उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक नगर गोरखपुर, जो गोरखनाथ मंदिर की आस्था, गीता प्रेस के ज्ञान और राप्ती नदी की शांति के लिए प्रसिद्ध है, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद एक कड़वी सच्चाई को भी समेटे हुए था। आज़ादी के 70 साल बाद भी यहां के वनवासी वनटांगिया समुदाय को वो बुनियादी अधिकार और नागरिक दर्जा नहीं मिला था, जिसके वे हकदार थे। दशकों तक यह समुदाय उपेक्षा का शिकार रहा, सरकारी सुविधाओं से वंचित और मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष करता रहा।
2017 से पहले इन लोगों की जिंदगी बेइंतहा मुश्किलों से भरी थी। झोपड़ियों में रहना उनकी नियति बना दी गई थी, क्योंकि उन्हें 4 फीट से ऊंचा मकान बनाने की इजाजत तक नहीं थी। पक्के मकान का तो सवाल ही नहीं था। अगर किसी ने कच्ची ईंट की दीवार खड़ी करने की भी कोशिश की, तो वन विभाग के लोग उसे पकड़कर पुलिस के हवाले कर देते थे। महिलाओं और बच्चों के लिए हालात और भी कठिन थे-न शिक्षा, न स्वास्थ्य सुविधाएं, न ही कोई कानूनी अधिकार। यह समुदाय अपने ही देश में परायों की तरह रहने को मजबूर था। इसी समुदाय से जुड़े एक युवक ने पिछली सरकारों के दौर की अपनी दुर्दशा बयां करते हुए कहा, “हम लोगों को पहले समाज में ‘जंगल के बंदरों’ की तरह देखा जाता था।”
लेकिन 2017 में जब योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद संभाला, तो उन्होंने इस उपेक्षित समुदाय की तकदीर बदलने का बीड़ा उठाया। उन्होंने न सिर्फ वनटांगिया समुदाय को सम्मानजनक जीवन देने की पहल की, बल्कि दशकों से नागरिक पहचान से वंचित इन लोगों को भारत का अधिकारपूर्ण नागरिक भी बनाया। यह सिर्फ प्रशासनिक फैसला नहीं था, बल्कि उन हजारों परिवारों के लिए एक नया सवेरा था, जो वर्षों से हाशिए पर धकेले गए थे।
योगी आदित्यनाथ: संघर्ष, मुकदमे और वनटांगिया समुदाय का नया सवेरा
1998 में जब योगी आदित्यनाथ पहली बार गोरखपुर से सांसद बने, तो उन्हें पता चला कि वनटांगिया बस्तियों में नक्सलियों की गतिविधियां पैर पसार रही हैं। उन्होंने महसूस किया कि अगर इस समुदाय को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से जोड़ा जाए, तो नक्सलवाद की जड़ें कमजोर की जा सकती हैं। लेकिन यह राह आसान नहीं थी। वनटांगिया समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने के उनके प्रयासों में कानूनी अड़चनें भी आईं।
2009 में जब उनके सहयोगियों ने जंगल तिकोनिया नंबर तीन में वनटांगिया बच्चों के लिए अस्थायी स्कूल बनाने की कोशिश की, तो वन विभाग ने इसे अवैध करार देते हुए एफआईआर दर्ज कर दी। लेकिन योगी आदित्यनाथ अपने संकल्प से पीछे नहीं हटे। उन्होंने वन विभाग से सीधा संवाद किया, अपने तर्कों और दृढ़ता से अधिकारियों को निरुत्तर कर दिया, और आखिरकार वह स्कूल बनकर रहा। यह केवल एक स्कूल नहीं था, बल्कि उस समुदाय के भविष्य की पहली नींव थी।
गोरखपुर, जो गोरखनाथ मंदिर की आध्यात्मिकता, गीता प्रेस के ज्ञान और राप्ती नदी की शांति के लिए पहचाना जाता है, वहां की एक कड़वी सच्चाई यह थी कि आजादी के सात दशक बाद भी वनटांगिया समुदाय को नागरिक अधिकार और बुनियादी सुविधाएं नसीब नहीं हुई थीं। उनके पास न बिजली थी, न पानी, न पक्के घर, न शिक्षा, और सबसे बड़ा अन्याय यह कि वे अपने ही देश में वोट डालने के अधिकार से वंचित थे। जंगल में रहने के बावजूद वे उसके अधिकारी नहीं माने जाते थे, क्योंकि वन विभाग कभी भी उन्हें बेदखल कर सकता था। लोग झोपड़ियों में रहते थे, बारिश के दिनों में बोरी बिछाकर सोते थे, और पढ़ाई के लिए मोमबत्ती की रोशनी ही एकमात्र सहारा थी। इसी समुदाय से जुड़े एक युवक ने पिछली सरकारों के दौर की अपनी दुर्दशा बयां करते हुए कहा, “हम लोगों को पहले समाज में जंगल के बंदरों की तरह देखा जाता था।”
लेकिन जब 2017 में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने इस समुदाय को सम्मान और अधिकार दिलाने का बीड़ा उठाया। उनकी सरकार ने इन बस्तियों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिलाया, जिससे उन्हें न सिर्फ नागरिकता का अधिकार मिला, बल्कि सरकारी योजनाओं का भी लाभ मिलने लगा। गांवों में सड़कें बनीं, बिजली के खंभे लगे, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुले, और स्कूलों में बच्चों की किलकारियां गूंजने लगीं। जो बुजुर्ग जीवनभर बेगानेपन का दर्द लिए बैठे थे, उन्होंने पहली बार लोकतंत्र में अपनी भागीदारी निभाई और गर्व से मतदान किया।
यह बदलाव सिर्फ सरकारी योजनाओं की देन नहीं था, बल्कि योगी आदित्यनाथ की अटूट प्रतिबद्धता और संघर्ष का परिणाम था। जिन्होंने कभी पहचान के संकट से जूझते हुए दिन बिताए, वे आज सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। यह बदलाव मंदिर से मिले आशीर्वाद की तरह था, जिसने गोरखपुर की धरती पर वनटांगिया समुदाय के लिए एक नई कहानी लिख दी—उनकी पहचान, उनके अधिकार और उनके सम्मान की कहानी।