एक समय था जब ईरान अग्नि और सूर्य उपासकों की भूमि था तब इसे फारस के नाम से जाना जाता था। यहां जरथुस्त्र धर्म (Zoroastrianism) का प्रभुत्व था, जिसमें प्रकृति की शक्तियों और नैतिकता की पूजा की जाती थी। परंतु आज ईरान एक इस्लामी गणराज्य है और वह भी एक प्रमुख शिया बहुल राष्ट्र है। यह परिवर्तन मात्र धार्मिक नहीं था बल्कि राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धाराओं के बहाव से आया था जिसमें अरब फतह, इस्लामीकरण और स्थानीय फारसी योगदान की जटिल परतों की कहानी जुड़ी हुई हैं। इस लेख में जानेंगे कि कैसे सूर्य उपासक ईरान एक इस्लामी गणराज्य बन गया।
फारस: अग्नि और प्रकाश का उपासक राष्ट्र
पारसी या जरथुस्त्र धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। इस्लाम के आगमन से पूर्व ईरान में यही धर्म प्रमुख था। इसकी स्थापना लगभग 3500 वर्ष पूर्व पैगंबर ज़रथुस्त्र ने की थी। इस धर्म के अनुयायी एकेश्वरवादी होते हैं और ‘अहुरमज़्दा’ को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में पूजते हैं। हालांकि, धार्मिक अनुष्ठानों और दैनिक पूजा-पद्धतियों में ‘अग्नि’ को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त है। पारसियों का धर्मग्रंथ ‘जेंद अवेस्ता’ कहलाता है, जो अवेस्ता भाषा में लिखा गया है, यह भाषा ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक प्राचीन शाखा मानी जाती है। इसी कारण ऋग्वेद और अवेस्ता में कई शब्द और धारणाएं समान दिखाई देती हैं। वर्तमान में ‘जेंद अवेस्ता’ ग्रंथ का केवल पांचवां भाग ही सुरक्षित और उपलब्ध है।
इस धर्म में स्पेन्ता मैन्यू और अंग्र मैन्यू, शक्तियों को मान्यता दी गयी है। इनमें से स्पेन्ता मैन्यू को विकास और प्रगति जबकि अंग्र मैन्यू को विघटन और विनाश की शक्ति माना जाता है। ज़रथुस्त्र धर्म (Zoroastrianism) में अग्नि मंदिर को पूजा का स्थान माना जाता है। इसे फारसी भाषा में ‘दर-ए-मेहर’ और गुजराती में ‘अगियारी’ कहा जाता है। ससानी साम्राज्य (224–651 ईस्वी) के दौरान यह धर्म राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त राजधर्म था। अग्नि, जो प्रकाश और शुद्धता का प्रतीक थी, ज़रथुस्त्र धर्म का प्रमुख पूज्य तत्व रही। ईरान भर में अग्नि मंदिर स्थापित किए गए, जहाँ पवित्र अग्नि को अनवरत जलाकर पूजा की जाती थी।
इस्लामी फतह: तलवार और सत्ता का आगमन
7वीं सदी में पैगंबर हज़रत मोहम्मद की मृत्यु के बाद इस्लामी विस्तार ने तीव्र गति पकड़ी। 633 से लेकर 651 ईस्वी तक, अरब मुस्लिम सेनाओं ने ससानी शासित फारस पर संगठित और आक्रामक हमले किए। यह ऐतिहासिक संघर्ष “इस्लामिक कन्क्वेस्ट ऑफ पर्शिया” के नाम से जाना जाता है। अरबों की इस सैन्य मुहिम की निर्णायक लड़ाई 636 ईस्वी में अल-क़ादिसीयाह में हुई, जहां ससानी सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 637 में उन्होंने ससानी साम्राज्य की राजधानी क़तेसिफ़ोन (Ctesiphon) पर कब्जा कर लिया।
