मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दिल दहला देने वाले रेप के एक मामले में चौंकाने वाला फैसला दिया है। कोर्ट ने 4 साल 3 महीने की मासूम बच्ची के साथ बलात्कार के दोषी एक 20 वर्षीय जनजातीय युवक की फांसी की सजा को बीते 19 जून को उम्रकैद में बदल दिया है। दोषी जनजातीय शख्स ने रेप के बाद बच्ची को मरा हुआ समझकर एक बगीचे में फेंक दिया था। अपराध की जघन्यता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि निचली अदालत ने इसे ‘स्थायी अक्षमता’ का कारण मानकर मौत की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट ने मौत की सज़ा को इसे खारिज कर दिया है।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस देवनारायण मिश्रा की खंडपीठ ने कहा, “यह अपराध निस्संदेह क्रूर था, क्योंकि आरोपी ने 4 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया, उसका गला दबाया और उसे मरा समझकर ऐसी जगह फेंक दिया जहां उसे आसानी से नहीं खोजा जा सकता था। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसने क्रूरता के साथ अपराध नहीं किया।”
क्या था मामला?
अभियोजन पक्ष के अनुसार, 20 वर्षीय आरोपी ने शिकायतकर्ता की झोपड़ी में घुसकर सोने के लिए खाट मांगी थी। उसी रात, उसने पास के एक घर का दरवाजा खोला, जहां पीड़िता अपने माता-पिता के साथ सो रही थी। उसने बच्ची का अपहरण किया, उसके साथ बलात्कार किया और उसे बेहोश अवस्था में आम के बगीचे में फेंक दिया, यह मानकर कि वह मर चुकी है।
निचली अदालत का फैसला
निचली अदालत ने इस अपराध को अत्यंत गंभीर मानते हुए आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 450, 363, 376 (ए), 376एबी, 307, 201 और पॉक्सो एक्ट की धारा 5 और 6 के तहत दोषी ठहराया था। अदालत ने यह भी माना कि इस घटना से पीड़िता स्थायी रूप से अक्षम हो गई, जिसके आधार पर मौत की सजा सुनाई गई थी।
हाईकोर्ट में अपील और तर्क
आरोपी की ओर से अधिवक्ता समर सिंह राजपूत ने तर्क दिया कि पीड़िता और साक्ष्य खुले क्षेत्र से बरामद किए गए, जिससे बरामदगी की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है। उन्होंने यह भी दावा किया कि मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था और कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह नहीं था। राजपूत ने कहा कि पीड़िता को स्थायी अक्षमता या गंभीर चोट का कोई चिकित्सकीय साक्ष्य नहीं है। उन्होंने दोषी की कम उम्र, साफ-सुथरी छवि और उसके अनुसूचित जनजाति (ST) समुदाय का एक अशिक्षित सदस्य होने के कारण मौत की सज़ा दिया जाना उचित नहीं था था।
वहीं, राज्य की ओर से उप-महाधिवक्ता यश सोनी ने अपील का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा कि अभियोजन ने आरोपी का अपराध संदेह से परे साबित किया है। उन्होंने तर्क दिया कि 4 साल की बच्ची को मरने के लिए बगीचे में छोड़ देने वाले अपराधी को कोई रियायत नहीं दी जानी चाहिए।
MP हाईकोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को खारिज कर दिया कि पीड़िता इस घटना के चलते स्थायी रूप से अक्षम हो गई। कोर्ट ने डॉ. राकेश शुक्ला के बयान पर टिप्पणी की, जिसमें यह स्पष्ट नहीं था कि शरीर का कौन सा हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ या चोट ऐसी थी जो आजीवन अक्षमता का कारण बने।
कोर्ट ने अपराध की गंभीरता को स्वीकार करते हुए कहा कि पीड़िता की उम्र (4 वर्ष) और अपराध का तरीका, जिसमें बच्ची का निजी अंग फट गया और उसे मरा समझकर एकांत स्थान पर फेंक दिया गया, निश्चित रूप से गंभीर है। हालांकि, कोर्ट ने आरोपी की पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा। कोर्ट ने कहा, “आरोपी 20 वर्ष का जनजातीय युवक है, जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। उसकी मां के बयान के अनुसार, वह कम उम्र में घर छोड़कर ढाबे पर काम करने लगा और वह ठीक से शिक्षित नहीं है।”
सज़ा में हाईकोर्ट में किया बदलाव
हाईकोर्ट ने भग्गी बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य मामलों का हवाला देते हुए माना कि यह अपराध बर्बर था, लेकिन क्रूर नहीं था। कोर्ट ने मनोहरन बनाम राज्य और धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामलों का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि दोषी का कृत्य क्रूर था लेकिन इसे क्रूरता के साथ नहीं किया गया था। इसलिए, फांसी की सजा को 25 वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया गया, जिसमें 10,000 रुपये का जुर्माना भी शामिल है। आरोपी को जुर्माना न देने पर एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा। इस फैसला ने एक बार फिर समाज में बहस को जन्म दे दिया है कि क्या इतने जघन्य अपराध के लिए उम्रकैद पर्याप्त सजा है, खासकर जब पीड़िता एक मासूम बच्ची हो। क्या आरोपी की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को इस तरह के अपराध में रियायत का आधार बनाना चाहिए?