पाकिस्तान के लोकतंत्र का दुश्मन है अमेरिका!

अमेरिका की सड़कों पर असीम मुनीर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं लेकिन ट्रंप उन्हें लंच पर आमंत्रित कर रहे हैं

अमेरिका राष्ट्रपति ट्रंप और पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर

अमेरिका राष्ट्रपति ट्रंप और पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर

पाकिस्तान की सेना के प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर इन दिनों 5 दिवसीय दौरे पर अमेरिका पहुंचे हुए हैं। इस दौरे को वैसे तो रणनीतिक और राजनयिक संबंधों के लिहाज़ से अहम बताया जा रहा है लेकिन इसकी शुरुआत ही पाकिस्तान के लिए शर्मनाक हालातों के साथ हुई है। अमेरिका की सड़कों पर असीम मुनीर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं, जिनमें प्रदर्शनकारियों ने उन्हें ‘डिक्टेटर’, ‘मास मर्डरर’ और यहां तक कि ‘इस्लामाबाद का कसाई’ तक करार दे डाला।यह विरोध कोई सामान्य विरोध नहीं है। यह पाकिस्तान के अपने ही प्रवासी नागरिकों द्वारा किया जा रहा है, वे लोग जो पाकिस्तान की मौजूदा राजनीतिक स्थिति और विशेष रूप से सेना की भूमिका से नाखुश हैं।

पाकिस्तानी सेना के खिलाफ जनता

जनरल असीम मुनीर को अमेरिका में कदम रखते ही जिस प्रकार से सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया गया, वह न केवल पाकिस्तान की छवि को धक्का पहुंचाता है बल्कि इस बात की भी गवाही देता है कि पाकिस्तान की सेना के खिलाफ नाराज़गी केवल देश के भीतर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी फैल रही है। बात केवल नाराज़गी तक ही सीमित नहीं है, प्रदर्शनों के बीच ‘गीदड़-गीदड़’ का नारा भी लगाया गया जो दिखाता है कि पाकिस्तान की सेना के प्रति लोगों की घृणा किस हद तक बढ़ रही है। ऐसा शख्स जिसे भारत के खिलाफ सैन्य संघर्ष का नायक बनाया गया था उसे अमेरिका की सड़कों पर गीदड़ बताया जाना ही पाकिस्तान की सेना की कलई खोल रहा है। इन नारों से साफ हो गया है कि पाकिस्तान के अंदर सेना के राजनीतिक दखल और नागरिकों के दमन के खिलाफ लोगों में गुस्सा पनप रहा है।

पाकिस्तान की जनता के लिए बुरी खबर!

इस अपमानजनक शुरुआत के बाद एक और खबर ने असीम मुनीर को खुश कर दिया है। खबर आई है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने असीम मुनीर को लंच पर बुलाया है। कई लोगों को लग रहा है कि यह खबर भारत के लिए बुरी है लेकिन असल में यह पाकिस्तान के खुद के लिए खतरे की घंटी है। यह लंच और मीटिंग सिर्फ कूटनीतिक या सामान्य शिष्टाचार तक सीमित नहीं है। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान का पुराना भागीदार अमेरिका, पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व को छोड़कर सेना के साथ सीधा संवाद बनाए रखने की परंपरा पर चल रहा है। और यही पाकिस्तान के आम लोगों के लिए दिक्कत की बात है जो सैन्य तानाशाही से परेशान हैं। पाकिस्तान की आम जनता चाहती है कि सेना का दखल सत्ता में ना होकर उसके अपने कामों में रहे लेकिन इस तरह के कदमों से पता चलता है कि अंतरराष्ट्रीय ताकतें भी सेना को ही पाकिस्तान की सत्ता का असली केंद्र मानती हैं।

छद्म लोकतंत्र की तरफ जाएगा पाकिस्तान

पाकिस्तान के नागरिक लंबे समय से सत्ता के दोहरे ढांचे में जी रहा हैं, एक तरफ उनकी निर्वाचित सरकार है और दूसरी तरफ शक्तिशाली सेना जिस पर सरकार के निर्वाचन में दखल देने तक के आरोप हैं। पुराने उदाहरणों को छोड़कर हाल की ही बात करें तो 2022 में इमरान खान की सरकार के गिरने के बाद से यह साफ हो गया है कि पाकिस्तान में असली निर्णय सेना द्वारा लिए जाते हैं और प्रधानमंत्री महज दिखावे की कुर्सी पर बैठता है।

असीम मुनीर के कार्यकाल की शुरुआत से ही उन पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने इमरान खान की लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें किनारे लगाने की साज़िश रची और शाहबाज शरीफ व अन्य राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ कर सत्ता में सेना के दखल को मज़बूती दी। अब जब असीम मुनीर अमेरिका में ताकतवर हस्तियों से मिल रहे हैं, तब सवाल उठता है क्या यह दौरा पाकिस्तान में सेना के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने की कोशिश है? क्या यह पाकिस्तान को फिर से एक छद्म लोकतंत्र की तरफ ले जा रहा है जहां चुनाव और संविधान केवल दिखावा बनकर रह जाएंगे?

अमेरिका है लोकतंत्र का दुश्मन!

