15 अगस्त 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो मौका खुशी के साथ-साथ दर्द का भी था क्योंकि विभाजन के बीच हज़ारों-लाखों लोगों की हत्या कर दी गई थी, उन्हें विस्थापित होना पड़ा था। देश में अंतरिम सरकार का गठन हो चुका था और जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए थे। नेहरू के मंत्रिमंडल में 5 अगस्त 1947 को उद्योग और आपूर्ति मंत्री के रूप में तत्कालीन हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को शामिल किया गया था। मुखर्जी ने अपने कार्यकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले लिए जिनमें सिंदरी में खाद (फर्टीलाइज़र) कारखाना, बेंगलूर में हिंदुस्तान एयर क्राफ्ट फैक्ट्री और रेल के इंजन व डिब्बे बनाने के लिए चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्री की स्थापना प्रमुख थे। हालांकि, उनके और प्रधानमंत्री के बीच नेहरू-लियाकत समझौते को लेकर गंभीर मतभेद हो गए थे जिसके चलते अप्रैल 1950 में उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
क्यों हुआ नेहरू-लियाकत समझौता?
भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच अप्रैल 1950 को दिल्ली में एक समझौता हुआ था। इसे नेहरू-लियाकत समझौता या दिल्ली समझौता भी कहा जाता है। इसका उद्देश्य विभाजन के बाद दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना था। 1947 में भारत के विभाजन के बाद दोनों देशों में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें लाखों लोग मारे गए और हज़ारों महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। इससे अल्पसंख्यक समुदाय असुरक्षित महसूस करने लगा और बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हो गया। इस समस्या के समाधान के लिए नेहरू और लियाकत अली ने यह समझौता किया था। विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचारों का सिलसिला चल रहा था। 1950 में विभाजन के 3 वर्षों बाद भी दस लाख से अधिक हिंदू और मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से पलायन कर गए थे।
क्या कहता है नेहरू-लियाकत समझौता?
दिल्ली में दोनों देशों के नेताओं-अधिकारियों के बीच चली करीब एक हफ्ते के बातचीत के बाद भारत-पाकिस्तान एक समझौते पर पहुंचे थे। इसमें कहा गया है, “भारत और पाकिस्तान की सरकारें इस बात पर पूरी तरह सहमत हैं कि दोनों ही देश अपने-अपने क्षेत्र में अल्पसंख्यकों के लिए धर्म के आधार पर भेदभाव किए बिना नागरिकता की पूर्ण समानता, जीवन, संस्कृति, संपत्ति और व्यक्तिगत सम्मान के संबंध में पूर्ण सुरक्षा, प्रत्येक देश में आवागमन की स्वतंत्रता और व्यवसाय, भाषण और पूजा की स्वतंत्रता सुनिश्चित करेंगे, जो कानून और नैतिकता के अधीन होगी।”
इसमें कहा गया, “अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को अपने देश के सार्वजनिक जीवन में भाग लेने, राजनीतिक या अन्य पद धारण करने और अपने देश की नागरिक और सशस्त्र सेनाओं में सेवा करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों के समान अवसर प्राप्त होंगे। दोनों सरकारें इन अधिकारों को मौलिक घोषित करती हैं और उन्हें प्रभावी रूप से लागू करने का वचन देती हैं। दोनों सरकारें इस बात पर बल देना चाहती हैं कि अल्पसंख्यकों की निष्ठा और वफादारी उस राज्य के प्रति है जिसके वे नागरिक हैं, और उन्हें अपनी शिकायतों के निवारण के लिए अपने राज्य की सरकार की ओर देखना चाहिए।”
पूर्वी बंगाल प्रांत और पश्चिमी बंगाल, असम और त्रिपुरा राज्यों के संबंध में दोनों सरकारों ने प्रमुख तौर पर इन बात पर सहमति जताई कि-
(1) सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपने प्रयास जारी रखेंगे तथा अव्यवस्था की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए उचित उपाय करेंगे।
(2) व्यक्तियों तथा सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध तथा अन्य आपराधिक अपराधों के लिए दोषी पाए गए सभी व्यक्तियों को दण्डित करेंगे। उनके निवारक प्रभाव को देखते हुए, जहाँ आवश्यक हो, सामूहिक जुर्माना लगाया जाएगा।
(3) लूटी गई सम्पत्ति को वापस पाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।
(4) अपहृत महिलाओं की बरामदगी में सहायता के लिए अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए तत्काल एक एजेंसी गठित करेंगे।
(5) जबरन धर्म परिवर्तन को मान्यता नहीं देंगे। सांप्रदायिक अशांति के दौरान किया गया कोई भी धर्म परिवर्तन जबरन धर्म परिवर्तन माना जाएगा। लोगों को जबरन धर्म परिवर्तन कराने के दोषी पाए जाने पर दण्डित किया जाएगा।
(6) हाल ही में हुई अशांति के कारणों तथा सीमा की जांच करने तथा भविष्य में इसी प्रकार की अशांति की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सिफारिशें करने के लिए तत्काल एक जांच आयोग गठित करेंगे। आयोग के कार्मिक, जिसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा की जाएगी, ऐसे होंगे जो अल्पसंख्यकों में विश्वास पैदा कर सकें।
क्या थी मुखर्जी की नाराज़गी?
