केरल में हाल ही में CPI(M)-नेतृत्व वाली सरकार द्वारा स्कूलों के पाठ्यक्रम में राज्यपाल के अधिकारों को शामिल करने का जो निर्णय लिया गया है, उसे लेकर राजनीतिक गलियारों में तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। आलोचकों का कहना है कि यह कदम न केवल अभूतपूर्व है, बल्कि पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रेरित भी है। उनके अनुसार, यह बदलाव राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच पिछले कुछ समय से जारी टकराव का सीधा और स्पष्ट जवाब है। राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कई मुद्दों को लेकर मतभेद चल रहे हैं, जिनमें विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों से लेकर विधायी मामलों में हस्तक्षेप तक शामिल हैं।
ऐसे में सरकार द्वारा अचानक स्कूली शिक्षा में राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों को पढ़ाया जाना, शिक्षा क्षेत्र को राजनीति में घसीटने जैसा प्रतीत होता है। आलोचक यह भी तर्क दे रहे हैं कि इस तरह के फैसले से न केवल छात्रों को एकतरफा दृष्टिकोण सिखाया जा सकता है, बल्कि इससे शैक्षिक पाठ्यक्रम की निष्पक्षता और संतुलन पर भी सवाल उठते हैं। विपक्षी दलों और शिक्षा विशेषज्ञों ने इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि सरकार को शिक्षा को राजनीतिक उद्देश्य साधने का उपकरण नहीं बनाना चाहिए।
विवाद की शुरुआत: एक कार्यक्रम और भगवा झंडे का प्रश्न
यह विवाद उसी समय शुरू हुआ, जब शिक्षा मंत्री वी. शिवनकुट्टी राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकार के सरकारी आवास पर आयोजित एक कार्यक्रम से नाराज़गी व्यक्त कर लौट गए। उनका कहना था कि वहां “भारत माता” की एक तस्वीर रखी गई थी जिसमें हाथ में भगवा झंडा था, वह इसे एक राजनीतिक प्रतीक मानते थे। शिवनकुट्टी ने टिप्पणी की कि यह एक सांकेतिक राजनीतिक तत्व है, जो सरकारी समारोहों के मंच के लिए उपयुक्त नहीं है। उनकी नाराज़गी ने फिर से बाएँ मोर्चा सरकार और राज्यपाल कार्यालय के बीच चल रही कटुता का पुनः प्रमाण पेश किया।
पाठ्यक्रम में बदलाव की घोषणा
शुक्रवार को शिक्षा मंत्री शिवनकुट्टी ने घोषणा की कि अब कक्षा 10 की सामाजिक विज्ञान की पुस्तकें राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों की जानकारी प्रदान करेंगी और इसके साथ ही, कक्षा 11 और 12 के पाठ्यक्रम में भी इसी विषय पर विस्तृत सामग्री जोड़ी जाएगी। उन्होंने जोर दिया- “सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के अधिकार स्पष्ट कर दिए हैं। छात्रों को संवैधानिक शिक्षा दी जानी चाहिए। राज्यपाल को छात्रों को ‘भारत माता की पूजा करें’ जैसी सलाह नहीं देनी चाहिए।”
यह घोषणा उसी दिन आयी जब शिवनकुट्टी ने राजभवन में आयोजित एक राज्य स्तर समारोह को बीच में छोड़ दिया था, उन्होंने कहा कि यह तस्वीर न तो उस समारोह का हिस्सा थी, और न ही सरकारी आयोजन का किसी प्रकार से समर्थन करती थी।
मंत्री का बाहर निकलना और राज्यपाल की प्रतिक्रिया
शिवनकुट्टी ने यह भी कहा कि राज्यपाल द्वारा भारत माता की उस तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित करना उपयुक्त नहीं था। उन्होंने कहा, “राजभवन सरकार का निजी परिसर नहीं है, इसे किसी संगठन का केंद्र नहीं बनना चाहिए। कार्यक्रम में राजनीतिक प्रतीकों का इस्तेमाल पूर्व-निर्धारित नहीं था। मैंने अपना विरोध जताया और उसी समय कार्यक्रम छोड़ दिया।” राज्यपाल अर्लेकार ने इसे सार्वजनिक रूप से “प्रोटोकॉल का उल्लंघन” और राज्यपाल पद का अपमान बताया। उन्होंने कहा कि भारत माता का चित्र हटाया या विरोध किया जाना उचित नहीं है। उनका तर्क था-“भारत माता हमारे राष्ट्र-भावना और एकता की प्रतीक हैं। हम उसी के ज़रिए बच्चों में देशभक्ति की भावना सींचते हैं।”
यह कोई पहली टकराहट नहीं है। इससे पहले भी इस साल इसी तरह के विवाद हो चुके हैं, जहाँ राज्यपाल और बाएँ मोर्चा सरकार के बीच “भारत माता” या भगवा झंडे को लेकर तनाव बना रहा। बाएँ मोर्चा आरोप लगाता रहा है कि राज्यपाल दायाँ झुकाव रखते हुए धार्मिक और राजनीतिक प्रतीकों के माध्यम से एक विचारधारा को बढ़ावा दे रहे हैं। वहीं राजभवन का आरोप है कि भारत माता सिर्फ राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है, वह राजनीतिक पहचान नहीं है।
पाठ्यक्रम में बदलाव की तीखी आलोचना
राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का फैसला कई लोगों के लिए एक संकेत बना है कि शिक्षा अब राजनीतिक संदेश का माध्यम बन रही है। जबकि सहमति है कि छात्रों को संवैधानिक ज्ञान होना चाहिए, आलोचकों का कहना है कि इस समय और संदर्भ में यह बदलाव गलत है, कि यह विवादित समय की प्रतिक्रिया लगता है।
वे चिंतित हैं कि यह सामाजिक विज्ञान की पुस्तकें राज्यपाल के अधिकारों को एक पक्षीय नजरिए से पढ़ा सकती हैं, जो न केवल केरल के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक खतरनाक मिसाल बन सकता है। यह खटपट कोई नई बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे मामले कई बार उजागर हुए हैं। पूर्व राज्यपाल अरिफ मोहम्मद खान और मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के बीच विश्वविद्यालयों में नियुक्ति, प्रशासनिक हस्तक्षेप और विधेयकों के स्वीकृतन में देरी को लेकर तीव्र टकराव हुआ था। अर्लेकार ने भी ये आरोप लगाए थे कि सरकार संवैधानिक नियमों की अवहेलना कर रही है और राज्यपाल की भूमिका को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।
संवैधानिक समझदारी और सह-अस्तित्व की चुनौती
यह विवाद सार्वजनिक विमर्श में तब्दील हो गया है, जो हमें चेतावनी देता है कि संविधान की सीमाओं और संस्थाओं के बीच तालमेल की समझ कितनी आवश्यक है। छात्रों को संवैधानिक अधिकारों की शिक्षा दी जानी चाहिए लेकिन यह शिक्षा राजनीतिक रंग से मुक्त हो, यही दृष्टिकोण स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक है।
राज्यपाल का कार्यालय केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संतुलन बनाता है, और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता है। विविधता और बहुलता वाले भारतीय लोकतंत्र में संस्थागत गरिमा, सार्वजनिक संवाद की मर्यादा और संविधान के सुरक्षित संचालन का दायित्व हमें सभी को मिलकर निभाना चाहिए।