पाकिस्तान के लिए तो मुश्किलें हैं ही, साथ ही ट्रंप और दुनिया में खुद को लोकतंत्र का रहनुमा बताने वाले अमेरिका पर भी इसे लेकर कई सवाल है। वैश्विक मंच पर खुद को लोकतंत्र और मानवाधिकारों का रक्षक बताने वाले अमेरिका का पाकिस्तान के सैन्य शासन को समर्थन देने का लंबा इतिहास रहा है। ऐसे शासक जिन्होंने पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थाओं को कुचल दिया उन्हें अमेरिका ने बार-बार समर्थन दिया है।

1958 में जनरल अयूब खान ने राष्ट्रपति इस्कंदर अली मिर्ज़ा को हटाकर पाकिस्तान में पहला सैन्य तख्तापलट किया और खुद को देश का प्रमुख प्रशासक घोषित कर दिया था। अमेरिका ने अयूब खान का विरोध करना तो दूर, इस आधार पर पाकिस्तान को समर्थन दिया कि वह सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिकी मोर्चे का हिस्सा बन सकता है। डैनिस कुक्स ने अपनी पुस्तक The United States and Pakistan, 1947-2000 : disenchanted allies में लिखा है, “मिर्ज़ा के निष्कासन के चार दिन बाद ही पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति को US चार्जे डी’ अफेयर्स रिडवे नाइट ने शुभकामनाएं दी। अयूब ने इन शुभकामनाओं और रक्षा सचिव नील मैकलेरॉय के एक दोस्ताना पत्र को स्वीकार किया, जो हाल ही में पाकिस्तान के दौरे पर आए थे। अयूब ने नाइट को आश्वस्त किया, ‘हाल के घटनाक्रमों ने…पाकिस्तान की अपने गठबंधनों के प्रति वफ़ादारी को मज़बूत किया है। पाकिस्तान पहले से कहीं ज़्यादा पश्चिम के आज़ाद लोगों के पक्ष में है। यू.एस. का सहायता जारी रखना पाकिस्तान के लिए जीवन और मृत्यु का सवाल है’।”

इसके बाद आए जनरल याह्या खान, याह्या के कार्यकाल में 1971 का बांग्लादेश जनसंहार हुआ। पूर्वी पाकिस्तान में हज़ारों लोगों की हत्या की गईं लेकिन अमेरिका ने चुप्पी साधे रखी। दरअसल, याह्या खान उस वक्त अमेरिका और चीन के बीच एक कूटनीतिक पुल का काम कर रहे थे। इसीलिए राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उन्हें अपना दोस्त तक बता दिया था। लेकिन अमेरिका को पूर्वी पाकिस्तान में लोगों की हत्या से ज़्यादा अपनी कथित दोस्ती प्यारी थी।

1977 में जनरल ज़ियाउल हक ने फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था को तोड़ा। ज़िया के कार्यकाल में पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरवाद को खुला समर्थन मिला, मानवाधिकारों का हनन हुआ, लेकिन अमेरिका ने एक बार फिर आंखें मूंद लीं। अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ जंग के लिए अमेरिका को ज़िया की ज़रूरत थी। CIA का ‘Operation Cyclone’ पाकिस्तान की धरती पर चलता रहा, मुजाहिदीन को ट्रेनिंग दी जाती रही, और ज़िया को अरबों डॉलर की मदद मिलती रही।

1999 में जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ की चुनी हुई सरकार को हटाया, तो अमेरिका ने इसे लेकर कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया। 9/11 के बाद मुशर्रफ ‘War on Terror’ का सबसे बड़ा मोहरा बन गए। अमेरिका ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सहायता दी, जबकि देश के भीतर प्रेस की आज़ादी पर अंकुश, विपक्ष पर हमले, और जजों की बर्खास्तगी होती रही। लोकतंत्र एक बार फिर पिछड़ गया लेकिन अमेरिका को सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ एक पिट्ठू जनरल चाहिए था।

अब बात करते हैं मौजूदा सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर की। 2022 में उन्होंने इमरान खान की सरकार गिराने में पर्दे के पीछे से बड़ी भूमिका निभाई। आज पाकिस्तान में ‘हाइब्रिड तानाशाही’ का माहौल है जहां सेना पर्दे के पीछे से हर निर्णय नियंत्रित कर रही है। असीम मुनीर इन दिनों अमेरिका के दौरे पर हैं, और ट्रंप जैसे राष्ट्रपति उन्हें लंच पर आमंत्रित कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, अमेरिका की ही सड़कों पर पाकिस्तानी प्रवासी उन्हें गीदड़, इस्लामाबाद का कसाई और मास मर्डरर बता रहे हैं। बावजूद इसके, अमेरिका को इस जनरल को गले लगाने में कोई हिचक नहीं दिखा रहा।

इस बस घटनाओं से साफ पता चलता है कि अमेरिका के लिए लोकतंत्र कोई नैतिक प्रतिबद्धता नहीं, बल्कि एक रणनीतिक औजार है। जब पाकिस्तान में लोकतंत्र उनकी रणनीति में फिट बैठता है, तो वो उसका स्वागत करते हैं। लेकिन जब कोई जनरल उनके हितों की पूर्ति करता है, तो लोकतंत्र को ताक पर रख दिया जाता है।

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