जयंती विशेष: राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज- संघ, सेवा और स्वतंत्रता संग्राम में जनचेतना के अग्रदूत

राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज

राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज (Image Source: hindivivek)

30 अप्रैल को राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज की जयंती पर आज राष्ट्र एक बार फिर उस संन्यासी को स्मरण करता है, जिसकी साधना, सेवा और राष्ट्रीय चेतना ने जनजागरण की मशाल जलाई। आज जब हम राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज की जयंती पर उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल एक संत को याद करना नहीं, बल्कि उस राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक समरसता को नमन करना है, जिसे उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बनाया। महाराष्ट्र के अमरावती जिले के ‘यावली’ गांव में जन्मे माणिक (बाद में तुकड़ोजी महाराज), एक ऐसे तपस्वी बने जिन्होंने समाज, संस्कृति और स्वाधीनता संग्राम के हर मोर्चे पर निर्णायक भूमिका निभाई।

भजन से बने ‘तुकड़ो जी’, संन्यास से बने ‘राष्ट्रसंत’

बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक रुझान रखने वाले माणिक, भजन-कीर्तन के माध्यम से लोगों में भक्ति की अलख जगाते रहे। बरखेड़ में अपनी मां के गुरु आड्कुजी महाराज के सान्निध्य में रहते हुए भजन गाते समय उन्हें जो रोटियों के टुकड़े मिलते, उन्हीं से उनका नाम ‘तुकड़या’ और फिर आगे चलकर ‘तुकड़ो जी’ पड़ गया।

महज 12 वर्ष की आयु में गुरु की समाधि के बाद तुकड़ो जी ने आत्मचिंतन और योग साधना की ओर रुख किया। 14 वर्ष की आयु में उन्होंने घर त्याग कर वनवास को चुना, जहां एक योगी से ध्यान और प्राणायाम की गूढ़ विद्या सीखी। योगी रहस्यमय ढंग से अंतर्ध्यान हो गए  यह उनके जीवन का एक अलौकिक मोड़ था।

स्वतंत्रता संग्राम में संत का क्रांतिकारी स्वर

संत होते हुए भी तुकड़ो जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।संत होते हुए भी तुकड़ो जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।अब तुकड़ो जी ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने गांधी जी से मुलाकात की, लेकिन उनका मार्ग गांधी जी से पूरी तरह अलग था। वे गाते थे- “झाड़ झड़ूले शस्त्र बनेंगे, पत्थर सारे बम्ब बनेंगे, भक्त बनेगी सेना” अंग्रेजों के कानों में आग डाल देता था। इसी के चलते उन्हें 28 अगस्त, 1942 को गिरफ्तार किया गया। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने समाज सेवा को जीवन का लक्ष्य बना लिया। ‘गुरुदेव सेवा मंडल’ की स्थापना कर उन्होंने गांव-गांव में संगठन खड़े किए, जिनकी संख्या एक समय 75,000 तक पहुंच गई। राष्ट्र जागरण, गोरक्षा, व्यसन मुक्ति, कुष्ठ सेवा और ग्राम विकास जैसे कार्यों को उन्होंने जनांदोलन का स्वरूप दिया।

संघ और समाज के साथ मजबूत रिश्ता 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी से तुकड़ो जी की भेंट, एक ऐतिहासिक मोड़ बनी। राष्ट्रधर्म, संस्कृति और सेवा के कार्यों में उनकी साझेदारी और संवाद और भी गहरे होते चले गए। परिणामस्वरूप तुकड़ो जी के प्रवचन संघ की शाखाओं में भी होने लगे। 1953 में उन्होंने ‘ग्रामगीता’ की रचना की — जो ग्राम विकास और आत्मनिर्भर भारत के विचार को आध्यात्मिक और सामाजिक धरातल पर स्थापित करती है। राष्ट्रपिता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उनके कार्यों की सराहना करते हुए उन्हें ‘राष्ट्रसंत’ की उपाधि प्रदान की। यही नहीं, 1964 में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के समय वे मंच पर मौजूद थे यह उनकी अखिल भारतीय स्वीकृति का प्रमाण था। 11 अक्टूबर 1966 को वे इस लोक से विदा हुए, लेकिन उनका जीवन, उनके विचार, और उनकी सेवा भावना आज भी राष्ट्र निर्माण की प्रेरणा का स्तंभ हैं।

 

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