जब देश के केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जैसे वरिष्ठ नेता खुद राजधानी दिल्ली की हवा को लेकर चिंतित हों, तो ये सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि आने वाले समय की भयावह तस्वीर है। मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान गडकरी ने स्पष्ट शब्दों में कहा“दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर बेहद गंभीर है और इसका सीधा असर वहां के लोगों की सेहत पर पड़ रहा है। स्थिति इतनी चिंताजनक है कि दिल्ली के नागरिकों की औसत आयु लगभग 10 साल कम हो रही है।”
गडकरी यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि दिल्ली और मुंबई, दोनों ही अब प्रदूषण के ‘रेड ज़ोन’ में पहुंच चुके हैं। ये वो श्रेणी है जहां हवा में ज़हर घुल चुका होता है और सांस लेना भी बीमारी का कारण बन सकता है। उन्होंने दो टूक कहा कि पर्यावरण से जुड़े मसलों पर अब सिर्फ चर्चा नहीं, बल्कि ठोस और तात्कालिक कार्रवाई की ज़रूरत है। गडकरी ने यह भी याद दिलाया कि उन्होंने पिछले साल कहा था कि बढ़ते प्रदूषण के कारण वे दिल्ली जाना ही नहीं चाहते। ये बयान अपने-आप में बताता है कि हालात कितने चिंताजनक हैं। राजधानी में तो पिछले साल वायु गुणवत्ता इतनी खराब हो गई थी कि स्कूल बंद कर दिए गए थे, कई इलाकों में गाड़ियों की आवाजाही पर रोक लगी थी और लोगों को घरों के भीतर रहने की सलाह दी गई थी।
ऐसे में सवाल यह है कि गडकरी का यह दावा कि दिल्ली की हवा इंसानी उम्र को 10 साल तक छोटा कर रही है आखिर कितना ठोस है? क्या वाकई आंकड़े इस डरावनी सच्चाई की तस्दीक करते हैं? इसके साथ ही इस लेख में हम न केवल इस पर्यावरणीय आपदा की गंभीरता को समझने की कोशिश करेंगे, बल्कि यह भी टटोलेंगे कि ज़हर बन चुकी इस हवा से राहत कब और कैसे मिलेगी।
गडकरी के दावे पर आंकड़े क्या कहते हैं
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के उस बयान ने, जिसमें उन्होंने कहा कि दिल्ली की जहरीली हवा नागरिकों की औसत उम्र को 10 साल तक घटा रही है, राजधानी में एक नई चिंता खड़ी कर दी है। ये तो सभी मानते हैं कि दिल्ली प्रदूषण का एपिसेंटर बन चुकी है लेकिन जब ये बात सामने आती है कि इसकी वजह से ज़िंदगियां छोटी हो रही हैं, तो सवाल और भी गंभीर हो जाते हैं। तो क्या गडकरी का दावा सिर्फ एक राजनीतिक बयान है, या इसके पीछे पुख़्ता वैज्ञानिक आधार भी है?
साल 2024 के अंत में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की रिपोर्ट ने ये साफ कर दिया कि दिल्ली की हवा की गुणवत्ता साल 2019 के बाद सबसे खराब स्थिति में पहुंच चुकी है। दिसंबर 2024 में प्रदूषण स्तर ‘खराब’ से गिरते हुए ‘बेहद ख़राब’ और फिर ‘गंभीर’ कैटेगरी में पहुंच गया। इससे पहले भी दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर समय-समय पर चेतावनी दी जाती रही है, लेकिन हालात सुधरने के बजाय और बिगड़ते चले गए हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट इस स्थिति को और भी भयावह बना देती है। WHO का कहना है कि दुनिया भर में होने वाली कुल बीमारियों का लगभग 25% हिस्सा प्रदूषण से जुड़ा हुआ है, और सिर्फ वायु प्रदूषण की वजह से हर साल लगभग 70 लाख लोगों की मौत होती है। इनमें से कई जानें सिर्फ इसलिए जाती हैं क्योंकि नीतियां, टेक्नोलॉजी और जागरूकता समय पर लागू नहीं हो पातीं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि खराब हवा के कण फेफड़ों और शरीर के अंदर जाकर अंगों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे न केवल जीवन की गुणवत्ता घटती है, बल्कि औसत आयु में भी गिरावट आती है। WHO ने तो यहां तक कहा है कि स्मोकिंग और वायु प्रदूषण के जोखिम को एक ही तराजू में तौला जा सकता है।
