Kesari 2: कहानी शंकरन नायर और उस ऐतिहासिक कोर्ट केस की जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार शंकरन नायर को भीतर तक झकझोर गया। जनरल डायर के नेतृत्व में निहत्थे और निर्दोष लोगों पर की गई बेरहम गोलीबारी के खिलाफ उन्होंने तत्काल वायसराय की कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया और ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई ‘नाइटहुड’ की उपाधि भी लौटा दी

कौन थे सर चेट्टूर शंकरन नायर

कौन थे सर चेट्टूर शंकरन नायर (Image Source: @anantsanjar)

1857 में केरल के पलक्कड़ जिले की मिट्टी में जन्मे सर चेट्टूर शंकरन नायर एक ऐसा नाम है जिसे आज़ादी की लड़ाई में उसके न्याय के हथियार और साहसिक फैसलों के लिए याद किया जाना चाहिए था, लेकिन अफ़सोस… इतिहास की किताबों ने उस नाम को हाशिये पर डाल दिया गया। कल जब मैंने Kesari Chapter 2: The Untold Story of Jallianwala Bagh देखी, तो ऐसा महसूस हुआ जैसे इतिहास पर जमी धूल अचानक हट गई हो। फ़िल्म ने सिर्फ जालियांवाला बाग की त्रासदी को पर्दे पर नहीं उतारा, बल्कि शंकरन नायर जैसे दबे हुए नायक को एक सशक्त रूप में सामने रखा। अक्षय कुमार का अभिनय यहां किसी नाटकीयता से परे जाकर, तथ्य और गंभीरता से भरा हुआ था। उन्होंने शंकरन नायर की छवि को उसी अंदाज में निभाया, जैसे वो व्यक्ति खुद अपने विचारों और फैसलों में रहा करता था निडर, स्पष्ट और औपनिवेशिक सत्ता से सीधा टकराने वाला।

हर दृश्य में उनके हावभाव और संवाद उस असहज सन्नाटे को तोड़ते हैं, जो वर्षों से इस अध्याय पर पसरा हुआ था। कोर्ट रूम के अंदर बहस करते हुए जब अक्षय का किरदार कानून की भाषा में ब्रिटिश सत्ता को जवाब देता है, तो एहसास होता है कि यह सिर्फ एक फिल्मी दृश्य नहीं, बल्कि इतिहास के उस पल की पुनरावृत्ति है जिसे जानबूझकर छिपाया गया।

मगर यहीं से असल सवाल खड़े होते हैं। कौन थे शंकरन नायर? क्यों शंकरन नायर जैसे व्यक्तित्व को आज़ादी के विमर्श से बाहर रखा गया? क्यों हर बार देश की आज़ादी की कहानी कुछ तय चेहरों और कुछ सीमित आख्यानों तक सिमट कर रह गई? आइए आपको एक ऐसे किरदार से रूबरू कराते हैं, जिसे आज़ादी की लड़ाई में उसकी क़लम, क़ानून और उसूलों के लिए याद किया जाना चाहिए था, लेकिन जिसे हमारी इतिहास की किताबों ने लंबे वक्त तक गुमनाम बनाए रखा।

कौन थे शंकरन नायर

सर चेट्टूर शंकरन नायर इतिहास के पन्नों में दबा वही नाम है, जो अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ न्याय और वैचारिक मजबूती के साथ अदालत के भीतर खड़ा रहा, लेकिन दुर्भाग्य से, हमें इसकी कहानी कभी विस्तार से नहीं बताई गई। 11 जुलाई 1857 को केरल के मालाबार जिले के पलक्कड़ में जन्मे शंकरन नायर का पूरा नाम था चेट्टूर शंकरन नायर। उनके पिता ब्रिटिश सरकार में तहसीलदार थे, यानी परिवार शासन व्यवस्था का हिस्सा था। मगर नायर ने बड़े होते-होते उसी सत्ता से सवाल करने की हिम्मत दिखाई।

