पाकिस्तान इस समय आर्थिक जर्जरता, वैचारिक कट्टरता और संस्थागत पतन के खतरनाक मिश्रण में फंसकर एक अटल विघटन की ओर बढ़ रहा है। उसकी मानव संसाधन क्षमता गहराई से उग्रवादी और अल्पशिक्षित हो चुकी है। अर्थव्यवस्था बाहरी बेलआउट पर निर्भर है, जबकि राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व आम नागरिकों के कल्याण से लगभग कट चुका है। शिक्षा प्रणाली आलोचनात्मक सोच को हतोत्साहित करती है और असहिष्णुता को बढ़ावा देती है, जिससे कोई सुधारवादी नेतृत्व उभर ही नहीं पा रहा जो आत्मनिर्भरता की दिशा में देश को मोड़ सके।
भारी गरीबी, जनसंख्या वृद्धि, क्षेत्रीय अलगाववादी आंदोलनों और एक असफल लेकिन सैन्यीकृत राज्य ढांचे के साथ, पाकिस्तान अब इस स्थिति में नहीं है कि वह अपने पतन को रोक सके।
पिछले दशकों में यूगोस्लाविया, सोवियत संघ, सोमालिया, लीबिया और सीरिया जैसे देश जातीय संघर्ष, आर्थिक पतन, कमजोर शासन और बाहरी दबावों के कारण बिखर चुके हैं। पाकिस्तान की स्थिति इन देशों से बहुत अलग नहीं है: विदेशी ऋण पर टिकी अर्थव्यवस्था, सैन्य की अधिनायकवादी पकड़, बलूचिस्तान, सिंध और खैबर पख्तूनख्वा में बढ़ते अलगाववादी आंदोलन और गहरे धार्मिक कट्टरता की जड़ें। फर्क सिर्फ इतना है कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं, जो इसके संभावित पतन को कहीं अधिक खतरनाक बना देते हैं।
जिस तरह जातीय संघर्षों ने यूगोस्लाविया को तोड़ा या गृहयुद्ध ने सीरिया और लीबिया को बिखेरा, पाकिस्तान भी उसी राह पर बढ़ रहा है। इतिहास गवाह है कि सिर्फ विचारधारात्मक नारे और सैन्य बल किसी विघटित समाज को लंबे समय तक एकजुट नहीं रख सकते। पाकिस्तान अब उस सीमारेखा के बेहद करीब खड़ा है।
पाकिस्तान के गिरावट के चरण और भारत पर प्रभाव
हालांकि पाकिस्तान के पूर्ण पतन की सटीक समय-सीमा बताना कठिन है, परंतु मौजूदा प्रवृत्तियाँ एक सुनियोजित विघटन की ओर संकेत कर रही हैं।
1–2 वर्षों में, आर्थिक संकट और सामाजिक असंतोष बढ़ेगा, जिससे प्रांतों का केंद्र से अलगाव और तेज़ हो सकता है।
2–5 वर्षों में, जल संकट, कर्ज़ चूक और आतंकवादी पुनरुत्थान केंद्र की पकड़ को चुनौती देंगे।
5 वर्षों के बाद, पाकिस्तान वास्तविक रूप से एक विघटित राज्य बन सकता है — जहाँ अलग-अलग क्षेत्र गैर-राज्य शक्तियों या विद्रोही शासन के नियंत्रण में होंगे। सेना भले ही भौगोलिक विघटन का प्रतिरोध करे, लेकिन राजनीतिक रूप से पाकिस्तान एकीकृत राष्ट्र के रूप में समाप्त हो सकता है।
भारत की रणनीतिक प्राथमिकताएँ: संयम, संरक्षण और स्थिरता
भारत को पाकिस्तान के विघटन को न तो कोई भौगोलिक अवसर मानना चाहिए, न ही मानवीय हस्तक्षेप का बहाना। इसके बजाय, भारत को एक ‘कंटेनमेंट रणनीति’ अपनानी होगी — सुरक्षा बनाए रखना, क्षेत्रीय अस्थिरता को सीमित करना और वैचारिक अथवा जनसंख्या विस्थापन से देश को बचाना।
1. सीमाओं की सुरक्षा और सैन्य तैयारी
पश्चिमी सीमा पर स्मार्ट टेक्नोलॉजी, AI और सैटेलाइट आधारित निगरानी को बढ़ाना।
पंजाब, राजस्थान, जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों में सैन्य तैयारी बनाए रखना।
यदि POK में नियंत्रण ढहता है, तो भारत को त्वरित विलय से बचना चाहिए और केवल संविधान सम्मत पुनर्गठन के लिए तैयार रहना चाहिए।
2. शरणार्थी नीति और रोकथाम
