आपातकाल से इनकार को अपराध की श्रेणी में लाए सरकार

25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा करते हुए देशवासियों व विरोधी दलों के नेताओं से उनकी आज़ादी छीन ली थी

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए लगा था आपातकाल

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए लगा था आपातकाल

आज से ठीक 50 साल पहले भारत के लोगों ने लोकतंत्र का काला अध्याय देखा था। 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा करते हुए देशवासियों व विरोधी दलों के नेताओं से उनकी आज़ादी छीन ली थी। इस दौरान 21 महीने तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को एक प्रकार से चुप ही करा दिया गया था। इस दौरान न सिर्फ संविधान को कुचला गया बल्कि देशवासियों और विरोधी दलों के नेताओं को चुप भी करा दिया गया। अब इस दिन को संविधान की हत्या के दिन के रूप में देश भर में याद किया जाता है।

पूर्व प्रधानमंत्री की इस कार्रवाई के पीछे का कारण उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला था। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव में धांधली के आरोपों को सही ठहराते हुए इंदिरा गांधी के चुनाव को ही अमान्य करार दे दिया था। इसके बाद पूर्व पीएम ने देश की आंतरिक सुरक्षा और सार्वजनिक खतरों का हवाला देते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद पूरे 21 महीनों तक देश में मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता रहा। देश में सेंसरशिप लगाते हुए प्रेस की स्वतंत्रता को भी निलंबित कर दिया गया था। इतना ही नहीं, व्यापक तौर पर राजनीतिक विरोधियों की सार्वजनिक गिरफ़्तारी भी की गयी।

इस दौरान जो कार्रवाइयां की गईं, वे अभूतपूर्व थीं। इस बुरे दौर से गुजरने के 50 साल बाद में सरकार के उस दमन की कहानी को आज भी सही ठहराने की कोशिशें जारी हैं। आपातकाल को नकारने और उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करने का चलन आज भी जारी है। इन सबको देखते हुए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के पास इन सब पर रोक लगाने का समय अब आ गया है। ठीक वैसे ही जैसे यूरोप के कई देश होलोकॉस्ट (यहूदियों का नरसंहार) को नकारने को अपराध मानते हैं।

जानें क्या-क्या की गई थी कार्रवाई?

इमरजेंसी के दौरान देश भर से करीब एक लाख लोगों को जेलों में डाल दिया गया।इतना ही नहीं, सेंसरशिप लगाकर अखबारों की सुर्खियों पर भी लगाम लगा दी गई। इसके बाद जबरन नसबंदी अभियान ने भी हजारों लोगों को प्रभावित किया। इसे केवल राजनीतिक संकट ही नहीं, लोकतंत्र का जानबूझकर खात्मा करने के प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए

मोदी सरकार पर आरोप लगा रही कांग्रेस

अब वर्तमान समय में इसे फिर से सही ठहराने के प्रयास किये जा रहे हैं। देश में आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने मोदी सरकार पर पिछले एक दशक में ‘अघोषित आपातकाल’ लागू करने का आरोप लगाया है। इस मामले में खड़गे ने तर्क दिया कि इन कार्रवाइयों ने भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं और संविधान को कमज़ोर किया है। हालांकि, वे बयान देते हुए वे यह भूल गए कि उनकी ही पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर ही लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप है।

तृणमूल कांग्रेस भी आयी बचाव में

इन सबके अलावा तृणमूल कांग्रेस की सांसद सागरिका घोष ने तो आपातकाल को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ने की भी कोशिश की। उन्होंने यह सुझाव देते हुए कहा कि 1975 की घटनाओं पर संघ का वैचारिक प्रभाव था। हालांकि, यह बात पूरी तरह से झूठ और मनगढ़ंत है। दरअसल, आपातकाल के दौरान आरएसएस पर भी प्रतिबंध लगाया गया था। संघ के सदस्यों को आपातकाल का विरोध करने पर जेलों में डाल दिया गया था। इन सबके बाद भी संघ के सदस्यों पर इसके लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाना न केवल झूठ है, बल्कि खतरनाक और गैरजिम्मेदाराना भी है।

जरूरी है कार्रवाई इन

सबके बाद भी राजनीतिक और सामाजिक हस्तियों की ओर से ऐसी गलत सूचनाएं फैलाना उन सबका अपमान है, जिन्होंने देश के लिए लड़ाई लड़ी और इमरजेंसी की यातनाएं भी झेलीं।

सच्चाई पर हमला है इमरजेंसी को नकारना

जर्मनी, फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे देशों ने वहां पर हुए होलोकॉस्ट को नकारने की बातों को अपराध का दर्जा दिया है। इस बारे में उनका तर्क स्पष्ट है कि कुछ घटनाएं किसी राष्ट्र की पहचान और नैतिकता के लिए इतनी महत्वपूर्ण होती हैं कि उन्हें नकारना सच्चाई पर हमला है। अब भारत को भी इसी तरह के सख्त कानून की ज़रूरत है। ताकि, उन लोगों को दंडित किया जा सके, झूठी कहानियां फैलाते हैं।

ऐसा कर सकती है सरकार

आपातकाल को सही ठहराने के कुत्सित प्रयासों के बीच केंद्र सरकार इसके खिलाफ एक आधिकारिक आयोग का गठन कर सकती है, जिसके माध्यम से ऐतिहासिक सच्चाई को संरक्षित करते हुए आपातकाल की अवधि की गवाही, रिकॉर्ड और सबूतों का दस्तावेजीकरण किया जा सके। इतना ही नहीं, देश ने सदियों से आक्रमण, उपनिवेशवाद समेत इस्लामी और साम्राज्यवादी शासनों की क्रूरता का सामना किया है।

हालांकि, आपातकाल इन सबसे अलग था। यह लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार की ओर से अपने ही संविधान के खिलाफ़ भीतर से किया गया हमला था। अगर हम आपातकाल के काले दिनों को मिटाने की अनुमति देते हैं तो यह हमारे लिए खतरनाक होगा। इन सबके इतर, अगर हम आपातकाल से इंकार को अपराध की श्रेणी में ला देते हैं तो यह भारत की ओर से विश्व को एक शक्तिशाली संदेश होगा, जो लोकतंत्र के इस अध्याय को फिर से नहीं आने देगा।

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