और अगर बात भारत की करें, तो यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की ‘एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स’ रिपोर्ट भारत की हवा को लेकर बेहद डरावने आंकड़े पेश करतीं हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वायु प्रदूषण व्यक्ति की उम्र को औसतन 5 से 8 साल तक घटा रहा है। यानी जिस हवा में हम रोज़ सांस ले रहे हैं, वो धीरे-धीरे हमारे जीवन को छोटा कर रही है। इसका सीधा असर दिल, फेफड़े, मस्तिष्क और संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता पर पड़ता है।
वायु प्रदूषण और हमारे जीवन पर उसका गहरा असर
हम हर दिन जब सांस लेते हैं, तो अनजाने में हवा में मौजूद अदृश्य कण और रसायन हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये सिर्फ हमारे फेफड़ों को नहीं, बल्कि पूरे शरीर को नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन क्या कभी आपने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि स्वच्छ हवा आपकी सेहत और जीवनशैली के लिए कितनी ज़रूरी है? शायद नहीं और आप अकेले नहीं हैं। WHO की 2021 की गाइडलाइंस के अनुसार, दुनिया की 99% आबादी ऐसी हवा में जी रही है, जो मानकों से कहीं ज्यादा प्रदूषित है।
वायु प्रदूषण दुनिया की सबसे बड़ी पर्यावरणीय स्वास्थ्य आपदाओं में से एक है। यह वैश्विक मृत्यु के प्रमुख कारणों में शामिल है, और इसका स्थान हाई ब्लड प्रेशर, तंबाकू सेवन और हाई ग्लूकोज़ के बाद आता है। WHO का अनुमान है कि हर साल लगभग 70 लाख लोग समय से पहले मर जाते हैं, जिनकी मौतें आमतौर पर दिल की बीमारियों, स्ट्रोक, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD), फेफड़ों के कैंसर और बच्चों में निमोनिया जैसी सांस की बीमारियों के कारण होती हैं। इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण का असर सिर्फ फेफड़ों तक सीमित नहीं है। यह समय से पहले जन्म, कम वज़न वाले नवजात, दमा (Asthma), मानसिक और न्यूरोलॉजिकल क्षति जैसी गंभीर स्थितियों को जन्म दे सकता है। यानी, यह पूरे शरीर को प्रभावित कर सकता है।
वायु प्रदूषण सिर्फ स्वास्थ्य नहीं, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी एक गंभीर खतरा है। WHO के अनुसार, साल 2019 में वायु प्रदूषण की वजह से वैश्विक GDP का 6.1% लगभग 8 ट्रिलियन डॉलर खर्च हुआ। ये आंकड़े बताते हैं कि साफ हवा केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा संकट है।
चिंता की बात यह भी है कि आज भी दुनिया के अधिकांश स्वास्थ्यकर्मी वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों से पूरी तरह अवगत नहीं हैं। एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में केवल 12% मेडिकल कॉलेज ही अपने पाठ्यक्रम में वायु प्रदूषण को शामिल करते हैं। वर्ल्ड हार्ट फेडरेशन के सर्वे में यह भी पाया गया कि कम से कम 50% स्वास्थ्य पेशेवरों को इस विषय पर जरूरी संसाधन या प्रशिक्षण तक उपलब्ध नहीं है।
हालांकि, अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने यह मान लिया है कि स्वास्थ्य क्षेत्र को इस लड़ाई में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए। वर्ल्ड हेल्थ असेंबली की दो प्रमुख संकल्प WHA68.8 “स्वास्थ्य और पर्यावरण: वायु प्रदूषण का स्वास्थ्य पर असर” और A69/18 “एक बेहतर वैश्विक जवाब के लिए रोडमैप”, WHO को इस दिशा में स्वास्थ्य कर्मियों की क्षमता को मजबूत करने का निर्देश देते हैं।
इसी दिशा में WHO ने 30 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के साथ मिलकर एक नई पहल शुरू की है। इस पहल के तहत ‘एयर पॉल्युशन एंड हेल्थ ट्रेनिंग टूलकिट’ तैयार की जा रही है, जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित करना है। यह टूलकिट 2023 के अंत में लॉन्च की जाएगी और इसे डाउनलोड करने योग्य, इंटरएक्टिव संसाधनों के रूप में उपलब्ध कराया जाएगा। इसके अलावा, 7 सितंबर 2023 को ‘अंतरराष्ट्रीय स्वच्छ हवा और नीले आकाश दिवस’ के मौके पर, WHO द्वारा एक ऑनलाइन कोर्स ‘OpenWHO’ पर मुफ्त में लॉन्च किया गया है, ताकि स्वास्थ्यकर्मी वायु प्रदूषण के प्रभावों को समझ सकें और आम लोगों को इसके प्रति जागरूक बना सकें।