शून्य-स्वीकार्यता नीति अपनाएं — शरणार्थियों को सीमाओं पर अस्थायी शिविरों में रोका जाए।
घरेलू स्तर पर शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों में अंतर करने वाला कानून बनाना आवश्यक है।
संवेदनशील राज्यों में जनसंख्या असंतुलन रोकने के लिए स्थानीय प्रशासन को मज़बूत किया जाए।
3. परमाणु नियंत्रण और सतर्कता
पाकिस्तान की परमाणु कमान पर करीबी नज़र रखी जाए — अमेरिका, रूस और इज़राइल जैसे देशों के साथ सहयोग में।
भारत को अपनी परमाणु नीति में संशोधन कर “रूग” तत्वों की पहुँच या पूर्व-खतरे को शामिल करना चाहिए।
सामरिक बल कमान (SFC) को हाई अलर्ट पर रखना होगा।
4. आतंकवाद-विरोधी और खुफिया तैयारियाँ
पाकिस्तान में विशेषकर संवेदनशील इलाकों में खुफिया अभियानों का विस्तार किया जाए।
आतंकवादी घुसपैठ और स्लीपर सेल सक्रियता को रोकने के लिए सीमाओं पर कठोर निगरानी।
घरेलू स्तर पर डि-रेडिकलाइजेशन कार्यक्रम तेज़ करना।
5. आर्थिक अलगाव और आपूर्ति सुरक्षा
अवैध व्यापार और ब्लैक मार्केट गतिविधियों पर पूर्ण विराम लगाया जाए।
सीमावर्ती राज्यों में खाद्य, ईंधन और जल भंडार तैयार रखना।
चाबहार पोर्ट जैसे वैकल्पिक मार्गों के ज़रिए मध्य एशिया से संपर्क मज़बूत करना।
6. विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय भूमिका
भारत को वैश्विक मंचों पर खुद को एक स्थिरता प्रदाता के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
“विलय” की भाषा से बचते हुए सीमा नियंत्रण और शरणार्थी प्रबंधन को जवाबदेही आधारित कार्रवाई के रूप में दिखाना चाहिए।
बलूचिस्तान और गिलगित-बाल्टिस्तान जैसे क्षेत्रों में चीनी हस्तक्षेप रोकने के लिए रणनीतिक संवाद बढ़ाना।
7. ‘पोस्ट-पाकिस्तान’ परिदृश्य की निगरानी
बलूचिस्तान, सिंधुदेश, खैबर पख्तूनख्वा और POK जैसे संभावित स्वायत्त क्षेत्रों पर सतर्क नज़र रखें।
केवल राष्ट्रीय हित और बहुपक्षीय सहमति होने पर ही किसी से संपर्क या मान्यता दी जाए।
भारत को सैन्य रूप से तटस्थ लेकिन रणनीतिक रूप से लचीला रहना होगा — आतंकवाद की स्थिति में सर्जिकल या गुप्त कार्रवाई के लिए तैयार रहना चाहिए।
8. घरेलू स्थायित्व और वैचारिक सुरक्षा
विदेशी फंडिंग वाले धार्मिक संस्थानों पर कड़ी निगरानी रखी जाए।
सीमावर्ती इलाकों में जन-जागरूकता अभियान चलाकर कट्टरपंथी प्रचार का मुकाबला किया जाए।
भारतीय बहुलतावाद और सभ्यतागत चेतना को मज़बूत किया जाए।
9. दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टिकोण
भारत को “पोस्ट-पाकिस्तान” दक्षिण एशिया की कल्पना करनी होगी — जहाँ पड़ोसी स्थिर, जिम्मेदार और सहयोगी हों।
पाकिस्तान या उसके विखंडित हिस्सों को तभी शामिल किया जाए जब वे आंतरिक स्थायित्व और जवाबदेही प्रदर्शित करें।
भारत को इस अवसर का उपयोग क्षेत्रीय नेतृत्व को सुदृढ़ करने और अफगानिस्तान, मध्य एशिया व खाड़ी देशों से संपर्क बढ़ाने के लिए करना चाहिए।
निष्कर्ष:
पाकिस्तान का आंतरिक पतन अब एक दूर की आशंका नहीं, बल्कि तेजी से विकसित हो रही वास्तविकता बन चुका है। भारत को इस चुनौती के प्रति रणनीतिक स्पष्टता, संस्थागत मज़बूती और दीर्घदृष्टि के साथ तैयारी करनी होगी। उद्देश्य यह नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान को निगल लिया जाए — बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि भारत सुरक्षित, स्थिर और क्षेत्रीय रूप से सशक्त बना रहे।