भारत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां उसे अपनी रणनीतिक दिशा तय करनी है। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के साथ चलने वाले भारत ने अंतरिक्ष, परमाणु, रक्षा और मिसाइल तकनीक में लंबा सफर तय किया है। इसरो के नेतृत्व में अंतरिक्ष कार्यक्रम ने चांद और मंगल मिशनों को अंजाम दिया। डीआरडीओ के मिसाइल कार्यक्रम ने स्वदेशी तकनीक रक्षा क्षमता के विकसित किया। इन्हें वैज्ञानिक प्रतिभा दिखाने के साथ ही राष्ट्रीय मिशन की तरह लिया गया। इसकी निगरानी प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से हुई। यही से सीधा सपोर्ट भी मिला। हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी स्वदेशी जेट इंजन कार्यक्रम लंबी कोशिश के बाद भी अभी उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया जहां हम देखना चाहते हैं। ऐसे में जरूरत है कि जेट इंजन कार्यक्रम को भी परमाणु और अंतरिक्ष मिशनों की तरह PMO की सीधी निगरानी में लाना चाहिए। इसी से भारत तमाम क्षेत्रों की तरह ही हवाई में भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो पाएगा।
जेट इंजन तय करते हैं युद्ध की दिशा
जेट इंजन इंसान सबसे उन्नत मशीनों में से हैं। क्योंकि, इसके लिए 1,500 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान झेलने वाले मटेरियल और उम्दा इंजीनियरिंग की मांग होती है। खुद का हाई-थ्रस्ट, भरोसेमंद जेट इंजन बनाना मात्र प्रतिष्ठा की बात नहीं है। बल्कि, ये किसी देश के सैन्य स्वायत्तता के लिए जरूरी है। जेट इंजन ही तय करते हैं कि फाइटर जेट तेज गति से उड़ सके। ज्यादा हथियार ले जाए और दुस्मन के रडार से बच निकले। जरूरत पड़ने पर लद्दाख और अरुणाचल जैसे ऊंचे इलाकों में युद्ध कर पाए। अगर इंजन स्वदेशी नहीं होंगे तो भारत नए विमान, उनके पार्ट्स, मेंटेनेंस और परफॉर्मेंस बढ़ाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहेगा। युद्ध के समय सप्लाई चेन कटने या राजनीतिक दबाव की स्थिति में ये निर्भरता बड़ी कमजोरी बन सकती है।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद दिखी जेट इंजन की जरूरत
हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनाव बढ़ा। इसने भारत की सीमाओं और सुरक्षा की ताकत को दिखाया। पहलगाम का बदला लेने के लिए भारतीय वायुसेना ने सटीक ऑपरेशन किए। हालांकि, इसके लिए राफेल जेट्स को आगे करना पड़ा। ये निर्भरता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपने के खिलाफ है। मिसाइलों और सैटेलाइट्स में भारत ने पूरी आत्मनिर्भरता हासिल की, लेकिन फाइटर जेट, जो भारत की ताकत का आधार हैं, अभी भी विदेशी इंजनों पर चलते हैं। इस कमी को दूर करना होगा।
फिर से DRDO ने उठाया कावेरी का जिम्मा
1980 में डीआरडीओ के गैस टरबाइन रिसर्च एस्टैब्लिशमेंट (जीटीआरई) ने कावेरी इंजन शुरू किया था, जो लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) तेजस को पावर देना था। ये प्रोजेक्ट बार-बार नाकाम रहा और जरूरी थ्रस्ट नहीं दे पाया। 2000 के दशक तक इसे तेजस से हटा दिया गया और विदेशी इंजन लगाए गए। ये असफलता सिर्फ तकनीकी नहीं थी, बल्कि इसमें संस्थागत कमियां, फंडिंग की कमी, जवाबदेही का अभाव और रणनीतिक निगरानी की कमी थी। अब कावेरी 2.0 के तहत इसे फिर से शुरू किया गया है, जिसमें डीआरडीओ को करीब 2,500 करोड़ रुपये दिए गए हैं। ये नया इंजन 110 kN थ्रस्ट देगा, जो तेजस Mk2, ट्विन इंजन डेक-बेस्ड फाइटर (TEDBF) और पांचवीं पीढ़ी के एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (AMCA) को पावर दे सकता है।
PMO की एंट्री क्यों जरूरी?
