देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आज (27 मई) 61वीं पुण्यतिथि है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कांग्रेस और बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने नेहरू को याद किया है। नेहरू को लेकर तमाम किस्से और कहानियां लोगों के बीच हैं उनके समर्थक और विरोधियों के उनके व्यक्तित्व, कार्यकाल और कार्यों को लेकर अपने-अपने तर्क हैं। कुछ लोग उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता के तौर पर देखते हैं तो कई पाकिस्तान, कश्मीर और चीन को लेकर उनकी ऐतिहासिक भूलों का ज़िक्र करते हैं। धर्म को लेकर नेहरू के विचारों पर भी खूब तर्क-वितर्क चलते हैं। कई बार उनके नाम से फर्जी कोट्स साझा कर दिए जाते हैं तो कभी उन पर सोमनाथ मंदिर जैसे उदाहरणों के ज़रिए भारत की विरासत की अनदेखी करने के आरोप लगते हैं। इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि भारत की धार्मिक आस्था के सबसे बड़े प्रतीकों रामायण, महाभारत और गीता को लेकर नेहरू की राय क्या थी?
नेहरू ने दिसंबर 1921 से जून 1945 के बीच अपने जीवन के करीब 9 वर्ष अंग्रेज़ों की कैद में बिताए थे। कई क्रांतिकारियों से उलट नेहरू को जेल में पढ़ने लिखने की छूट मिली हुई थी। जेल या कैद खाने में कई बार उन्हें रहने के लिए आरामदायक जगहें दी गईं जैसी आम कैदियों को नहीं दी जाती थीं। अहमदनगर जेल में नेहरू ने लंबा वक्त बिताया था और वहां वे खाना बनाते, बीमार लोगों की देखभाल करते, बैडमिंटन, वॉलीबॉल खेलते और बागवानी करते थे। इस जेल में नेहरू अगस्त 1942 से लेकर जून 1945 तक रहे और यहीं उन्होंने सितंबर 1944 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का लेखन पूरा किया था। इसी पुस्तक में उन्होंने भारत की यात्रा को लेकर विस्तार से लिखा है जिसमें धार्मिक ग्रंथों को लेकर भी वर्णन किया गया है।
हिंदुत्व को लेकर नेहरू ने क्या लिखा?
नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है, “हमारे पुराने साहित्य में तो हिंदू शब्द कहीं नहीं आता है। मुझे बताया गया है कि इस शब्द का हवाला हमें जो किसी हिंदुस्तानी पुस्तक में मिलता है वह है आठवीं सदी ईस्वी के एक तांत्रिक ग्रंथ में और वहां हिंदू का मतलब किसी खास धर्म से नहीं बल्कि खास लोगों से है। यह लफ़्ज़ साफ़-साफ़ ‘सिंधु’ से निकला है और यह ‘इंडस’ का पुराना और नया नाम है। इस ‘सिंधु’ शब्द से हिंदू और हिंदुस्तान बने हैं और ‘इंडोस’ और ‘इंडिया’ भी।”
उन्होंने लिखा है, “हिंदुस्तान में मजहब के लिए पुराना व्यापक शब्द ‘आर्य धर्म’ था । दर-अस्ल धर्म का अर्थ मज़हब या ‘रेलिजन’ से ज्यादा विस्तृत है। इसकी व्युत्पत्ति जिस धातु-शब्द से हुई है उसके मानी हैं एक साथ पकड़ना। आर्य धर्म के भीतर वह सभी मत आजाते हैं जिनका आरंभ हिंदुस्तान में हुआ है, वह मत चाहे वैदिक हों चाहे अ-वैदिक। इसका व्यवहार बौद्धों और जैनों ने भी किया है और उन लोगों ने भी जो वेदों को मानते हैं।”