आज़ादी के बाद पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल के अल्पसंख्यक हिंदुओं की रक्षा का आश्वासन दिया था लेकिन फिर भी लगातार हिंदुओं का उत्पीड़न किया जा रहा था। हिंदुओं की संपत्ति लूटी जा रही थी और उन पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया जा रहा है। पाकिस्तान अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार ढाने से बाज नहीं आ रहा था। पूर्वी बंगाल के लाखों हिंदुओं को भारत में शरण लेनी पड़ी थी। उन्हें लगा था कि अगर यह समझौता कर लिया जाता है तो यह विभाजन की सोच के साथ विश्वासघात होगा। शिव कुमार गोयल की पुस्तक ‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी: जीवन यात्रा’ में लिखा गया है, “पाकिस्तान की हिंदू विनाश नीति के बावजूद नेहरू जी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ समझौता करने में हिचकिचाहट नहीं की। डॉ. मुखर्जी ने मंत्रिमंडल में रहते हुए भी इस समझौते के घातक परिणामों से सबको अवगत कराया। डॉ. मुखर्जी की आत्मा ने उन्हें कचोटा कि जिस सरकार में वह मंत्री हैं, वह भारत सरकार लियाकत अली से समझौता कर पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को मृत्यु के मुख में धकेल रही है। क्या इस घोर पाप में उनको सहयोगी नहीं माना जाएगा? अंतरात्मा की इस आवाज पर डॉ. मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।”
‘हज़ारों हिंदू पूर्वी पाकिस्तान को लौट गए’ और रो पड़े मुखर्जी
लियाकत अली के साथ नेहरू के समझौते को लेकर शिव कुमार गोयल ने लिखा है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में वक्तव्य दिया कि भारत द्वारा लियाकत अली से किए गए समझौते के चलते पूर्वी बंगाल से निष्कासित हज़ारों शरणार्थी फिर से अपने घरों को लौट आए हैं। उसी दिन आर्यसमाजी नेता प्रकाशवीर शास्त्री और संन्यासी स्वामी अभेदानंद जी महाराज मुखर्जी से मिलने पहुंचे और हिंदुओं के पूर्वी पाकिस्तान में लौटने का ज़िक्र किया।
गोयल ने लिखा, “यह सुनकर मुखर्जी की आंखों में आंसू आ गए और वे बोले, ‘स्वामी जी, ठीक है कुछ हिन्दू लौट गये हैं लेकिन कौन हिंदू लौटे हैं। जिन्हें कलकत्ता के फुटपाथों पर पड़े-पड़े महीनों हो गए और पेट भरने को रोटी नहीं मिली, वे बेचारे बेबस हिंदू मजबूरी में लौट गए हैं। उन्होंने सोचा, चलो जब मरना ही है तो पूर्वजों की भूमि में चलकर मरेंगे। सो स्वामी जी ये हजारों हिन्दू परिवार नेहरू-लियाकत समझौते से अपने घरों को नहीं गए। वे हमने इस्लाम की भट्टी में झोंक दिए हैं’।”
मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मुखर्जी
मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद मुखर्जी ने RSS के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ से परामर्श के बाद 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की स्थापना की और वे इसके पहले अध्यक्ष बने। यह जनसंघ आगे चलकर बीजेपी के रूप में नई पार्टी के रूप में सामने आया था। इस पार्टी ने 1952 के चुनावों में 3 सीटों पर जीत दर्ज की जिनमें एक सीट डॉक्टर मुखर्जी की भी थी। मुखर्जी ने संसद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया था जिसमें 32 सांसद और 10 राज्यसभा सदस्य थे लेकिन स्पीकर ने इसे विपक्षी दल के रूप में मान्यता नहीं दी थी। कश्मीर मामले पर उन्होंने अनुच्छेद 370 का घोर विरोध किया, वे देश के सभी राज्यों में एक जैसा कानून चाहते थे। मुखर्जी ने ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे’ का नारा दिया था। 1953 में वो बिना अनुमति लिए 8 मई को दिल्ली से कश्मीर के लिए निकल गए। उन्होंने इस यात्रा के दौरान कहा कि ‘हम जम्मू कश्मीर में बिना अनुमति के जाएं, ये हमारा मूलभूत अधिकार होना चाहिए’। 11 मई को उन्होंने श्रीनगर जाते वक्त गिरफ्तार कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में मुखर्जी की मृत्यु हो गई।