642 ईस्वी में नहावंद की लड़ाई ने फारसी सैन्य शक्ति की कमर तोड़ दी। यह लड़ाई मुस्लिम इतिहास में “फत्ह अल-फुतूह” (विजयों की विजय) के नाम से दर्ज है। यज़्देगिर्द III, जो 632 से 651 ईस्वी तक सासानी साम्राज्य के अंतिम सम्राट थे, अरब आक्रमणों के बाद पूर्व दिशा की ओर भाग निकले। अंततः 651 ईस्वी में वे मर्व (आज का तुर्कमेनिस्तान) पहुंचे, जहां एक स्थानीय चक्की संचालक ने उन्हें केवल उनके गहनों की लूट के इरादे से मार डाला। हालांकि, इस दावे पर कई सवाल हैं, कहा जाता है कि यज़्देगिर्द III को मर्व के क्षेत्रीय गवर्नर ने ही मार दिया था, जो यज़्देगिर्द की समय तक अवास्तविक मांगों से नाराज था। उनके साथ ही ससानी राजवंश का अंत हुआ और फारस पर इस्लामी नियंत्रण स्थापित हो गया।
इस्लाम का धीरे-धीरे सामाजिक प्रसार
अरबों द्वारा फारस विजय के बाद भी, ज़रथुस्त्र धर्म के अनुयायी बड़ी संख्या में मौजूद थे। प्रारंभ में इस्लाम धर्म को अपनाने में जनता ने हिचकिचाहट दिखाई। परंतु धीरे-धीरे इस्लाम का प्रभाव बढ़ने लगा, विशेषतः ज़िम्मी कर (Jizya) जैसे करों के कारण, जो गैर-मुस्लिमों पर लगाए जाते थे। इस कर को चुकाने से बचने और सामाजिक-राजनीतिक लाभ पाने के लिए कई लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।
साथ ही, इस्लामी शासन के तहत शिक्षा, न्याय और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में मुसलमानों को प्राथमिकता दी जाती थी, जिसने धर्मांतरण की गति को और तेज किया। अरब शासन के बावजूद फारसी भाषा और संस्कृति को पूरी तरह समाप्त नहीं किया गया। इसके विपरीत, इस्लामी प्रभाव और फारसी बौद्धिकता का संगम देखने को मिला। फारसी विद्वानों ने इस्लामी दर्शन, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में गहरा योगदान दिया। सफवी वंश (1501–1736) के उदय के साथ शिया इस्लाम को ईरान का राजधर्म घोषित कर दिया गया, जिसने ईरान की धार्मिक पहचान को और अधिक विशिष्ट बना दिया।
जरथुस्त्र धर्म का पतन
अरबों की विजय के बाद ज़रथुस्त्र धर्म के अनुयायियों की स्थिति धीरे-धीरे कमजोर होती गई। धार्मिक उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्कार और भारी करों के दबाव के कारण, उन्हें या तो इस्लाम स्वीकार करना पड़ा या अपने देश को छोड़ना पड़ा। कुछ ज़रथुस्त्री समुद्र पार कर भारत पहुंचे, जहां उन्होंने पारसी समुदाय के रूप में नई ज़िंदगी की शुरुआत की। आज ईरान में ज़रथुस्त्र धर्म के अनुयायी केवल कुछ हजारों की संख्या में बचे हैं, जबकि भारत में पारसी समुदाय अपनी अनूठी धार्मिक पहचान और परंपराओं के साथ जीवंत रूप में विद्यमान है।
ईरान का प्राचीन सूर्य और अग्नि उपासक देश, जो कभी ज़रथुस्त्र धर्म की धरती था शिया इस्लामी गणराज्य में तब्दील होने की प्रक्रिया सिर्फ युद्ध या ज़बरदस्ती का परिणाम नहीं थी। यह एक जटिल ऐतिहासिक यात्रा थी, जिसमें राजनीतिक सत्ता के बदलाव, सामाजिक नीतियां, कर व्यवस्था, धार्मिक प्रचार और सांस्कृतिक समावेशन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज का ईरान, भले ही इस्लामी शासन के अधीन हो, फिर भी अपनी गहन प्राचीन फारसी विरासत, दर्शन और बौद्धिकता की छाया लिए हुए है। यही वजह है कि ईरान ने अन्य इस्लामी देशों से अलग अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बनाए रखी है, एक पहचान जो सदियों पुरानी अग्नि की लौ की तरह आज भी जलती और चमकती है।