सिर्फ पैसा डालने से काम नहीं चलेगा। जेट इंजन बनाने के लिए निरंतरता, केंद्रीकृत समन्वय और लंबे समय तक राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। इसके लिए डीआरडीओ की रिसर्च, एचएएल की मैन्युफैक्चरिंग, प्राइवेट सेक्टर की इनोवेशन और एकेडमिया की मटेरियल साइंस को एक साथ लाना होगा। अभी ये सब अलग-अलग काम कर रहे हैं। यहीं पीएमओ की भूमिका जरूरी है। इतिहास बताता है कि अंतरिक्ष और मिसाइल प्रोग्राम तभी कामयाब हुए, जब उन्हें राष्ट्रीय मिशन बनाया गया और पीएमओ से लगातार समर्थन मिला। डॉ. कलाम का मिसाइल प्रोग्राम और डॉ. विक्रम साराभाई का अंतरिक्ष विजन सिर्फ साइंस की वजह से नहीं बल्कि सबसे ऊपरी स्तर के रणनीतिक समर्थन की वजह से फला-फूला।
पीएमओ की निगरानी से फायदे
पीएमओ की निगरानी से हाई-एल्टीट्यूड टेस्टिंग सुविधाएं और हॉट-सेक्शन वैलिडेशन लैब जैसी जरूरी टेस्टिंग सुविधाएं जल्दी बन सकती हैं। ये अभी भारत के पास अभी नहीं हैं। इससे प्राइवेट सेक्टर को भी बढ़ावा मिलेगा। जैसे कि एडिटिव मैन्युफैक्चरिंग, AI-बेस्ड डायग्नोस्टिक्स और प्रिसिजन कास्टिंग में जल्द और तेज सुधार होगा। ये सब तभी मुमकिन है जब पीएमओ इसे लीड करे।
- पहला- राष्ट्रीय मिशन का दर्जा मिलने से राजनीतिक बदलाव या नौकरशाही फेरबदल का असर नहीं होगा।
- दूसरा- जवाबदेही और समयबद्ध लक्ष्य तय होंगे। इससे रक्षा का R&D में मदद मिलेगी। जिसमें दशकों से देरी हो रही है।
- तीसरा- पीएमओ सीधे अंतरराष्ट्रीय तकनीक-साझेदारी सौदों पर बातचीत और निगरानी कर सकेगा।
भारत अभी अमेरिका (GE), फ्रांस (Safran) और ब्रिटेन (Rolls-Royce) के साथ जॉइंट वेंचर या टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की बात कर रहा है। सिर्फ टॉप-लेवल बातचीत ही सुनिश्चित कर सकती है कि ये सौदे सिर्फ सतही तकनीक तक सीमित न रहें। बल्कि सिंगल-क्रिस्टल टरबाइन ब्लेड, कूलिंग टेक्नोलॉजी और हाई-टेम्परेचर मेटलर्जी जैसी अहम जानकारी मिले।
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कावेरी 2.0 एक बड़ा मौका
भारत का वैश्विक ताकत बनना इस बात पर निर्भर करता है कि वो अपनी अहम तकनीकी निर्भरताओं को खत्म करे। मंगल ऑर्बिटर लॉन्च करना या एंटी-सैटेलाइट हथियार बनाना शानदार है। हालांकि, विश्व-स्तरीय फाइटर इंजन न बना पाना सोच का विषय है। भारत तब तक सच्चा एयरोस्पेस ताकतवर नहीं बन सकता जब तक उसके जेट विदेशी इंजनों पर उड़ते हैं। कावेरी 2.0 एक बड़ा मौका है। लेकिन इसे पीएमओ के नेतृत्व, मूल्यांकन और निगरानी में चलाना होगा। तभी भारत प्रोपल्शन स्वतंत्रता हासिल कर पाएगा और एक ऐसी स्वतंत्र वायुसेना बना पाएगा, जो उभरते खतरों का सीधे मुकाबला कर सके।


























