परमाणु हथियारों ने पाकिस्तान को ‘घास खाने को मजबूर’ कर दिया है!

भारत के साथ परमाणु हथियारों की होड़ के बीच 1970 के दशक में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने लोगों से कहा था, “अगर भारत बम बनाता है, तो हम घास या पत्ते खाएंगे, भूखे भी रहेंगे लेकिन हम अपना खुद का बम बनाएंगे।” आज करीब 50 वर्षों बाद पाकिस्तान के पास परमाणु हथियारों का जखीरा तो है लेकिन वहां के लोग खाने को भी मोहताज होते जा रहे हैं। आर्थिक बदहाली से जूझ रहा पाकिस्तान शायद ‘घास या पत्ते खाने’ को भी मजबूर होने की स्थिति तक पहुंच गया है।

आज से ठीक 27 साल पहले 28 मई 1998 को पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के चागई पहाड़ियों में 5 परमाणु परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया था। पाकिस्तान के लिए यह सिर्फ एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं बल्कि ‘राष्ट्रीय गर्व’ का प्रतीक बन गया था। पूरे देश में जश्न मनाया गया, झंडे लहराए गए और पाकिस्तान के नेताओं ने इसे ऐतिहासिक क्षण बताया। लेकिन अब तीन दशक बाद, सवाल उठ रहे हैं कि क्या उस ‘गर्व’ की कीमत पाकिस्तान को बहुत भारी पड़ रही है?

पाकिस्तान का परमाणु इतिहास

पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम औपचारिक रूप से 1953 में शुरू हुआ, जब Pakistan Atomic Energy Committee (PAEC) की स्थापना की गई। इसके बाद, इस संस्थान ने बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित किया। इस दिशा में दिसंबर 1965 में महत्वपूर्ण कदम तब उठाया गया जब पाकिस्तान का पहला ‘स्विमिंग पूल रिएक्टर’ (Swimming Pool Reactor) चालू हुआ। Feroz Hassan Khan ने अपनी किताब ‘Eating Grass: The Making of the Pakistani Bomb’ में लिखा है, “पाकिस्तान के शुरुआती इतिहास में परमाणु हथियारों की ज़रूरत या उपयोगिता के बारे में कोई आम सहमति नहीं थी। केवल कुछ व्यक्ति विशेष रूप से भुट्टो मानते थे कि परमाणु हथियार हासिल करना पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण था। हालांकि, 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के विनाशकारी नुकसान और 1974 में भारतीय परमाणु परीक्षण के बाद परमाणु हथियारों के पक्ष में राय राष्ट्रीय आम सहमति बन गई परमाणु हथियारों की आवश्यकता एक मुख्यधारा की मान्यता बन गई।”

पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर भी कई तरह के सवाल उठाए जाते रहे हैं। खुशवंत सिंह जुलाई 1979 में न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे अपने लेख में लिखते हैं, “पाकिस्तान की परमाणु बम बनाने की योजना को कुछ इस्लामी देशों का समर्थन भी मिला था। बाद की जांचों से यह पुष्टि हुई कि विदेशी पत्रिकाओं में जो खबरें छपी थीं, वे सही थीं कि कई अरब देशों, खासकर लीबिया और सऊदी अरब ने पाकिस्तान के परमाणु अनुसंधान और गुप्त रूप से उपकरण खरीदने के लिए आर्थिक मदद दी थी। अरब देशों का यह समर्थन मुख्य रूप से इज़रायल के खिलाफ इस्तेमाल के लिए माना जा रहा है लेकिन भारत को पूरा विश्वास है कि पाकिस्तान इस बम को भारत के खिलाफ तैनात करेगा।”

सुरक्षा मिली लेकिन किस कीमत पर?