1880 में उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट से अपने वकालत के करियर की शुरुआत की। उनका सफर तेज़ी से आगे बढ़ा और 1908 तक वो मद्रास हाईकोर्ट के महाधिवक्ता और कार्यवाहक न्यायाधीश बन गए। फिर 1915 में उन्हें स्थायी न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया। नायर अपने फैसलों में सिर्फ कानून नहीं, इंसाफ की आत्मा ढूंढते थे। उन्होंने एक अहम केस में हिंदू धर्म में धर्मांतरण को सामाजिक रूप से स्वीकार्य ठहराया और साफ कहा कि ऐसे लोगों को समाज से अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए। ये फैसला उस वक्त के हिसाब से काफी आगे की सोच का था।

1897 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई। दिलचस्प बात ये रही कि वे सबसे कम उम्र में मलयाली कांग्रेस अध्यक्ष बने। अपने भाषणों में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों को खुलकर चुनौती दी और भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस और स्वशासन की मांग की।1915 में उन्हें वायसराय की कार्यकारिणी परिषद का हिस्सा बनाया गया यह सम्मान पाने वाले वो पहले भारतीय बने। इसी दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘नाइट’ की उपाधि भी दी, लेकिन ये सब कुछ ज्यादा दिन टिक नहीं पाया।

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में जो हुआ, उसने शंकरन नायर को झकझोर कर रख दिया। जनरल डायर के नेतृत्व में निर्दोष नागरिकों पर की गई गोलीबारी के विरोध में नायर ने तुरंत वायसराय की कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया और ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी। ये कदम सिर्फ भावनात्मक नहीं था, ये ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक साफ-साफ कानूनी और नैतिक असहमति का संकेत था।

द केस दैट शुक द एम्पायर

जलियांवाला बाग की त्रासदी के बाद सी शंकरन नायर ने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करते हुए एक किताब लिखी Gandhi and Anarchy। इस किताब में उन्होंने महात्मा गांधी की रणनीतियों से कुछ असहमति जताने के साथ-साथ पंजाब में हुए अत्याचारों का विस्तार से ज़िक्र किया। खासतौर पर उन्होंने यह संकेत दिया कि जलियांवाला बाग जैसी घटनाएं वहां के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर की जानकारी और सहमति से हुई थीं।

बस फिर क्या था जनरल ओ’ड्वायर तिलमिला उठा और 1922 में शंकरन नायर के खिलाफ लंदन की अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। उसने मांग की कि नायर किताब वापस लें, सार्वजनिक माफी मांगें और जुर्माना भरें। लेकिन शंकरन नायर झुकने वालों में नहीं थे। उन्होंने न सिर्फ माफी से इनकार किया, बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ ब्रिटेन जाकर मुकदमा लड़ने का फैसला किया।

यह कोई साधारण केस नहीं था। एक भारतीय, गुलाम देश से निकलकर ब्रिटेन के कानूनी सिस्टम को उसी की ज़मीन पर चुनौती दे रहा था जहां जज और जूरी सभी अंग्रेज थे। केस चला और पूरे साढ़े पाँच हफ़्तों तक चला। जैसे-जैसे गवाही हुई, दस्तावेज़ सामने आए, और सवाल-जवाब हुए दुनिया के सामने जलियांवाला बाग की सच्चाई एक बार फिर पूरी ताकत से उभरकर आई। पंजाब में हुए अन्याय और ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आ गई।

हालांकि कोर्ट ने फैसला ओ’ड्वायर के पक्ष में दिया और शंकरन नायर को 500 पाउंड का जुर्माना भरना पड़ा, लेकिन असली जीत नायर की थी। क्योंकि ये मुकदमा ब्रिटिश हुकूमत के ढांचे में मौजूद विरोधाभासों और अत्याचारों को पूरी दुनिया के सामने ले आया। इसी ऐतिहासिक केस पर अब एक फिल्म Kesari Chapter 2: The Case That Shook The Empire बनाई गई है। इसकी कहानी सी शंकरन नायर के परपोते रघु पलात और उनकी पत्नी पुष्पा पलात द्वारा लिखी गई किताब The Case That Shook the Empire से ली गई है।

Exit mobile version