वक्फ संशोधन एक्ट 2025 संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद कानून के रूप में देश में लागू हो चुका है। इस कानून के खिलाफ पश्चिम बंगाल समेत देश के कई हिस्सों में मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा प्रदर्शन किए जा रहे हैं। बंगाल में तो प्रदर्शन हिंसक हो गए हैं और इसमें कई लोगों की जान भी चली गई है। दूसरी और इस कानून के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में भी कई दर्जन याचिकाएं डाली गई हैं। इन याचिकाओं पर बुधवार (16 अप्रैल) से सुनवाई शुरू हो गई है। इन याचिकाकर्ताओं में कई मुस्लिम संगठन तो हैं ही, साथ ही देश की लगभग सभी बड़ी गैर NDA पार्टियां भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में याचिकाकर्ता हैं।
जिन लोगों या संगठनों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के विरोध में याचिका डाली गई है, उसमें कांग्रेस के सांसद इमरान मसूद, मोहम्मद जावेद और नेता उदित राज, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI), TMC की महुआ मोइत्रा, सपा के सांसद ज़िया उर रहमान, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML), जमीयत उलमा-ए-हिंद, लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सांसद मनोज झा और आम आदमी पार्टी (AAP) के विधायक अमानतुल्लाह खान जैसे नेता और संगठन शामिल हैं। स्पष्ट तौर पर नज़र आ रहा है कि सभी राजनीति पार्टियों और दलों के बीच मुस्लिमों का रहनुमा बनने की होड़ मची हुई है। लेकिन क्या असल में लड़ाई मुस्लिमों के अधिकारों की है या केवल वोट के लिए मुस्लिमों को राजनीतिक मोहरा बनाया जा रहा है? यह एक बड़ा सवाल है।
इन याचिकाओं के पीछे की राजनीतिक को समझने के लिए कांग्रेस के सांसद इमरान मसूद का एक बयान जानना ज़रूरी है। कुछ दिनों पहले हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि ‘दुआ करिए कि हम लोग आ जाएं। समंदर में तूफान बहुत है और तूफान का सामना बड़ा जहाज ही करता है, छोटी कश्तियां नहीं कर पातीं हैं। इसलिए आपसे कहना चाहता हूं इन कश्तियों की सवारी छोड़ कर बड़े जहाज की सवारी की तैयारी कर लीजिए। बस एक ही रास्ता है कोई और रास्ता नहीं बचा है, और ये वादा आपसे करना चाहता हूं कि जिस दिन आ जाएंगे उस दिन घंटे भर के अंदर इसका इलाज भी करना जानते हैं’। यह बयान बताता है कि इन राजनीतिक दलों के बीच असल लड़ाई मुस्लिमों को अधिकार मिले ना मिले, इसकी नहीं है। असल में इनकी लड़ाई मुस्लिमों का वोट बैंक साधने की है।
पश्चिम बंगाल में हिंसा हो रही है और इस बीच ममता बनर्जी से उम्मीद थी कि जिस जगह हिंसा हो रही है वहां जाएं, पीड़ितों से मिलें। लेकिन ममता ने किया इसका उल्टा ही, उन्होंने इमामों संग बैठक की और उन्हें ‘अपना खून तक देने’ का वादा कर दिया। बंगाल रक्तरंजित है और ऐसे में शांति के बजाय ममता लोगों को उकसा रही हैं। उन्होंने इस हिंसा के लिए कांग्रेस को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया है। जिस इलाके में यह हिंसा हुई है, वहां राजनीतिक तौर पर लड़ाई ममता और कांग्रेस के बीच ही है। ऐसे में वो मुस्लिमों के लिए कांग्रेस से बड़ी रहनुमा बनकर दिखाना चाह रही हैं। कांग्रेस के सांसद मसूद की नज़र से देखें तो कांग्रेस एक बड़ा जहाज़ है और तमाम क्षेत्रीय दल छोटी पार्टियां हैं जो वक्फ के इस ‘तूफान’ का सामना कर रही हैं।
आज़ादी के बाद मुस्लिम वोट बैंक एकमुश्त कांग्रेस का वोट बैंक रहा था। 1980 और 1990 के दशक में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जैसे क्षेत्रीय दलों ने स्थानीय मुद्दों, जातिगत समीकरणों और पहचान की राजनीति के दम पर अपनी जगह बनाई। इन दलों ने तथाकथित तुष्टिकरण की राजनीति अपनाई और मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए लोकलुभावन योजनाएं और धार्मिक अधिकारों की रक्षा के वादे किए। नतीजतन, मुस्लिम वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस से छिटककर इन क्षेत्रीय दलों की ओर चला गया। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह बदलाव स्पष्ट दिखाई देता है।
देश में मुस्लिमों की स्थिति कुछ गंभीर सवाल उठाती है। जिन दशकों तक मुस्लिमों ने कांग्रेस को वोट दिया, उस दौरान उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कितना सुधार हुआ? शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय कहां खड़ा है? उनकी सामाजिक पहचान को किस तरह परिभाषित किया गया है? 2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट ने मुस्लिमों की शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन को लेकर जो बताया था जो हमारे सामने है। रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि रोजगार, शिक्षा और साक्षरता जैसे मापदंडों पर मुस्लिमों की स्थिति बेहद खराब है। साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत के बेहद नीचे है और 25 फीसद मुसलमान बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। नीति आयोग की 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया कि सामाजिक-आर्थिक विकास के विभिन्न मानकों पर देश के सबसे पिछड़े 20 जिलों में आधे से अधिक मुस्लिम बहुल हैं।
वोट देते समय मुस्लिमों को राजनीतिक दलों से अपनी स्थिति को लेकर गंभीर सवाल पूछने शुरू करने होंगे। लोकतंत्र का सबसे बहुमूल्य तत्व वोट है, ऐसे में मतदाताओं को अपने सबसे अचूक हथियार के बदले केवल ‘धर्म के लिए अच्छी बातें’ सुननी हैं या विकास, शिक्षा और रोज़गार जैसे चीज़ें मांगनी है यह सोचना होगा। मुस्लिम मतदाताओं को तुष्टिकरण के वोट बैंक की भूमिका से बाहर निकलकर उन दलों का समर्थन करना होगा जो ठोस नीतियों के ज़रिए शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक समावेश को बढ़ावा दें। तभी एक समाज के तौर पर मुस्लिमों का विकास होगा।