पाकिस्तानी सरकार ने कभी भी खुलकर यह नहीं बताया है कि उसके पास कितने परमाणु हथियार हैं। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की 2025 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 की शुरुआत में पाकिस्तान के पास 170 परमाणु हथियार थे और यह संख्या 2023 में भी इतनी ही थी। वहीं, फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स (FAS) की रिपोर्ट में भी 2025 में पाकिस्तान के पास 170 परमाणु हथियार होने का दावा किया गया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि 1998 से अब तक पाकिस्तान ने अपने परमाणु कार्यक्रम पर लगभग 20 से 25 बिलियन डॉलर खर्च किए हैं। यदि इसमें सैन्य ढांचा, हथियार प्रणालियां और अनुसंधान पर हुआ व्यय भी जोड़ लिया जाए तो कुल खर्च और अधिक हो जाता है। पाकिस्तान के 2024–25 के बजट में रक्षा क्षेत्र को 17% आवंटित किया गया है, जो स्वास्थ्य और शिक्षा के संयुक्त बजट से करीब दोगुना है।

International Campaign to Abolish Nuclear Weapons (ICAN) के मुताबिक, 2022 में पाकिस्तान ने अपने परमाणु हथियारों के निर्माण और रखरखाव पर अनुमानतः 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए थे। यह आकंड़ा हर दिन का करीब 2.74 मिलियन अमेरिकी डॉलर होता है। अगर इसे पाकिस्तानी रूपए में बात करें तो यह आंकड़ा हर दिन का करीब 77.5 करोड़ पाकिस्तानी रुपए होता है।

पाकिस्तान पर गहराता आर्थिक संकट

परमाणु शक्ति बनने के बावजूद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लगातार संकट में घिरती जा रही है। जहां एक ओर देश खुद को एक परमाणु ताकत के रूप में प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर $130 अरब से अधिक विदेशी कर्ज और बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और पाकिस्तानी रुपये की गिरती कीमत आम नागरिक के लिए जीवन को दिन-ब-दिन और मुश्किल बना रही है।

पाकिस्तान की IMF पर निर्भरता एक पुरानी कहानी बन चुकी है। आज़ादी के बाद से अब तक पाकिस्तान ने 23 बार IMF से बेलआउट पैकेज लिए हैं, यानी औसतन हर 3.4 साल में एक बार। हाल ही में 2024 में पाकिस्तान ने फिर से $3 अरब का आपातकालीन ऋण हासिल किया। लेकिन इस मदद के साथ आई शर्तें जनता के लिए भारी साबित हुईं, ऊर्जा सब्सिडी में कटौती, करों में वृद्धि, और सार्वजनिक खर्चों में कमी जैसी नीतियां अपनानी पड़ीं। दिलचस्प बात यह है कि इन सख्त आर्थिक उपायों का बोझ आम लोगों पर पड़ा लेकिन रक्षा बजट इससे भी अछूता ही रहा। सेना के खर्च में कोई कटौती नहीं की गई जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक कल्याण योजनाओं में संसाधनों की भारी कमी देखी गई।

क्या हैं असली प्राथमिकताएं?

पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली सिर्फ घाटे और कर्ज के आंकड़ों तक सीमित नहीं है। लेकिन इन सबकी असली समस्या है, राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का गंभीर असंतुलन। सुरक्षा की तलाश में पाकिस्तान ने परमाणु हथियारों को सबसे ऊपर रखा, और इसी चक्कर में उसने उन बुनियादी स्तंभों को कमजोर कर दिया जो किसी देश की लंबे वक्त की ताकत का आधार होते हैं।

आज पाकिस्तान मानव विकास सूचकांक (HDI) में 191 देशों में 161वें स्थान पर है। हर तीसरा पाकिस्तानी गरीबी में जी रहा है और 2 करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जिस युवा आबादी को भविष्य की उम्मीद कहा जाता है, वही अब बोझ बनती जा रही है, क्योंकि देश में न नौकरियां हैं, न ही स्किल ट्रेनिंग या शिक्षा में निवेश।

पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम, जो कागज पर तो राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक ताकत देता है, असल में एक झूठे आत्मविश्वास का आवरण बन चुका है। इसने सत्ता को यह भ्रम दे दिया है कि हथियारों के बल पर सब कुछ सम्भव है, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि शासन कमजोर है, राजनीति में सेना का दखल बढ़ता गया है और आर्थिक उत्पादन में निवेश लगातार गिरा है।

आसान नहीं आगे की राह

पाकिस्तान के सामने जो रास्ता है, वह आसान नहीं बल्कि बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है। देश आज एक परफेक्ट स्टॉर्म से गुजर रहा है- जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याएं, पानी की भारी कमी, ऊर्जा संकट, भू-राजनीतिक अनिश्चितताएं पाकिस्तान के सामने खड़ी हैं। पाकिस्तान का एक बड़ा तबका भी भीतर ही भीतर सरकार और सेना के प्रति आक्रोशित नज़र आ रहा है।

अगर पाकिस्तान को इस संकट से बाहर निकलना है, तो अब संरचनात्मक सुधारों (structural reforms) की सख्त ज़रूरत है:

  • सबसे पहले, टैक्स बेस को व्यापक बनाना होगा

  • दूसरा, आर्थिक नीतियों पर सैन्य दखल को कम करना होगा।

  • तीसरा, सरकारी खर्च का रुख शिक्षा, स्वास्थ्य और नवाचार की ओर मोड़ना होगा।

इसके साथ-साथ, रक्षा खर्च में पारदर्शिता और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर नागरिक नेतृत्व में खुली बहस जरूरी है  जिससे देश आर्थिक रूप से स्थिर हो सके और सही दिशा में आगे बढ़े। लेकिन इन सभी सुधारों के लिए वह चीज चाहिए, जो पाकिस्तान की राजनीति में हमेशा से कमी रही है- दीर्घकालिक सोच और राजनीतिक साहस।अगर अब भी पाकिस्तान ने अपनी प्राथमिकताएं नहीं बदलीं, तो एक समय ऐसा आ सकता है जब परमाणु ताकत भी उसे अंदर से ढहने से नहीं बचा पाएगी। यह वक्त सिर्फ बम दिखाने का नहीं बल्कि अपनी बुनियाद को मजबूत करने का है।

परमाणु शक्ति: गर्व या बोझ?

पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम डर और असुरक्षा की भावना से जन्मा एक ऐसा कदम था जो क्षेत्रीय ख़तरों और भारत की परमाणु शक्ति के जवाब में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उठाया गया था। उस दौर में इसका उद्देश्य स्पष्ट था: अपने लिए सुरक्षा और क्षेत्रीय संतुलन कायम करना। इस लिहाज़ से अगर समझा जाए तो पाकिस्तान ने तब जो चाहा वो पा भी लिया। लेकिन अब लगभग तीन दशक बाद यही परमाणु ताकत एक भारी आर्थिक बोझ बन चुकी है। सुरक्षा के नाम पर शुरू हुआ यह सफर अब एक ऐसे मोड़ पर आ गया है, जहां इसकी लागत तो लगातार बढ़ रही है लेकिन वास्तविक सुरक्षा लाभ धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं।

आज पाकिस्तान एक ऐसे विरोधाभास में जी रहा है जहां एक ओर परमाणु ताकत है लेकिन दूसरी ओर कमजोर व फटेहला अर्थव्यवस्था। एक ऐसा देश जो बाहर से मज़बूत दिखता है लेकिन भीतर से खोखला होता जा रहा है। अब समय आ गया है कि पाकिस्तान अपने हथियारों की चमक से ज़्यादा अपने लोगों की ज़रूरतों और भविष्य पर ध्यान दे, वरना यह तलवार सिर्फ दुश्मन को नहीं बल्कि खुद को भी घायल करती रहेगी।

Exit mobile version