नेहरू ने लिखा, “हिंदू धर्म जहां तक कि वह एक मत है, अस्पष्ट है, इसकी कोई निश्चित रूपरेखा नहीं; इसके कई पहलू हैं और ऐसा है कि जो चाहे इसे जिस तरह का मान ले। इसकी परिभाषा दे सकना या निश्चित रूप में कह सकना कि साधारण अर्थ में यह एक मत है, कठिन है। अपनी मौजूदा शक्ल में बल्कि बीते हुए जमाने में भी इसके भीतर बहुत से विश्वास और कर्मकांड मिले हैं। इसकी मुख्य भावना यह जान पड़ती है कि अपने को जिंदा रखो और दूसरों को भी जीने दो। ‘हिंदू’ और ‘हिंदू धर्म’ शब्दों का हिंदुस्तानी संस्कृति के लिए इस्तेमाल किया जाना न तो शुद्ध है और न मुनासिब ही है चाहे इन्हें हम बहुत पुराने जमाने के हवाले में ही क्यों न इस्तेमाल कर रहे हों।”
रामायण और महाभारत पर राय
नेहरू ने वेद, उपनिषदों, रामायण और महाभारत को लेकर भी अपनी राय रखी है। नेहरू ने रामायण और महाभारत को लेकर लिखा है कि ये शायद कई सदियों में तैयार हुए और बाद में भी उनमें नए टुकड़े जोड़े जाते रहे। आज भी कई लोगों की राय रहती है कि रामायण के कुछ हिस्सों खासकर उत्तरकांड को बाद में जोड़ा गया था। उन्होंने लिखा है, “मैं कहीं की, किसी ऐसी पुस्तक को नहीं जानता हूं, जिसने कि आम जनता के दिमाग़ पर इतना लगातार और व्यापक असर डाला हो, जितना कि इन दो पुस्तकों ने डाला है। इनके जरिए हमें हिंदुस्तानियों का वह गुण कुछ-कुछ समझ में आता है, जिससे वह एक पंचमेल और जात-पांत में बंटे हुए समाज को इकट्ठा बनाए रखने में, उनके झगड़ों को सुलझाते रहने में, उन्हें वीर परंपरा और नैतिक रहन-सहन की समान भूमिका देने में कामयाब हुए हैं।”
अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए नेहरू लिखते हैं, “मेरे बचपन की सब से पहली यादों में इन महाकाव्यों की उन कहानियों की यादें हैं, कि मैंने अपनी मां से और और घर कीबूढ़ी औरतों से उसी तरह सुना था जिस तरह कि यूरोप या अमरीका में बच्चे परियों की या दूसरी साहस की कहानियां सुनते हैं। इन कहानियों में मेरे लिए, परियों की कहानियों और साहस की कहानियों, दोनों ही के तत्त्व मौजूद थे।”
इन ग्रंथों के समय काल को लेकर नेहरू ने लिखा है, “इन महाकाव्यों की तारीख तय करना मुश्किल है। ये उन दूर के समय के बारे में हैं जब आर्य लोग अभी भारत में बस रहे थे और खुद को मजबूत कर रहे थे। जाहिर है कि कई लेखकों ने इन्हें लिखा या बाद में इसमें चीजें जोड़ीं। रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें कहानी एक जैसा चलता है; जबकि महाभारत बहुत बड़ा और अलग-अलग किस्सों का संग्रह है। दोनों महाकाव्य बुद्ध से पहले के समय में बने होंगे, हालांकि बाद में इसमें कुछ चीजें जोड़ी गईं। रामायण एक महान महाकाव्य है और लोगों का बहुत पसंदीदा है लेकिन वास्तव में महाभारत ही दुनिया की सबसे बड़ी किताबों में से एक है। यह एक विशाल कृति है, जो प्राचीन भारत की परंपराओं, कहानियों, राजनीति और सामाजिक व्यवस्थाओं का एक संपूर्ण संग्रह है।”
नेहरू इन महाकाव्यों के समय को लेकर लिखा है, “महाभारत में भारत या भारतवर्ष की मूल एकता को जोर देकर दिखाने की कोशिश की गई है। पहले इसे आर्यावर्त कहा जाता था, जिसका मतलब था आर्यों की भूमि, लेकिन यह नाम केवल उत्तर भारत तक, विंध्य पर्वतों तक ही सीमित था। उस समय आर्य शायद उस पर्वत सीमा से आगे नहीं बढ़े थे। रामायण की कहानी आर्यों के दक्षिण की ओर विस्तार की है। महाभारत में वर्णित महान गृहयुद्ध माना जाता है कि लगभग चौदहवीं शताब्दी ईसा पूर्व हुआ था। यह युद्ध भारत (या शायद केवल उत्तर भारत) पर अधिकार के लिए था और यह भारतवर्ष के रूप में पूरे भारत की अवधारणा की शुरुआत माना जाता है।”
