबाई फुले उनके पास गईं और उन्हें अस्पताल ले आईं। इस दौरान वे खुद भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।