महाभारत की नेहरू ने तारीफ करते हुए इसमें भारत की सारे प्रमुख विचारों का समागम बताया है। नेहरू लिखते हैं कि महाभारत एक ऐसा भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की क़ीमती चीजें मिल सकती हैं। वे लिखते हैं कि बेशक यह पुस्तक नीति की शिक्षा देने वाली किताब नहीं है लेकिन इसमें नीति का बहुत सारा ज्ञान मिलता है। उन्होंने लिखा, “महाभारत की शिक्षा का सार एक जुमले में रख दिया गया है, ‘दूसरे के लिए तू ऐसी बात न कर जो तुझे खुद अपने लिए नापसंद हो’।”
नेहरू ने लिखा है, “महाभारत में वेदों का बहुदेववाद है, उपनिषदों का अद्वैतवाद है, और देववाद, द्वैतवाद और एकेश्वरवाद भी है। जात-पात के मामलों में कट्टरपन नहीं है। अभी भी लोगों में अपने में भरोसा है; लेकिन ज्यों-ज्यों बाहरी ताकतों के हमले होते हैं और पुरानी व्यवस्था पर वार होता है, त्यों-त्यों यह भरोसा कुछ कम होता जाता है और अंदरूनी एकता और शक्ति पैदा करने के लिए ज्यादा समानता की मांग होती है। नए-नए निषेध लागू होते हैं। बीफ खाना जिसे पहले बुरा नहीं समझा जाता था, बाद में बिलकुल मना कर दिया जाता है। महाभारत में, मान्य अतिथियों को बीफ और बछड़े का मांस पेश करने का उल्लेख मिलता है।”
भगवद् गीता पर नेहरू की राय
महाभारत में युद्ध क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के अर्जुन के साथ संवाद को भगवद् गीता के रुप में जाना जाता है। नेहरू लिखते हैं कि बेशक यह महाभारत का हिस्सा है लेकिन यह अपने आप में अलग और पूर्ण है। नेहरू ने गीता के लिए विलियम वॉन हुम्बोल्ट के गीता को लेकर कह गए कथन ‘यह सबसे सुंदर, शायद अकेला सच्चा दार्शनिक काव्य है, जो कि किसी भी जानी हुई भाषा में मिलता है’ का उद्धरण भी दिया है।
नेहरू ने लिखा है, “बौद्ध-काल से पहले जब इसकी रचना हुई, तब से आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव घटा नहीं हैं। आज भी इसके लिए हिंदुस्तान में पहले जैसा आकर्षण बना हुआ है। हर एक संप्रदाय इसे श्रद्धा से देखता है और अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करता है। संकट के वक़्त, जब कि आदमी का दिमाग़ संदेह से सताया हुआ होता है और अपने फर्ज के बारे में उसे दुविधा दो तरफ खींचती होती है, यह रोशनी और रहनुमाई के लिए गीता की तरफ और भी झुकता है।”
गीता के संदेश को लेकर नेहरू ने लिखा है, “गीता का संदेश सांप्रदायिक या किसी एक खास विचार के लोगों के लिए नहीं है। क्या ब्राह्मण और क्या अजात, यह सभी के लिए है। यह कहा गया है कि “सभी रास्ते मुझ तक पहुंचाते हैं।” इसी व्यापकता की वजह से सभी वर्ग और संप्रदाय के लोगों को गीता मान्य हुई है। विषमता के बीच में भी हम उसमें एकता और संतुलन पाते हैं। और बदलती हुई परिस्थिति पर विजय पाने का रुख। हिंदुस्तान के लोगों ने न जाने कितनी तब्दीलियां देखी हैं और चढ़ाव-उतार भी देखा है। तजुर्बे-पर-तजुर्बे हुए हैं, खयाल-पर-खयाल उठे हैं लेकिन उन्हें हमेशा गीता में कोई ज़िंदा चीज मिली है, जो कि उनके तरक्की करते हुए विचार से मेल खा गई है।”